Kaimur News : एंड्रायड मोबाइल ने छोटे शहरों में सिनेमा हॉल की कर दी छुट्टी
2001 के बाद जबसे लगभग हर हाथ में एंड्रायड मोबाइल फोन आया, धीरे-धीरे इसमें इतनी सुविधाएं लोगों को मिलती गयी कि खासतौर से मध्यम व निम्न तबके के लोगों ने सिनेमा हॉल की तरफ से अपना रुख ही मोड़ लिया. इसका नतीजा रहा कि 90 की दशक में छोटे शहरों में अपनी अलग पहचान रखने वाला सिनेमा हॉल 2001 के बाद अपने वीरानगी की ओर चल पड़े और वर्ष 2020-21 में कोराेना काल के बाद तो रही सही कसर एक साथ पूरी हो गयी.
मोहनिया सदर. 90 के दशक का सिनेमा हॉल. सिनेमा हॉल युवा सहित घर परिवार के लोगों के लिए भी मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करता था. रिक्शा वालों का 20 रुपये बचाना और घर से कॉलेज तथा स्कूल के बहाने बस की सीढ़ियों के सहारे लटक कर, लाइन में लगकर जल्दी-जल्दी टिकट कटवा कर लोगों के मन को मोह लेने वाला एक मनोरंजक पल था सिनेमा हॉल. सिनेमा हॉल ने एक दो दशक पहले की पीढ़ी के युवा दिलों पर राज किया करता था, फिर चाहे वो शुक्रवार का इंतजार करता हुआ रिक्शे वाला हो कि आज फिल्म बदल जायेगी या फिर चाहे रविवार का इंतजार करते वो अधिकारी तथा अभिभावक जिनके जेहन में यह चलता रहता था कि आज छुट्टी है, आज कुछ पूरे घर परिवार के साथ मनोरंजन किया जाये. पर समय का चक्र बदलते देर नहीं लगता, किसी जमाने में लोगों की आवाज, सीटियों व तालियों की गुंज से गुलजार रहने वाला सिनेमा हॉल आज कबाड़खाने के साथ अंधेरे की चादर में लिपट कर एक कोने में पड़ा अपने अतीत पर रो रहा है. आज सिनेमा हॉल अतीत के पन्नों की धूमिल कहानी बनती जा रही है, जिसे शायद कोई पलट कर समझना चाहे. आज 2025 की चिलचिलाती गर्मियों में लोगों के जेहन में बस एक ही बात गूंज कर खामोश हो जाती है. वो रहा सिनेमा हॉल…… दर्शकों के नहीं आने से बंद पड़ने लगे सिनेमा हॉल लगभग 2001 के बाद जबसे लगभग हर हाथ में एंड्रायड मोबाइल फोन आया, धीरे-धीरे इसमें इतनी सुविधाएं लोगों को मिलती गयी कि खासतौर से मध्यम व निम्न तबके के लोगों ने सिनेमा हॉल की तरफ से अपना रुख ही मोड़ लिया. इसका नतीजा रहा कि 90 की दशक में छोटे शहरों में अपनी अलग पहचान रखने वाला सिनेमा हॉल 2001 के बाद अपने वीरानगी की ओर चल पड़े और वर्ष 2020-21 में कोराेना काल के बाद तो रही सही कसर एक साथ पूरी हो गयी. इसके बाद से सिनेमा हॉल पूरी तरह बंद ही हो गये. आज पीछे मुड़ कर देखें तो लोगों को वह गुजरा जमाना याद आ जाता है कि सिनेमा हॉल जाने व फिल्म छूटने के समय रिक्शा वाले सवारी के लिए बाहर खड़े होकर इंतजार करते रहते थे. सिनेमा हॉल के आसपास दर्जनों लोग ठेला, खोमचा लगाकर रोजगार पाते थे. सिनेमा हॉल मालिक के साथ इसमें कार्य करने वाले दर्जनों लोगों का परिवार चलता था. आज सिनेमा हॉल के बंद होने से लोग इससे भूलते जा रहे है. एक समय ऐसा भी आयेगा जब हमारी आने वालीं पीढ़ियों के लिए सिनेमा हॉल सिर्फ एक अतीत के पन्नों में सिमटी कहानी बन कर रह जायेगी, जिसे वो पढ़ तो सकेंगे लेकिन शायद देख नहीं पायेंगे. # रेट ने तोड़ डाले सिनेमा हॉल मालिकों का कमर कभी एक जमाने में टिकट के लिए लाइन में लगकर खड़े होने तथा एक बार में संभव न हो तो तीन-तीन शो करना उसके बाद भी फिल्में एक सप्ताह तक रहती थी और अगले शुक्रवार का इंतजार लोगों के साथ सिनेमा हॉल मालिकों को भी, ताकि पता चले कि कौन सी नयी फिल्म आयी है. इससे दर्शकों का भी जुझारूपन बढ़ता था, उसके बाद समय बदलता गया शो कम होने लगे. अंततः आज साफ दर्शकों की संख्या ही समाप्त हो गयी है. एक ऐसा समय था जब टिकट लेने के लिए लोगों में होड़ रहती थी. लोग लाइन लगा कर टिकट घर से टिकट खरीदते थे. यहीं तक नहीं टिकट ब्लैक भी होती थी. कभी कभी टिकट के लिए लोगों के बीच धक्कामुक्की तो, कभी हाथापाई भी होती थी. सिनेमा हॉल संचालक को पुलिस तक बुलानी पड़ जाती थी. मगर वह एक अलग दौर था और आज ऐसा दौर आया कि छोटे शहरों में टिकट तो छोड़िये आज लोग सिनेमा हॉल की तरफ देख भी नहीं रहे हैं. # भोजपुरी में पारिवारिक फिल्मों की कमी बिहार-यूपी के पूर्वांचल एरिया में अक्सर क्षेत्रीय भाषाई भोजपुरी फिल्में ही देखी जाती है. पहले के समय में कुछ भोजपुरी फिल्में भी आती थी तो काफी पारिवारिक होती थी, मगर अब पारिवारिक फिल्मों का न होना भी सिनेमा हॉल के बंद होने में बड़ा योगदान रखता है. आज कुछ क्षेत्रीय भाषाई फिल्मों में इतना फूहड़पन समाता जा रहा है कि एक सभ्य समाज के लोग उसे परिवार के साथ देखना शायद ही कभी पसंद करेंगे. यदि सिनेमा हॉल मालिकों की मानें तो एक तरफ सरकार द्वारा जो सिनेमा हॉल पर टैक्स तय किया गया, वह समय के साथ बढ़ता गया और दूसरी तरफ फिल्मों का जो रेट था वह भी दिन प्रतिदिन इतना बढ़ता गया कि दर्शक कम होते गये और धीरे-धीरे सिनेमा हॉल बंद होते गये. लॉकडाउन के समय सिनेमा हॉल मालिकों की आस बिखरी जब तक एंड्रायड मोबाइल नहीं था, तब तक तो दर्शक आ ही जाते थे. मगर जब से एंड्राइड मोबाइल आ गया लोगों ने सिनेमा हॉल की तरफ से अपना रुख ही बदल लिया. क्योंकि जो सीन सिनेमा हॉल में देखने को मिलती थी वह चीज लोगों को घर पर ही मिलने लगी. ओटीटी और एंड्राइड मोबाइल फोन पर समय के कुछ अंतराल में फिल्में मिल ही जाती हैं. लोगों द्वारा अपने-अपने घरों में बड़ी-बड़ी साइज के टेलीविजन प्राउंटर तथा होम थिएटर में लगाकर फिल्में देखी जाने लगी. इसके बाद सिनेमा हॉल के प्रति लोगों का लगाव ही खत्म हो गया. सन् 2020-21 का जो कोरोना काल था उसमें लगे लॉकडाउन के कारण तथा लोगों का जमावड़ा न होने के कारण बिल्कुल सिनेमा हॉल मालिकों की आस बिखर गयीं. उसके बाद खुद को संभालना इतना मुश्किल सा हो गया कि सिनेमा हॉल संचालकों को इस धंधे को बंद कर दूसरे व्यवसाय की तलाश करनी पड़ गयी. # सिनेमा हॉल मालिकों ने नहीं दिया तकनीकी पर जोर एक तरफ पूरी दुनिया आधुनिकता के पीछे भाग रही है तो सिनेमा हॉल मालिकों ने अपने आप शुरू से ही पारंपरिक तरीके से ही जो चलाना शुरू किया, उसमें परिवर्तन नहीं किया. इसके परिणाम स्वरूप सिनेमा हॉल बंद होने लगे. उदाहरण के तौर पर अगर सिनेमा हॉल में नयी तकनीक से वेब सीरीज, आइपीएल चैंपियन ट्रॉफी सहित आज जो भी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मैच हो, खेल हो अगर इसको दिखाया जाता उसमें आधुनिकता का समावेश किया जाता, तो निश्चित तौर पर दर्शक आते, मगर सिनेमा हॉल मालिकों ने ऐसा नहीं किया. मल्टीपल कल्चर या मॉल कल्चर को अगर छोटे-छोटे शहरों में बढ़ावा मिला होता तो आज भी सिनेमा हाल चलते, मगर सिनेमा हॉल संचालकों ने इस पर ध्यान नहीं दिया # थियेटर वालों से लेनी चाहिए थी सिख सिनेमा हॉल मालिकों को थिएटर से सीख लेनी चाहिए. क्योंकि वहां पर मल्टीपर्पज से कार्यक्रम होते हैं जैसे की फिल्म, नाटक, ड्रामा होता है, जिससे लोगों को नयी नयी चीजें देखने को मिलती हैं, जो आज भी कोलकाता जैसे बड़े शहरों में चलता है. एक तरफ लोग रात में अधिक शो देखना पसंद करते थे, तो छोटे छोटे शहरों में अक्सर 12 से 3 और 3 से 6 ही शो चलता है. जबकि, छोटे-छोटे शहरों में भी रात्रि 9-10 बजे तक गलियों में यार दोस्तों से मिल कर गपशप करते नजर आ जायेंगे. लेकिन जब सिनेमा हॉल चलता था तो लोग रात में दोस्तों के साथ फिल्म देखने जाया करते थे. शहरों व कस्बे के लोग रात के समय ही अपनी दुकानों को बंद करने के बाद परिवार के साथ फिल्म देखने जाया करते थे. लेकिन आज सुरक्षा की दृष्टि से भी लोग अपने घरों से परिवार के साथ बाहर जाकर फिल्म देखना खतरे से खाली नहीं समझ रहे है. # बंद बड़े सिनेमा हॉल पिछड़ेपन का दे रहे संकेत आप अगर विकसित शहरों में जायेंगे, तो वहां पर रात में भी लोग मल्टीपर्पज सिनेमा हॉल या थिएटर में लगी फिल्म को जरूर देखने जाते हैं. अगर छोटे-छोटे शहरों में सिनेमा हॉल बंद हो रहे हैं तो यह पिछड़ेपन का द्योतक बनेगा. सुरक्षा मुहैया नहीं होने से महिलाएं नहीं निकल रही है, तभी तो सिनेमा हॉल रात में नहीं चलते हैं, जहां पर अच्छी फिल्में दर्शकों को नहीं परोसी जा रहीं है, तभी तो लोग परिवार के साथ फिल्म नहीं देखने जा रहे हैं. ऐसे कई मुद्दे है जो पिछड़ेपन की ओर संकेत कर रहे हैं. # बोले पूर्व सिनेमा हॉल संचालक इस संबंध में पूछे जाने पर कुमार टाॅकिज मोहनिया के संचालक प्रेम गुप्ता ने कहा कि आडियंश की कमी, मूवी का रेट हाई होना, यहां भोजपुरी फिल्मों की मांग थी लेकिन वैसी फिल्में नहीं आ रही है. लोकल एरिया है यहां प्रति व्यक्ति 30-40 रुपये से अधिक मिलता नहीं था. मूवी का रेट काफी अधिक है. मूवी दर मूवी घाटा था. एंड्रायड मोबाइल आने से लोगों का झुकाव सिनेमा हॉल की तरफ से बिल्कुल कम हो गया. सरकार का टैक्स बहुत अधिक है. कमाई कुछ नहीं है. पहले पब्लिक इंटरटेनमैंट के लिए संचालकों को प्रेशर करती थी, अब कोई पूछने वाला नहीं है, उस मकान में अब कबाड़ की दुकान किया गया है.
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