Sama Chakeva: पिता कृष्ण के शाप से कैसे मुक्त हुई सामा, भाई बहन के अटूट प्रेम के पर्व की जानें पूरी कथा व शुभ मुहूर्त
Sama Chakeva: मिथिला का प्रसिद्ध लोक पर्व सामा-चकेवा है. भाई-बहन का यह त्योहार सात दिनों तक चलता है. कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा की शाम ढलते ही महिलाएं सामा का विसर्जन करती हैं. यह पर्व प्रकृति प्रेम, पर्यावरण संरक्षण, पक्षियों के प्रति प्रेम व भाई-बहन के परस्पर स्नेह संबंधों का प्रतीक है.
मुख्य बातें
Sama Chakeva: पटना. सामा-चकेवा मिथिला का प्रसिद्ध लोक पर्व है. यह पर्व प्रकृति प्रेम, पर्यावरण संरक्षण, पक्षियों के प्रति प्रेम व भाई-बहन के परस्पर स्नेह संबंधों का प्रतीक है. भाई-बहन का यह त्योहार सात दिनों तक चलता है. यह कार्तिक शुक्ल द्वितीया से प्रारंभ और पूर्णिमा की रात तक चलता है. कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा की शाम ढलते ही महिलाएं सामा का विसर्जन करती हैं. आचार्य राकेश झा ने बताया कि कार्तिक शुक्ल सप्तमी से आरंभ हुए भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक लोक पर्व सामा-चकेवा का कार्तिक पूर्णिमा की चांदनी में विसर्जन होगा. बुधवार की रात व्यापिनी पूर्णिमा में बहनें भाइयों को धान की नयी फसल का चुरा व दही खिला कर सामा-चकेवा की मूर्तियों को नदी- तालाबों में विसर्जित करेंगी. मिथिला का यह सामा त्योहार बडा ही रमणीक होता है.
Sama Chakeva: स्कंद पुराण के इस निम्न श्लोक के आधार पर मनाया जाता है यह पर्व
यह खास कर यहां के महिला समाज का ही पर्व है. जो स्कंद पुराण के इस निम्न श्लोक के आधार पर मनाया जाता है.
द्वारकायाण्च कृष्णस्य पुत्री सामातिसुंदरी।
………
साम्बस्य भगिनी सामा माता जाम्बाबती शुभा।
इति कृष्णेन संशप्ता सामाभूत् क्षितिपक्षिणी।
चक्रवाक इति ख्यातः प्रियया सहितो वने।।
उक्त पुराण में वर्णित सामा की कथा का संक्षिप्त वर्णन इस तरह है कि सामा नाम की द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की एक बेटी थी, जिसकी माता का नाम जाम्बवती था और भाई का नाम सम्बा तथा उसके पति का नाम चक्रवाक था. चूडक नामक एक सूद्र ने सामा पर वृंदावन में ऋर्षियों के संग रमण करने का अनुचित आरोप श्री कृष्ण के समक्ष लगाया, जिससे श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो सामा को पंक्षी बनने का शाप दे दिया और इसके बाद सामा पंक्षी बन वृंदावन में उडने लगी.
Sama Chakeva: भाई ने की तपस्या, पिता के शाप से बहन को कराया मुक्त
उसके प्रेम मे अनुरक्त उसका पति चक्रवाक स्वेच्छा से पंक्षी का रूप धारण कर उसके साथ भटकने लगा. शाप के कारण उन ऋर्षियों को भी पंक्षी का रूप धारण करना पड़ा. सामा का भाई साम्ब जो इस अवसर पर कहीं और रहने के कारण अनुपस्थित था और लौट कर आया तो इस समाचार को सुन बहन के बिछोह से दुखी हुआ. परंतु श्रीकृष्ण का शाप तो व्यर्थ होनेवाला नहीं था. इसलिए उसने कठोर तपस्या कर अपने पिता श्रीकृष्ण को फिर से खुश किया और उनके वरदान के प्रभाव से इन पंक्षियों ने फिर से अपने दिव्य शरीर का धारण कर अपने धाम को प्राप्त किया. इस अवसर के निम्य आगे दिए जानेवाले वरदान के रूप वचन के अनुसार स्वजन के अल्पआयु होने की आशंका और उसकी आयु वृद्धि की कामना से मिथिला में महिलाओं के द्वारा इस सामा की पूजा का प्रचार हुआ, जो अब तक चली आ रही है.
Sama Chakeva: भाई तथा स्वामी के दीर्घआयु होने की कामना से मनाया जाता यह पर्व
वर्षे वषे तु या नारी न करोति महोत्सवम्।
पुत्रपौत्रविनिर्मुक्ता भर्ता नैव च जीवति।।
तथा
भर्त्तुव्रियोगं नाप्रोति सुभगा च भविष्यति।
पुत्रपौत्रयुता नारी भ्रातृणां जीवनप्रदा।।
सामा त्योहार यहां खासकर अपने भाई तथा स्वामी के दीर्घआयु होने की कामना से मनाया जाता है. इस अवसर पर मिथिला की प्रायः प्रत्येक नारी अदम्य उत्साह के साथ महिला तथा पुरूष प्रभेद की पंक्षियों की मिट्टी की मूर्तियां अपने हाथों से तैयार करती हैं, जो सामा चकेबा के नाम से जाना जाता है. लक्ष्मीनाथ झा की पुस्तक मिथिला की सांस्कृतिक लोकचित्रकला में वर्णित कथा के अनुसार यह सामा श्रीकृष्ण की बेटी सामा तथा चकेबा उसके स्वामी चक्रबाक का ही द्योतक है. चक्रवाक का अपभ्रंष ही चकेबा बन गया है. इस अवसर पर निम्य वचन के आधार पर एक पंक्ति में बैठे सात पंक्षियों की मूर्तियां भी बनायी जाती है, जो सतभैया कहलाते हैं. ये सप्त ऋर्षि के बोधक हैं. इस समय तीन तीन पंक्तियों में बैठी छह पार्थिव आकृतियों की मूर्तियां भी बनाई जाती है, जिन्हें शीरी सामा कहते हैं. वे षडऋतुओं के प्रतीक माने जाते हैं.
Sama Chakeva: नये खड के तिनकों से बनता है वृंदावन, सन से बनती है चूड़क की मूंछ
चूडकस्यापि प्रतिमां तथा वृंदावनस्य च ।
सप्तर्षीणान्तथा कृत्वा नाना वर्णोर्विचित्रिताम्।।
महिलाएं नये खड के तिनकों से वृंदावन तथा लंबी लंबीं सन की मूंछों से युक्त चूडक का प्रीतक उसकी प्रतिमा भी बनाई जाती है, जो वृंदावन और चुगला कहलाते हैं. सबके अंत में दो विपरित दिशाओं की ओर मुखातिब दो पंक्षियों की मूर्तियां एक ही जगह बैठी बनाई जाती है, जो बाटो-बहिनो कहलाती है. यह सामा और उसके भाई का प्रतीक माना जाता है. जिन्हें भाग्यचक्र ने विमुख कर दिया था. इसके अतिरिक्त सामा चकेबा की भोजन सामग्री को रखने के लिए उपर एक ढंकन के संग मिट्टी की एक छोटी हंडी के आकार का बर्तन भी बनाया जाता है, जिसे सामा पौति कहते हैं. जिन्हें महिलाएं अपने हाथों से अनेक रंगों के द्वारा निम्य श्लोक के अनुसार रंगती हैं और जो बड़े ही आकर्षक दिखते हैं.
Sama Chakeva: दस दिनों में तैयार करती हैं इन मूर्तियों को महिलाएं
इस अवसर पर यहां की महिलाएं दस दिनों में कुल मूर्तियों को तैयार कर और उन्हें बांस की कमचियों से निर्मित एक प्रकार के डलिये जिसे चंगेरा कहते हैं, उसमें सजाकर पंक्षियों का दाना भोजन नया धान का शीश उसके भोजन के रूप में डाल देती हैं. इसके बाद एकदशी से जब चंद्र की चांदगी कुछ प्रकाशयुक्त हो जाती है, तो आगे दिए गए वचन के अनुसार अपने अपने चंगेरों को माथे पर रख जोते हुए खेतों में हर रात अपनी सखियों के संग जा और चंगेरों को खेतों में रख समायानुकूल सामा गीत तथा अनेक तरह के हास्य और विनोदपूर्ण क्रियाओं द्वारा सामा की अर्चना करती है.
क्षेत्रे क्षेत्रे तथा नार्य्यः कृतकौतुककमंलाः।
तत् सर्वं वंशपात्रे तु कृत्वा धृत्वा तु मस्तके ।।
रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में भेजी जाती है सामा की मूर्तियां
सामा त्योहार के समय आपस में अपनी अपनी रिश्तेदारों के घर सौगात के रूप में कुछ सामा चकेबा की मूर्तियां चुगला वृंदावन और चूडा तथा गूड चंगेरा में रख भेजना यहां की महिलाएं आवश्यक मानती हैं. जिनमें उच्च या निम्य वर्ग का भेद नहीं दिखता है और आपस में प्रेम बढ़ाने की भावना निहित है. इस त्योहार की अंतिम रात पूर्णमासी को मिथिला में जब महिलाएं अपने अपने आंगन मे अर्धरात के समय चौमुख दीप से प्रकाशित और मिट्टी की मूर्ति तथा अन्य वस्तुओं से सुसज्जित चंगेरों को माथे पर धारण किए मधुर स्वर से लोक गीत गोते पंक्तिबद्ध हो निकली हैं और जोते हुए खेतों में पहुंच अपने-अपने चंगेरों को आगे रख मंडलाकार बैठ विनोदयुक्त हंसी की किलकारियों से आकाश को गुंजित करने लगती हैं तो उस समय ऐसा रमणीक तसवीर मालूम पडता है मानो चंद्रमा अनेक रूप धारण कर जमीन पर उतर आया हो और मधुर कंठों से निनादित वह लोकगीत सुन आनंद के मारे अपने पूर्ण कलाओं से युक्त हो प्रसंन्नता से हंस रहा हो, जिसकी हंसी प्रकाशित चांदनी के रूप में जमीन पर बिखर गई हो.
Sama Chakeva: आंचल शीरी पर रख आपस में एक दूसरे से बदलती हैं बहनें
इस समय सामा खेल के अवसर पर प्रत्येक महिला एक निश्चित मंत्र उच्चारण के संग शीरी सामा को अपने अपने आंचल के छोडों पर रख आपस में एक दूसरे से बदलती हैं, जिसका तात्यपर्य अपने प्रियजनों की आयु को परस्पर आदान प्रदान कर प्रत्येक पुरूष को लंबी आयुवाला बनाने का रहता है. इस बदलोबदल का दूसरा तात्यपर्य यह भी रहता है कि प्रत्येक पुरूष आपस में एक दूसरे का भाई बना रहे. इस तरह इस कार्य में एकता की भावना छिपाई गई है. इसी लिए बिना भाईवाली बहन के संग यह बदलाव करना महिलाओं के लिए वर्जित होता है. काफी देर तक विनोद पूर्ण लोकगीत के संग हर्षयुक्त खेल खेलने के बाद अंत में ये महिलाएं वृंदावन के तिनकों में आग लगा कर एक तय मंत्रों के साथ चुगला के मूंछों को जला देती हैं और इसके बाद उन अर्ध जली मूंछोंवाली मूर्तियों को उनके नीचे लगी लकडियों के सहारे उन जोते हुए खेतों में खडा कर गाड देती हैं, ताकि उनकी दुर्दशा दुनिया के लोग देख सके और चुगली करने की आदत छोड़ दे.
Sama Chakeva: मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर खेतों छोड़ घर लौटती है बहनें
इसके बाद ये महिलाएं अपने अपने सामा चकेबा की मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर उन खेतों में डाल अपने अपने घर की ओर रवाना हो जाती हैं और रास्ते में बाटो बहिनो की मूर्तियों को रखते हुए अपने घर को पहुंच बचा कर रखे हुए बाकी सामा को भाई के हाथों तोडबा देती हैं. इन सब बातों का यह तात्पर्य है कि इन सब मूर्तियों के रूप में श्रीकृष्ण की बेटी सामा शाप मुक्त होकर दिव्य शरीर धारण कर बाट जोहते हुए अपने भाई के पास फिर से अपने धाम को पहुंच गई और चूडक जिसने चुगली कर सामा पर कलंक लगाया था वृंदावन के संग जला कर राख बना दिया गया, ताकि उस प्रकार के लोगों का नामोनिशान मिट जाए.
Sama Chakeva: सामा खेल में छुपा है कुछ धार्मिक तात्पर्य
मिथिला के इस सामा खेल में कुछ धार्मिक तात्पर्य भी छुपा है. वह यह है कि जैसे ये महिलाएं यह सामा खेलने के लिए कितने मेहनत से तरह तरह से सुंदर मूर्तियों का अपने हाथों से निर्माण तथा रंग रोगन कर खेल के अंत में उन्हें अपने और अपने भाई के हाथों तोड़ देती हैं और दूसरे साल फिर से उसका निर्माण करती है, उसी तरह भगवान अपने मनोरंजन के लिए अपने हाथों से सुंदर से सुंदर वस्तुओं का निर्माण कर जमीन पर सृष्टि की रचना करता है और अपने ही इच्छानुसार अपने हाथों उसे नष्ट भी करता है. अर्थात यह सृष्टि अनित्य है. इन सब कारणों से मिथिला में यह सामा का त्योहार प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है. इसी से ज्ञात होता है कि पौराणिक युग से ही मूर्तियों पर चित्रण करने की कला यहां की महिलाओं के संग चली आ रही है, जो इस समय भी लोक चित्रकला के रूप में प्रचलित है.
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