स्वास्थ्य योजना की अनदेखी

हाल में केंद्र सरकार ने नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे को मंजूरी दी है. उम्मीद है कि इस नीति से बेहतर और सस्ती देखभाल और दवाइयां हासिल होंगी, डाॅक्टरों और अस्पतालों की संख्या बढ़ेगी तथा मृत्यु दर कम होगी. स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्चा कुल घरेलू उत्पादन के 2.5 फीसदी तक करने के […]

By Prabhat Khabar Print Desk | March 22, 2017 6:25 AM
हाल में केंद्र सरकार ने नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे को मंजूरी दी है. उम्मीद है कि इस नीति से बेहतर और सस्ती देखभाल और दवाइयां हासिल होंगी, डाॅक्टरों और अस्पतालों की संख्या बढ़ेगी तथा मृत्यु दर कम होगी. स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्चा कुल घरेलू उत्पादन के 2.5 फीसदी तक करने के वादे के साथ राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का जोर कमोबेश इन्हीं बातों पर है.
लेकिन, नीतियां बनाना और उन्हें अमली जामा पहनाना अलग-अलग चीजें हैं. स्वास्थ्य के मोर्चे पर अपने देश की सरकारें वचनवीर ज्यादा नजर आती हैं, कर्मवीर कम. संसद की स्थायी समिति ने सरकार को ठीक उस वक्त टोका है, जब वह नयी नीति के जरिये देश में स्वास्थ्य की स्थिति का कायापलट करने का वादा कर रही है.
समिति का कहना है कि सरकार ने स्वास्थ्य के मद में होनेवाले खर्च को कम किया है. बजट में की गयी घोषणाओं के मुताबिक, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन को जो रकम दी जानी चाहिए, उससे कम आवंटित किया गया है. वर्ष 2017-18 के लिए मिशन को तकरीबन 34 हजार करोड़ की रकम मिलनी चाहिए, लेकिन मिले हैं महज 26 हजार करोड़. यह सिलसिला किसी एक साल का नहीं है. आवंटन की कटौती का आलम यह है कि 2016-17 में कुछ राज्यों को स्वास्थ्य मद में खर्च करने के लिए उतनी भी रकम नहीं मिली, जितनी 2015-16 में मिली थी.
मसलन, असम को मिली राशि 2015-16 की तुलना में सात फीसदी कम है, तो मणिपुर को 31 फीसदी रकम कम मिली. आवंटन की यह कमी नयी स्वास्थ्य नीति की मंशाओं के एकदम उलट है. विचित्र और विरोधाभासी तथ्य यह है कि सरकार एक तरफ भारत को दुनिया की सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं में शुमार देखना चाहती है, लेकिन बुनियादी सुविधाओं के मामले में अर्थव्यवस्था के फायदे आम नागरिक तक पहुंचाने में हिचकती है. एक बात तय है कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर तय लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जरूरी राशि का तत्काल इंतजाम नहीं किया गया, तो संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को समय रहते पूरा करना मुश्किल हो जायेगा.
राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नये आंकड़े इस तथ्य की निशानदेही करते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में अब भी 1000 शिशुओं में 56 पांच साल की उम्र पूरी करने से पहले काल के गाल में समा रहे हैं और 62 फीसदी माताओं को शिशु के जन्म के दो दिन बाद तक किसी प्रशिक्षित दाई, नर्स या रजिस्टर डाॅक्टर की देखभाल हासिल नहीं हो पाती. स्वास्थ्य के मोर्चे पर अगर सर्वाधिक गरीब माने जानेवाले कुछ अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत को कुछ बेहतर करना है, तो सिर्फ नीति से काम नहीं चलेगा. नीयत भी बदलनी होगी.

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