भंवर में अमेरिकी चुनाव का नतीजा

बुश बनाम गोर मामले की तरह इस चुनाव के भी सुप्रीम कोर्ट के सामने जाने के आसार हैं, जहां ट्रंप द्वारा बड़ी तादाद में आये पोस्टल बैलट पर सवाल उठाया जायेगा.

By मोहन गुरुस्वामी | November 5, 2020 6:16 AM

मोहन गुरुस्वामी, वरिष्ठ टिप्पणीकार

mohanguru@gmail.com

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर दुनियाभर की निगाहें जमी होती हैं और ऐसा माना जाता है कि राष्ट्रपति साफ-सुथरे जनादेश से चुना जाता है. अमेरिकी राष्ट्रपति को दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति मानने का यह बड़ा आधार भी है. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव विवादों से परे नहीं होते. व्यापक स्तर पर यह माना जाता है कि 1960 के चुनाव में जॉन एफ केनेडी एक लाख मतों से कम के बहुमत से इसलिए जीत सके थे कि ट्रेड यूनियनों और माफिया गिरोहों में पैठ रखनेवाले डेमोक्रेटिक पार्टी के एक प्रभावशाली मेयर रिचर्ड डाले ने फर्जी मतदान कराया था.

साल 2000 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के चुनाव के बारे में कहा जाता है कि वे धोखाधड़ी, गलत तरीके से गिनती और अदालती दखल के सहारे फ्लोरिडा राज्य को 537 मतों से जीत गये थे. राज्य में चुनाव प्रक्रिया की निगरानी और परिणाम के सत्यापन के लिए जिम्मेदार स्थानीय स्टेट सेक्रेटरी कैथलीन हैरिस फ्लोरिडा में बुश के प्रचार अभियान की सह-प्रमुख भी रह चुकी थीं. जॉर्ज बुश के भाई जेब बुश राज्य के गवर्नर थे. इन लोगों ने 12 हजार से अधिक लोगों को पूर्व अपराधी कहकर मताधिकार से वंचित कर दिया था.

जब फ्लोरिडा के सर्वोच्च न्यायालय ने सभी 67 काउंटी में दोबारा गिनती का आदेश दिया, तो कंजरवेटिव रुझान के अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश पर रोक लगाते हुए परिणाम घोषित करने का आदेश दे दिया. राष्ट्रपति इलेक्टोरल कॉलेज द्वारा चुने जाते हैं, जिनका चयन लोकप्रिय वोट से होता है. राष्ट्रपति बनने के लिए इस कॉलेज के 270 वोट की जरूरत होती है. साल 2016 के चुनाव में हिलेरी क्लिंटन को लगभग तीस लाख लोकप्रिय वोट अधिक मिले थे, लेकिन ट्रंप इलेक्टोरल कॉलेज के 306 वोट पाकर जीत गये थे.

इसी वजह से कुछ दिन पहले सीनेट द्वारा सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में एमी कोनी बेरे को मंजूर करने से अदालत का संतुलन कंजरवेटिव पक्ष में झुकना अहम है. साल 2016 में रिपब्लिकन बहुमत वाले सीनेट में तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा नामित जज मेरिक गारलैंड की नियुक्ति को रोक दिया था, जबकि ओबामा का कार्यकाल समाप्त होने में अभी दस महीने बाकी थे. रिपब्लिकन नेता मिच मैक्कॉनेल ने तब यह तर्क दिया था कि चुनाव नजदीक हैं, इसलिए फैसला लोगों को करना चाहिए. इस बार उन्होंने इसके ठीक उलट तर्क दिया.

बुश बनाम गोर मामले की तरह इस चुनाव के भी सुप्रीम कोर्ट के सामने जाने के आसार हैं, जहां ट्रंप द्वारा बड़ी तादाद में आये पोस्टल बैलट पर सवाल उठाया जायेगा. उन्होंने मतगणना के बीच यह बात कह भी दी है. ट्रंप ने इस मामले पर अपनी राय को पहले भी नहीं छुपाया है. उन्होंने इस बार के चुनाव को अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी गड़बड़ी की संज्ञा भी दे दी है. अमेरिका में 24 करोड़ के आसपास मतदाता हैं, जिनमें से दस करोड़ से अधिक लोगों ने पोस्टल बैलट से मतदान किया है.

सर्वेक्षणों में बताया गया है कि करीब 60 फीसदी डेमोक्रेट मतदाताओं की पसंद पोस्टल बैलट थी, जबकि लगभग 25 फीसदी रिपब्लिकन ही ऐसा करने के पक्ष में थे. ऐसे में चुनाव परिणामों को लेकर पर्यवेक्षकों में चिंता है. संभव है कि मतपेटियों और मशीनों की गणना में राष्ट्रपति ट्रंप की बढ़त हो, लेकिन पोस्टल बैलट की गणना के साथ इसमें कमी आने लगे.

यह स्थिति विशेष रूप से पेंसिल्वेनिया, मिशिगन, विस्कोंसिन, टेक्सास, जॉर्जिया और फ्लोरिडा जैसे राज्यों में पैदा हो सकती है, जहां 2016 में ट्रंप को बढ़त मिली थी. ट्रंप के प्रतिनिधि हर पोस्टल बैलट की पड़ताल कर रहे हैं और उनमें से बहुत को चुनौती देने का मन बना रहे हैं. करीब 1.3 फीसदी मतों के विभिन्न तकनीकी आधारों पर खारिज होने का आकलन है यानी 1.10 लाख के आसपास ऐसे वोट रद्द हो सकते हैं. याद रहे, 2000 में फ्लोरिडा में केवल 537 वोटों के अंतर से सभी डेलीगेट जॉर्ज बुश के पक्ष में चले गये थे. इस बार ट्रंप अभियान ने सैकड़ों की संख्या में वकीलों को तैनात किया है और आपत्तियों की वजह से चुनावी प्रक्रिया की गति धीमी होने की आशंका है.

समस्या यह है कि राज्यों को इलेक्टोरल कॉलेज के 538 सदस्यों का चुनाव आठ दिसंबर तक कर लेना है. इसके बाद राष्ट्रपति के ‘निर्वाचन’ के लिए 14 दिसंबर तक इन सदस्यों की औपचारिक बैठक होनी है. अमेरिका समेत अन्य कुछ देशों में इलेक्टोरल कॉलेज का चुनाव लोकप्रिय वोट से होता है, लेकिन अमेरिकी संविधान में इस बारे में कुछ नहीं है. दूसरे अनुच्छेद के पहले खंड में लिखा है कि हर राज्य वैधानिक व्यवस्था के तहत राज्य के सीनेटरों और हाउस प्रतिनिधियों की संख्या के बराबर निर्वाचकों की नियुक्ति करेगा.

टेक्सास, जॉर्जिया और फ्लोरिडा में गवर्नर और राज्य विधायिका रिपब्लिकन पार्टी के नियंत्रण में है. ये राज्य लोकप्रिय वोट की अनुपस्थिति में अपने से निर्वाचकों की नियुक्ति कर सकते हैं. यदि ऐसा होता है, और उन्हें परंपरागत राज्यों से भी समर्थन मिलता है, तो वे अगले राष्ट्रपति निर्वाचित हो जायेंगे. बहरहाल, संभवत: अंतिम निर्णय सर्वोच्च न्यायालय से हो, लेकिन उसके रुझान से सभी अच्छी तरह से परिचित हैं. न्यायालय का जो भी निर्णय हो, उसका 20 जनवरी से पहले आना संभव नहीं लगता. इस दिन परंपरागत रूप से राष्ट्रपति को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलायी जाती है. यदि ऐसा नहीं होता है, तो ट्रंप कुछ और समय के लिए राष्ट्रपति बने रह सकते हैं.

अधिकतर भारतीयों के मन में सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत के लिए कौन उपयुक्त होगा, विशेषकर चीन के साथ वर्तमान तनातनी के संदर्भ में. मेरी राय में इसका कोई विशेष महत्व नहीं है. अमेरिकी आबादी का बड़ा बहुमत वैश्विक मामलों में अमेरिका की प्रमुखता के लिए चीन को एक चुनौती के रूप में देखता है, भले वे इसे खतरा न भी मानते हों. सो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि व्हाइट हाउस में ट्रंप हैं या फिर बाइडेन.

अमेरिकी सेना अपने हिसाब से रास्ता निकाल ही लेगी और चीन पर एक ठोस नीति के लिए शासन पर दबाव भी बनायेगी. भारत चीन के बरक्स अगली कतार में खड़ा एक देश है और इसके खिलाफ वैश्विक मामलों को प्रभावित करने की क्षमता भी केवल उसी में है. कोई भी राष्ट्रपति हो, वह सक्रियता के साथ भारत का साथ देगा. बाइडेन अपेक्षाकृत ऐसा विचारधारात्मक कारणों से करेंगे, जबकि ट्रंप के कारण अमेरिकी हथियारों की खरीद के आग्रह जैसी लेन-देन की भावना से प्रेरित होंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Posted by: Pritish Sahay

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