अमेरिका में नये युग की शुरुआत

बाइडेन के भाषण में असाधारण थी अनुभव की लकीरों से भरे उनके अायुवृद्ध चेहरे से झलकती ईमानदारी. वे जो कह रहे थे, मन से कह रहे थे.

By कुमार प्रशांत | January 25, 2021 6:38 AM

कुमार प्रशांत

गांधीवादी विचारक

k.prashantji@gmail.com

राजनीतिक रूप से अत्यंत अप्रभावी, सामाजिक रूप से बेहद विछिन्न अौर अार्थिक रूप से लड़खड़ाते अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति बनने के बाद कैपिटल हिल की ऐतिहासिक सीढ़ियों पर खड़े होकर जो बाइडेन ने जो कुछ कहा, वह ऐतिहासिक महत्व का है. अमेरिका के इतिहास का ट्रंप काल बीतने के बाद बाइडेन को जो कुछ भी कहना था, वह अपने अमेरिका से ही कहना था अौर ऐसे में वे जो भी कहते, वह ऐतिहासिक ही हो सकता था.

जब इतिहास अपने काले पन्ने पलटता है, तब सामने खुला नया पन्ना अधिकांशत: उजला व चांदनी समान दिखाई देता है. इसलिए तब खूब तालियां बजीं, जब बाइडेन के कहा कि यह अमेरिका का दिन है, यह लोकतंत्र का दिन है. यह सामान्य-सा वाक्य था, जो ऐतिहासिक लगने लगा, क्योंकि पिछले पांच सालों से अमेरिका ऐसे वाक्य सुनना अौर गुनना भूल ही गया था. यह वाक्य घायल अमेरिकी मन पर मरहम की तरह लगा.

उनके ही नहीं, जिन्होंने बाइडेन को वोट दिया था, बल्कि उनके लिए भी यह मरहम था, जो चुप थे या वह सब बोल रहे थे, जो उन्हें बोलना नहीं था और जिसका मतलब वे भी नहीं जानते थे. जिन लोगों को उन्मत्त कर ट्रंप ने अमेरिकी संसद में घुसा दिया था अौर जिन्हें लगा था कि एक दिन की इस बादशाहत का मजा लूट लें, उन्हें भी नयी हवा में सांस लेने का संतोष मिल रहा होगा. लोकतंत्र है ही ऐसी दोधारी तलवार, जो कलुष को काटती है, शुभ को चालना देती है.

यह अलग बात है कि तमाम दुनिया में लोकतंत्र की अात्मा पर सत्ता की भूख की ऐसी गर्द पड़ी है कि वह खुली सांस नहीं ले पा रहा है.

बाइडेन अोबामा की तरह मंत्रमुग्ध कर देनेवाले वक्ता नहीं हैं, न उस दर्जे के बौद्धिक हैं. वे एक मेहनती राजनेता हैं, जो कई कोशिशों के बाद राष्ट्रपति का मुकाम छू पाये हैं, वह भी शायद इसलिए कि अमेरिका को ट्रंप से मुक्ति चाहिए थी

इतिहास ने इस भूमिका के लिए बाइडेन का कंधा चुना. ट्रंप का पूरा काल एक शैतान अात्मा का शापित काल रहा. उन्होंने एक प्रबुद्ध राष्ट्र के रूप में अमेरिका की जैसी किरकिरी करायी, वैसा उदाहरण अमेरिकी इतिहास में दूसरा नहीं है. दूसरा कोई राष्ट्रपति भी तो नहीं है, जिस पर दो बार महाभियोग का मामला चलाया गया हो. ट्रंप बौद्धिक रूप से इतने सक्षम थे ही नहीं कि यह समझ सकें कि जैसे हर राष्ट्रपति का अधिकार होता है कि वह अपनी तरह से नीतियां बनाए, वैसे ही उस पर यह स्वाभाविक व पदसिद्ध जिम्मेदारी भी होती है कि वह अपने देश की सांस्कृतिक विरासत व राजनीतिक शील का पालन करे, उसे समुन्नत करे.

इन दोनों को समझने व उनका रक्षण करने में विफल कितने ही महानुभाव हमें इतिहास के कूड़ाघर में मिलते हैं. बाइडेन ने दुनिया से कुछ भी नहीं कहा. यह उनके भाषण का सबसे विवेकपूर्ण हिस्सा था. इसके लिए अमेरिका को भारतीय मूल के विनय रेड्डी अौर उनकी टीम को धन्यवाद देना चाहिए, जो अोबामा से बाइडेन व कमला हैरिस तक के भाषणों का खाका बनाते रहे हैं. शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद राष्ट्र को संबोधित करने की यह परंपरा अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंग्टन ने 30 अप्रैल, 1789 को शुरू की थी अौर ‘स्वतंत्रता की पवित्र अग्नि’ की सौगंध खाकर ‘एक नयी व अाजादख्याल सरकार’ का वादा किया था.

अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने राष्ट्रपतियों द्वारा दिया गया अब तक का सबसे छोटा भाषण दिया था- मात्र 135 शब्दों का. सबसे लंबा भाषण राष्ट्रपति विलियम हेनरी हैरिसन ने दिया था- 8455 शब्दों का दो घंटे चला भाषण. यह राजनीतिक परंपरा अाज अमरीका की सांस्कृतिक परंपरा में बदल गयी है. अमेरिका अाज भी याद करता है राष्ट्रपति केनेडी का वह भाषण, जब उन्होंने अमेरिका की अात्मा को छूते हुए कहा था- ‘मेरे अमेरिकी साथियों, यह मत पूछिए कि अमेरिका अापके लिए क्या करेगा, बल्कि यह बताइए कि अाप अमेरिका के लिए क्या करेंगे?’ साल 1933 में भयंकर अार्थिक मंदी में डूबे अमेरिका से राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था- ‘अाज हमें एक ही चीज से भयभीत रहना चाहिए अौर वह है भय.’

साल 1861 में गृहयुद्ध से जर्जर अमेरिका से कहा था राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने- ‘मेरे असंतुष्ट देशवासी, मेरी एक ही इल्तजा है अापसे कि दोस्त बनिए, दुश्मन नहीं.’ वर्ष 2009 में अोबामा ने अपने अमेरिका से कहा था- ‘यह नयी जिम्मेदारियों को कबूल करने का दौर है. हमें अपने प्रति अपना कर्तव्य निभाना है, देश अौर दुनिया के प्रति अपना कर्तव्य निभाना है अौर यह सब नाक-भौं सिकोड़ते हुए नहीं, बल्कि आह्लादित होकर करना है.’ यह सब राष्ट्र-मन को छूने अौर उसे उद्दात्त बनाने की कोशिश है.

बाइडेन जब कहते हैं कि हम एक महान राष्ट्र हैं, हम अच्छे लोग हैं, तब वे अमेरिका के मन को ट्रंप के दौर की संकीर्णता से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं. जब उन्होंने कहा कि मैं सभी अमेरिकियों का राष्ट्रपति हूं- सारे अमेरिकियों का, हमें एक-दूसरे की इज्जत करनी होगी अौर यह सावधानी रखनी होगी कि सियासत ऐसी अाग न बन जाए, जो सबको जला कर राख कर दे, तो वे गहरे बंटे हुए अपने समाज के बीच पुल भी बना रहे थे अौर सत्ता व राजनीति की मर्यादा भी समझा रहे थे. उन्होंने दुनिया से सिर्फ इतना ही कहा कि हमें भविष्य की चुनौतियों से ही नहीं, अाज की चुनौतियों से भी निबटना है.

बाइडेन के भाषण में असाधारण थी अनुभव की लकीरों से भरे उनके अायुवृद्ध चेहरे से झलकती ईमानदारी. वे जो कह रहे थे, मन से कह रहे थे अौर अपने मन को अमेरिका का मन बनाना चाहते थे. वहां शांति, धीरज व जिम्मेदारी के अहसास से भरा माहौल था. उन्होंने गलती से भी ट्रंप का नाम नहीं लिया, जैसे उस पूरे दौर को पोंछ डालना चाहते हों. चुनावी उथलापन, खोखली बयानबाजी, अपनी पीठ ठोकने अौर अपना सीना दिखाने की कोई छिछोरी हरकत उन्होंने नहीं की. यह सब हमारे यहां से कितना अलग था!

गीत-संगीत व संस्कृति का मोहक मेल था, लेकिन कहीं चापलूसी अौर क्षुद्रता का लेश भी नहीं था. यह एक अच्छी शुरुअात थी, लेकिन न बाइडेन भूल सकते हैं, न अमेरिका उन्हें भूलने देगा कि भाषण का मंच समेटा जा चुका है. अब वे हैं अौर उनके सामने कठोर सच्चाइयां हैं. हम भी बाइडेन की अावाज में अावाज मिला कर कहते हैं- ईश्वर हमें राह दिखाए अौर हमारे लोगों को बचाए.

Posted By : Sameer Oraon

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