मित्र लालमुनि को याद करते हुए

आंदोलन के दरम्यान जब जेपी ने आंदोलन समर्थक दलों के विधायकों को त्यागपत्र देने का निर्देश दिया, तो चौबे उन चंद लोगों में थे, जिन्होंने जेपी की पहली आवाज पर इस्तीफा दे दिया था.

By शिवानंद तिवारी | April 26, 2022 9:49 AM

कुछ दिन पहले मेरे पुराने मित्र लालमुनि चौबे की बेटी का विवाह हुआ. जहां तक मुझे स्मरण है, 62 या 63 में चौबे जी से पहली मुलाकात काशी विश्वविद्यालय में हुई थी. उन दिनों मैं आरा जैन कॉलेज का विद्यार्थी था. हमारी मुलाकात के माध्यम थे भभुआ के रामगोबिंद तिवारी. पता नहीं कैसे भटकते हुए रामगोबिंद जैन कॉलेज चले आये थे. उन्हीं के माध्यम से बनारस और भभुआ से मेरा संपर्क बना, जो आज तक कायम है.

लालमुनि आजीवन जनसंघ और भाजपा से जुड़े रहे, लेकिन स्वभाव से वे जाति और धर्म से हमेशा निरपेक्ष रहे. बनारस से मेरा परिचय उन्होंने ही कराया. वे 1972 में विधायक बन कर पटना आये. अभी जहां जदयू का दफ्तर है, वहीं ऊपर का फ्लैट उन्हें आवंटित हुआ था. पटना के जनसंघी नेताओं से उनका लगाव बहुत कम था.

वे पटना तो आ गये, लेकिन यह शहर उनके लिए लगभग अपरिचित था. पटना में उनका पुराना और अनौपचारिक संबंध तब मेरे ही साथ था. अतः पटना में उनका दूसरा घर श्रीकृष्णपुरी वाला मेरा फ्लैट बन गया. मेरी श्रीमती जी यानी बिमला जी उनकी भौजाई नहीं, मालकिन बन गयीं. मैं 1972 में ही बाबूजी से अलग होकर श्रीकृष्णपुरी वाले मकान में आ गया था.

चौबे विधायक तो बन गये थे, लेकिन उनके मन की राजधानी पटना नहीं, बनारस ही थी. पटना में जब भी रहते, दस-ग्यारह बजे तक मेरे यहां आ जाते थे. उसके बाद तो रसोई घर पर उनका कब्जा हो जाता था. बच्चे दाढ़ी चाचा के सहायक बन जाते थे. उनके रसदार लहसुनसग्गा के साथ भात खाने का स्वाद याद कर अभी भी मुंह में पानी आ जाता है.

लालमुनि चौबे और मेरे बीच नजदीकी का एक और आधार था. हम दोनों शास्त्रीय संगीत के प्रेमी थे. बोरिंग रोड चौराहे के एक कोने पर बनारसी पान दुकान थी. एक दिन वहां किसी ने बताया कि बनारस में आज रविशंकर और विलायत खां की युगलबंदी होने वाली है. उस समय तक हम लोग यही जानते थे कि इन दोनों महान कलाकारों के बीच कभी जुगलबंदी हुई ही नहीं है. बस क्या था! यह ऐतिहासिक मौका क्यों चूका जाए! उस समय एकमात्र गाड़ी तूफान एक्सप्रेस ही थी.

लगभग बारह बजे रात हम मुगलसराय उतरे और वहां से टेम्पो से उस हॉल में पहुंचे, जहां वह कार्यक्रम होना था. पता चला कि हम लोग अफवाह के चक्कर मैं इतनी परेशानी उठा कर यहां पहुंचे हैं. वहां पंडित भीमसेन जोशी का कार्यक्रम समाप्त हो रहा था. भले हम लोग पंडित रविशंकर और विलायत खां साहब की युगलबंदी नहीं सुन सके, लेकिन पंडित भीमसेन जोशी के भजन ने हमें तरोताजा कर दिया.

चौबे के विधायक बनने के दो वर्ष बाद ही चौहत्तर का आंदोलन शुरू हो गया. आंदोलन के दरम्यान जब जेपी ने आंदोलन समर्थक दलों के विधायकों को त्यागपत्र देने का निर्देश दिया, तो चौबे उन चंद लोगों में थे, जिन्होंने जेपी की पहली आवाज पर इस्तीफा दे दिया था. इमरजेंसी में वे बनारस जेल में थे और मैं पटना के फुलवारीशरीफ में. हम दोनों के बीच नागी जी यानी नागेंद्र सिंह कड़ी थे. वे भी गजब के समर्पित मित्र थे. आपातकाल के बाद हुए चुनाव में चौबे जी पुनः विधायक बने. इस मर्तबा आर ब्लॉक में थोड़ा बड़ा घर मिला. इस बीच पटना में उनका दायरा फैलने लगा था.

हमारे सभी मित्र उनके भी मित्र बन गये. उसी चुनाव में अरुण (बसावन) भी लालगंज, वैशाली से विधायक हुआ था. वह भी चौबे से गहरा जुड़ गया. इसी समय कर्पूरी जी की जगह रामसुंदर जी मुख्यमंत्री बन गये. चौबे जी उस सरकार में मंत्री बन गये. अभी जो भाजपा कार्यालय है, वह मकान उनको आवंटित हो गया. वहां जैसी बैठकी होने लगी, वह चौबे के व्यक्तित्व के विस्तार को ही प्रतिबिंबित करता है.

अब्दुल गफूर साहब तो जब भी पटना मे होते थे, दो-चार घंटा तो उनका वहीं बीतता था. विख्यात पत्रकार सुरेंद्र प्रताप, कवि आलोक धन्वा और दो एक दफा एमजे अकबर भी वहां की बैठकी में शामिल हुए थे. गिरिराज चौबे जी की बैठकी में उस समय ‘अप्रेंटिस’ था. लालमुनि चौबे के सामाजिक सरोकार का दायरा बहुत विस्तृत था. उस दायरे में जनसंघ या भाजपा के लोग कम दिखायी देते थे, समाजवादी या उदारवादी ज्यादा.

लालमुनि चौबे के साथ मैंने बक्सर लोकसभा का चुनाव दो बार लड़ा. पहला चुनाव 1999 में. लालू जी स्वयं मेरा नामांकन कराने गये थे. अटल जी की सभा और उसमें उनके भाषण ने मुझे हरा दिया था. दूसरा चुनाव तो मैं बुरी तरह हारा था. लोकतंत्र मे चुनाव कैसे लड़ना चाहिए, यह उन दोनों चुनावों से सीखा जा सकता है. हम दोनों ने चुनाव अभियान के अपने भाषण में कभी एक-दूसरे का नाम तक नहीं लिया.

आमना-सामना होने पर रुक कर बतिया लेने में भी कभी हमने संकोच नहीं किया. गिनती के समय हम रिटर्निग अफसर के कमरे में चाय-पान कर रहे होते थे. लंबे राजनीतिक जीवन में चौबे जी की ईमानदारी पर कभी उंगली नहीं उठी. चौबे ने ‘लोग’ कमाया है. उनकी बेटी के विवाह में लगभग सभी पार्टी के लोग थे. उनको चाहने वालों ने उनकी कमी का एहसास होने ही नहीं दिया. रविंद्र किशोर िपता की भूमिका में थे.

उन्हीं के दरवाजे पर बारात आयी. स्वाभाविक है कि भाजपा के लोगों की उपस्थिति ज्यादा थी. तेजस्वी यादव भी आये हुए थे. जम्मू-कश्मीर के गवर्नर मनोज सिन्हा इस विवाह के लिए ही पटना आये थे. कांग्रेस के लोग भी नजर आये. नीतीश कुमार की पार्टी के लोग भी थे. चौबे जी का बेटा शिशिर उनकी छोड़ी जवाबदेही का सबके सहयोग से अच्छी तरह निर्वहन कर रहा है. चौबे को गये काफी दिन हो गये. कभी उन पर लिखा नहीं था. कल विवाह के समय उनकी बहुत याद आयी. अपने प्यारे और जिंदादिल मित्र की स्मृति को प्रणाम करता हूं.

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