बड़े श्रम सुधारों की शुरुआत से बढ़ी उम्मीदें
Labour Codes : इन चार श्रम संहिताओं से श्रमिकों को सुरक्षा मिलेगी, नियोक्ताओं को ज्यादा लचीलापन हासिल होगा, कार्यबल को औपचारिक स्वरूप मिलेगा और रोजगार सृजन को रफ्तार मिलेगी. नये कानून में नियोक्ताओं के लिए अनुपालन का बोझ कम हुआ है. उन्हें दर्जनों की बजाय एक बार रजिस्ट्रेशन कराना होगा, एक बार लाइसेंस लेना होगा.
Labour Codes : भारत के बड़े आर्थिक सुधारों को विदेशी मुद्रा के संकट ने प्रेरित-प्रोत्साहित किया था. वर्ष 1991 की गर्मियों में विदेशी मुद्रा भंडार लगभग शून्य हो गया था. तब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपात ऋण लेकर सुधारों की शुरुआत की गयी थी. विनिमय दर, आयात शुल्क और बैंकिंग को विनियमित किया गया था, और सीधे विदेशी निवेश को मंजूरी दी गयी थी. मैन्युफैक्चरिंग और औद्योगिक उत्पादन में लाइसेंस राज की समाप्ति सबसे बड़ा सुधार थी. नतीजतन आर्थिक वृद्धि दर ने रफ्तार पकड़ी और विदेशी निवेश आना शुरू हुआ. दो साल से भी कम समय में आइएमएफ का कर्ज चुकता कर दिया गया था. शेयर बाजार और पूंजी बाजार ने भी उड़ान भरी. उसके दस साल बाद दूरसंचार और ऊर्जा के क्षेत्रों में दूसरी पीढ़ी के सुधार की शुरुआत हुई. इसने भी आर्थिक विकास और गतिशीलता को बढ़ावा दिया. आज भी हम उस दूरसंचार क्रांति का लाभ उठा रहे हैं, जिसका पूरा दोहन होना अभी शेष है.
वर्ष 1991 की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था का आकार आज दस गुना बड़ा है. भारत सॉफ्टवेयर का वैश्विक पावरहाउस है. पर 1991 के आर्थिक सुधारों से जुड़े एक वादे पर अब भी अमल नहीं हुआ है. अगर औद्योगिक डी-लाइसेंसिंग पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता, तो हम मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में भारी वृद्धि होते देखते. लेकिन इस क्षेत्र की वृद्धि दर जीडीपी की वृद्धि दर की तरह ही रही. देश की जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान 1991 में भी 17-18 फीसदी था, आज भी उतना ही है. हमारे यहां प्रचलित धारणा यह है कि कठोर श्रम कानूनों के कारण औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार सृजन अपेक्षा से कम रहा है. खासकर वस्रोद्योग, फुटवियर, खिलौना उद्योग तथा इलेक्ट्रॉनिक एसेंबलिंग आदि क्षेत्रों में भारी संख्या में कामगारों की नियुक्ति से बचा जाता रहा है.
इस कारण श्रम सुधार बड़ी जरूरत रहा है. लेकिन श्रम चूंकि संविधान की समवर्ती सूची में है, ऐसे में, वांछित श्रम सुधार के लिए राज्य सरकारों की सहमति भी जरूरी है. श्रम संगठनों को भी इस कवायद में जोड़ना पड़ता है. केंद्र सरकार ने पांच साल पहले श्रम सुधार की इस महत्वाकांक्षी यात्रा की शुरुआत की थी. वह यात्रा आज एक ऐतिहासिक पड़ाव पर पहुंची है. विगत 21 नवंबर को देश में औपचारिक रूप से चार श्रम संहिताएं लागू की गयीं. ये हैं- मजदूरी संहिता (2019), औद्योगिक संबंध संहिता ( 2020), सामाजिक सुरक्षा संहिता ( 2020) और पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यस्थितियां (2020). इन संहिताओं ने उन 29 केंद्रीय श्रम कानूनों की जगह ली है, जो पिछले करीब सात दशक से चलन में थीं. ये महत्वपूर्ण श्रम सुधार अनुपालन का बोझ कम करेंगे, सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ायेंगे और श्रम बाजार को बदलती हुई अर्थव्यवस्था के अनुरूप ढालेंगे. अब राज्य सरकारों को इसके अनुरूप यथाशीघ्र अपने कानून में बदलाव करने चाहिए, ताकि इन चार श्रम संहिताओं को पूरे देश में उसकी समग्रता में लागू किया जा सके.
इन चार श्रम संहिताओं से श्रमिकों को सुरक्षा मिलेगी, नियोक्ताओं को ज्यादा लचीलापन हासिल होगा, कार्यबल को औपचारिक स्वरूप मिलेगा और रोजगार सृजन को रफ्तार मिलेगी. नये कानून में नियोक्ताओं के लिए अनुपालन का बोझ कम हुआ है. उन्हें दर्जनों की बजाय एक बार रजिस्ट्रेशन कराना होगा, एक बार लाइसेंस लेना होगा. छंटनी करने या कंपनी बंद करने की सीमा बढ़ा कर 300 कर दी गयी है, जिससे उन्हें जनशक्ति नियोजन में अधिक लचीलापन मिलेगा. अब वे निश्चित अवधि के अनुबंधों पर प्रतिभाओं को नियुक्त कर सकेंगे. दूसरी ओर, नयी संहिताएं गिग व प्लेटफॉर्म वर्कर्स (ऑनलाइन माध्यम के जरिये सेवाएं प्रदान करने वाले) तथा ठेके पर काम करने वालों को भी व्यापक सुरक्षा प्रदान करती हैं. उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक समान वेतन मिलने के अलावा नियुक्ति पत्र मिलेगा, साथ ही, स्वास्थ्य सुरक्षा कवरेज मिलेगा, मातृत्व अवकाश समेत पीएफ का लाभ मिलेगा.
संक्षेप में, इन संहिताओं के जरिये देश के श्रम बाजार के उस दोहरेपन को दूर करने का प्रयास किया गया है, जिसके तहत छोटे औपचारिक क्षेत्र को तो तमाम सामाजिक सुरक्षा और संभ्रांतों वाली सुविधाएं मिलती रही हैं, दूसरी ओर, विशाल अनौपचारिक क्षेत्र को किसी भी तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं थी. श्रम के अनौपचारिकीकरण की सच्चाई कुरूप थी, जो सामाजिक स्थिरता और सौहार्द को भी खतरे में डालती थी. नयी श्रम संहिताओं में महिलाओं की बेहतर भागीदारी की सुखद गारंटी भी है. नये श्रम सुधारों के कुछ प्रावधान ये हैं कि सभी कामगारों को अब औपचारिक रूप से नियुक्ति पत्र मिलेंगे. यानी मौखिक रूप से रोजगार पर रखने के दिन गये. इसी तरह यूनिवर्सल सोशल सिक्योरिटी का अर्थ यह हुआ कि गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के एग्रीगेटरों को अब अपने टर्नओवर के एक-दो फीसदी का योगदान कामगारों के कल्याण फंड के लिए करना पड़ेगा. महिलाएं खनन और आइटी समेत सभी क्षेत्रों में रात की पालियों में काम कर सकेंगी, और उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान की जायेगी.
हमें अलबत्ता यह याद रखना चाहिए कि इन श्रम सुधारों के जरिये श्रम बाजार में अपने आप वृद्धि नहीं हो जायेगी. रोजगार सृजन सिर्फ श्रम कानूनों पर नहीं, बल्कि और भी बहुत चीजों पर निर्भर करता है. बेरोजगारी में वृद्धि के कई कारण होते हैं-जैसे, कौशल के अनुरूप रोजगार की कमी, ढांचागत कमी, कठोर भूमि बाजार और नीतिगत अनिश्चय. नयी श्रम संहिताओं से लेन-देन की लागत जरूर कम हो सकती है, लेकिन इन संहिताओं के जरिये श्रमिकों की मांग अपने आप नहीं बढ़ सकती. ऐसा इसलिए, क्योंकि बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के लिए मानव पूंजी विकास की आवश्यकता है, जिसके लिए (ए) एप्रेंटिसशिप प्रोग्राम और स्किल सर्टिफिकेशन को विस्तार देने की जरूरत है, (बी) ढांचागत, लॉजिस्टिक्स तथा परिवहन के क्षेत्र में सुधार और बेहतर ऊर्जा स्रोत और कुशल डिजिटल नेटवर्क चाहिए, तथा (सी) तार्किक कर व्यवस्था, विवाद निपटान की त्वरित प्रणाली और सरल अनुपालन व्यवस्था की आवश्यकता है. इन तमाम सहूलियतों के बगैर स्थिर रोजगार का विस्तार संभव नहीं है. रोजगार में वृद्धि के लिए श्रम बाजार का गतिशील होना आवश्यक है. अपने यहां रोजगार के क्षेत्र में नयी क्रांति नयी श्रम संहिताओं के साथ कौशल, निवेश और उत्पादकता में वृद्धि पर निर्भर करेगी. सरकार ने श्रम संहिताओं के जरिये जिस सुधार की शुरुआत की है, उसके साथ शिक्षा, कौशल विकास, ढांचागत सुविधा और बेहतर कारोबारी माहौल बनाने के क्षेत्रों में भी पर्याप्त निवेश किया जाये, तभी बेहतर बदलाव की उम्मीद की जा सकती है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
