पुण्यतिथि : हिंदी के पहले मसिजीवी लेखक थे रांगेय राघव
Rangeya Raghav : रांगेय की ज्यादातर शिक्षा-दीक्षा उनकी जन्मभूमि आगरा में ही हुई. वर्ष 1944 में आगरा के ही सेंट जॉन्स कॉलेज से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने 1948-49 में आगरा विश्वविद्यालय से 'गुरु गोरखनाथ और उनका युग' विषय पर पीएचडी की थी. हिंदी के अतिरिक्त उनका अंग्रेजी, ब्रजभाषा, संस्कृत, तमिल और कन्नड़ पर भी अधिकार था. फिर भी अपने अवदान के बारे में वे अत्यंत विनम्र थे.
Rangeya Raghav : सोचिए जरा, जान का दुश्मन कैंसर किसी सर्जक से उम्र के 39वें वर्ष में ही उसका जीवन छीन ले, फिर भी वह दुनिया को अलविदा कहने से पहले उसको विविध विषयों व विधाओं की वैचारिक सृजनात्मकता से परिपूर्ण डेढ़ सौ पुस्तकों की थाती सौंप जाये! बात कुछ अकल्पनीय सी लगती है न! पर सिगरेट की बुरी लत के कारण कैंसर से पीड़ित होने के बाद 12 सितंबर, 1962 को मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में अपने 39वें वर्ष में ही अंतिम सांस लेने को अभिशप्त हुए स्मृतिशेष रांगेय राघव ने अपनी असाधारण प्रतिभा और हिंदी साहित्य की अहर्निश साधना के बूते 1962 में ही इस काम को संभव कर दिखाया था. और यह तब था, जब वे अहिंदीभाषी थे और उनकी मातृभाषा तमिल थी.
यह हिंदी के प्रति उनके असीम प्रेम का ही प्रतिफल था कि उन्होंने एक बार उसको अपने सृजन की भाषा बनाया, तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. फिर तो उन्होंने उस मंजिल तक यात्रा की, जहां उनको हिंदी का पहला मसिजीवी (अपनी जीविका के लिए पूरी तरह अपने लेखन पर ही निर्भर) कलमकार और शेक्सपियर कहा जाने लगा. लेखन उनका व्यसन भी था, जुनून भी और जीवन भी. वे यावतजीवन उसमें इस तरह डूबे रहे कि जिंदगी के तमाम जोखिमों के बावजूद उन्हें जीविका के लिए कुछ और करने की सूझी ही नहीं. उन्होंने पहले-पहल 1942 में अकालग्रस्त बंगाल की पैदल यात्रा के बाद ‘तूफानों के बीच’ शीर्षक रिपोर्ताज लिखकर भरपूर प्रशंसाएं और चर्चाएं बटोरीं थीं. यह रिपोर्ताज ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ, तो हिंदी में रिपोर्ताज लेखन की परंपरा की शुरुआत की प्रेरणा बन गया था. उस समय वे महज उन्नीस वर्ष के थे. उनकी साहित्य के अतिरिक्त चित्रकला, संगीत और पुरातत्व से जुड़े विषयों में भी गहरी रुचि थी, इसलिए उनके लेखन में पर्याप्त वैविध्य भी हुआ करता था.
उनके चार दशकों से भी कम के जीवन में ही उनके 42 उपन्यास, 11 कहानी संग्रह, 12 आलोचनात्मक ग्रंथ, आठ काव्य संग्रह और पांच नाटक प्रकाशित हो चुके थे. इतिहास की चार, समाजशास्त्र विषयक छह और लगभग 50 अनूदित पुस्तकें भी उनके खाते में थीं, जबकि 20 पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में थीं. वर्ष 1923 में 17 जनवरी को आगरा में जन्मे रांगेय इस अर्थ में बहुत सौभाग्यशाली थे कि उनके लेखकीय संघर्ष ने जल्दी ही उन्हें हिंदी के अपने समय के विशिष्ट व बहुमुखी सर्जकों में स्थान दिला दिया था. कम ही लोग जानते हैं कि वे अपने समय के उत्कृष्ट चित्रकार भी थे. उन्होंने शेक्सपियर के ‘हेमलेट’, ‘ओथेलो’ और ‘मैकबेथ’ जैसे दुखांत नाटकों को ऐसी खूबी से हिंदी में अनूदित किया था कि वे अनुवाद से ज्यादा उनकी उत्कट सृजनात्मकता की मिसाल बन गये थे. उन्हें राजेंद्र यादव और रामविलास शर्मा जैसे उद्भट हिंदी सेवियों की त्रयी में शामिल किया जाता है. कहते हैं कि जब भी उन्हें कोई नयी कृति लिखनी होती, वह उसकी रूपरेखा बनाने में ज्यादा समय लगाते थे. अपनी नयी कृतियों पर सोचना शुरू करते, तो कई-कई दिनों तक सोचते ही रहते थे. इस दौरान वह न कुछ लिखते, न पढ़ते. फिर लगातार कई दिनों तक पढ़ते रहते और मूड बन जाने पर लिखने बैठ जाते, तो लिखते ही रहते. कई बार लिखने बैठते तो रचना को समाप्त करके ही छोड़ते.
रांगेय की ज्यादातर शिक्षा-दीक्षा उनकी जन्मभूमि आगरा में ही हुई. वर्ष 1944 में आगरा के ही सेंट जॉन्स कॉलेज से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने 1948-49 में आगरा विश्वविद्यालय से ‘गुरु गोरखनाथ और उनका युग’ विषय पर पीएचडी की थी. हिंदी के अतिरिक्त उनका अंग्रेजी, ब्रजभाषा, संस्कृत, तमिल और कन्नड़ पर भी अधिकार था. फिर भी अपने अवदान के बारे में वे अत्यंत विनम्र थे. हिंदी में द्रविड़ संस्कृति का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करने वाले भी वे अपनी तरह के पहले लेखक थे. ‘मुर्दों का टीला’, ‘सीधा सादा रास्ता’, ‘विषादमठ’ और ‘परिवर्तन’ उनकी प्रमुख कृतियां मानी जाती हैं और उनके जीवनी प्रधान उपन्यासों को अलग से रेखांकित किया जाता है. इनमें ‘भारती का सपूत’ भारतेंदु हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित है, तो ‘लखिमा की आंखें’ विद्यापति और ‘मेरी भव बाधा हरो’ बिहारी के जीवन पर. ‘रत्ना की बात’ में तुलसी के जीवन की कथा है, तो ‘लोई का ताना’ में कबीर के जीवन की. इसी तरह ‘धूनी का धुआं’ गोरखनाथ, ‘यशोधरा जीत गयी’ गौतम बुद्ध और ‘देवकी का बेटा’ कृष्ण के जीवन पर आधारित है.
वे हिंदी में प्रगतिशीलता के दायरे का विस्तार कर उसमें प्रेम और मानवीय संवेदनाओं को शामिल करने वाले ऐसे लेखक थे, जिनका कैनवास बहुत व्यापक था. उन्होंने अपनी रचनाओं में हमेशा जिजीविषा से भरे और मजबूत चरित्रों को महत्व दिया. उनके अहर्निश समर्पित साहित्यिक योगदान के लिए 1947 में उन्हें हिंदुस्तानी अकादमी, तो 1954 में डालमिया पुरस्कार मिला था. इसी तरह, 1957 व 1959 में उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार के पुरस्कार मिले थे और 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी का, जबकि 1966 में उन्हें मरणोपरांत महात्मा गांधी पुरस्कार दिया गया था.
