Puja Niyam: क्या बिना नहाए पूजा या मंत्र जाप करने से दोष लगता है? जानें सही नियम
Puja Niyam: बहुत से लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि क्या बिना नहाए पूजा या मंत्र जाप करना धार्मिक रूप से उचित है या इससे कोई दोष लगता है. हिंदू धर्म में शुचिता का विशेष महत्व है, लेकिन कुछ परिस्थितियों में नियमों में छूट भी दी गई है. जानिए क्या है सही धार्मिक दृष्टि.
Puja Niyam: अक्सर लोग पूछते हैं—“अगर मैं बिना नहाए मंत्र जाप करूं, तो क्या मैं पाप का भागी बन जाऊंगा?” यह प्रश्न जितना सरल लगता है, उतना ही गहरे भ्रम से भरा है. किसी भी साधना से पहले यह समझना जरूरी है कि आप मंत्र जाप क्यों करना चाहते हैं—क्या लक्ष्य है, किस भावना से जप कर रहे हैं, और क्या सच में स्नान इसमें बाधक है? यहां जानिए ज्योतिषाचार्य डॉ एन के बेरा से
स्नान: सिर्फ शरीर नहीं, मन की शुद्धि का भी प्रतीक
हिंदू धर्म में स्नान का महत्व केवल बाहरी स्वच्छता तक सीमित नहीं. माना जाता है कि स्नान मन, विचार और ऊर्जा को भी शुद्ध करता है. यदि आप स्वस्थ हैं, दिनचर्या सामान्य है और फिर भी जानबूझकर बिना स्नान मंत्र जाप करते हैं, तो यह साधना के प्रति लापरवाही मानी जाती है. ऐसी अवस्था में मन की अशुद्धि जप की प्रभावशीलता घटा देती है, और इसे शास्त्रों में अनुचित बताया गया है.
मजबूरी या बीमारी हो तो नियमों में छूट
धर्मग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि बीमारी, कमजोरी या किसी वास्तविक मजबूरी की स्थिति में स्नान करना अनिवार्य नहीं. ऐसे समय में भक्ति का मूल्य बढ़ जाता है और जप-पूजा पूर्ण फल देते हैं. ईश्वर नियमों से अधिक भावना और परिस्थिति को देखते हैं.
उदाहरण देने से पहले खुद को समझें
बहुत लोग कहते हैं कि कई भक्त बिना स्नान किए भी परम प्रिय बने. पर वे या तो अत्यंत दुर्दशा में थे, या भक्ति में पूर्ण लीन. वे अपवाद थे, सुविधा नहीं. सवाल यह है—क्या हम उसी भाव, उसी स्थिति में हैं?
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योगसूत्र की शिक्षा: विवेकपूर्ण साधना ही फल देती है
योगसूत्र स्पष्ट कहते हैं कि वैराग्य से पहले विवेक आवश्यक है. यानी साधक को स्वयं समझना चाहिए कि उसका मन, शरीर और कर्म कितने शुद्ध हैं. विवेक के साथ की गई साधना ही प्रतिफल देती है. इसलिए जप से पहले मानसिक और शारीरिक शुचिता रखना श्रेष्ठ माना गया है.
नियम से अधिक महत्वपूर्ण आपकी भावना
यदि आप शारीरिक रूप से सक्षम हैं, तो स्नान कर ही मंत्र जाप करें—यह अनुशासन और पवित्रता दोनों को मजबूती देता है. लेकिन यदि आप असमर्थ हैं, तो ईश्वर आपकी स्थिति स्वयं समझते हैं. भक्ति का सार निष्कपटता है, बाध्यता नहीं.
