कब मिलेगा निर्भया को न्याय

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in न्याय में देरी, अन्याय है- न्याय के क्षेत्र में अक्सर इस सूत्र वाक्य का प्रयोग होता है. इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है, लेकिन इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो, तो ऐसे न्याय की सार्थकता नहीं रहती है. यह सिद्धांत […]

By Ashutosh Chaturvedi | February 17, 2020 7:17 AM
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
न्याय में देरी, अन्याय है- न्याय के क्षेत्र में अक्सर इस सूत्र वाक्य का प्रयोग होता है. इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है, लेकिन इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो, तो ऐसे न्याय की सार्थकता नहीं रहती है. यह सिद्धांत ही त्वरित न्याय के अधिकार का आधार है. यह सूत्र वाक्य न्यायिक सुधार के समर्थकों का प्रमुख हथियार है.
अब नजर डालें निर्भया मामले पर. देश की राजधानी दिल्ली के वसंत विहार इलाके में 16 दिसंबर, 2012 की रात 23 साल की पैरामेडिकल छात्रा निर्भया के साथ चलती बस में बहुत ही बर्बर तरीके से सामूहिक दुष्कर्म हुआ. घटना के बाद उसे बचाने की हर संभव कोशिश हुई, पर उसकी मौत हो गयी. इस मामले में दिल्ली पुलिस ने बस चालक सहित छह लोगों को गिरफ्तार किया था. इनमें एक नाबालिग भी था, जिसे तीन साल तक सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया, जबकि एक आरोपी राम सिंह ने जेल में खुदकुशी कर ली.
फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सितंबर, 2013 में इस मामले में चार आरोपियों पवन, अक्षय, विनय और मुकेश को दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनायी. मार्च, 2014 में हाइकोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखा. फिर मई, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर मुहर लगा दी. मई, 2017 में देश की सर्वोच्च अदालत ने जिस फैसले की पुष्टि कर दी, उसके गुनहगारों को अब तक सजा नहीं मिली है. पहली बार फांसी की तारीख 22 जनवरी तय हुई थी, पर न्यायिक दांव-पेच के कारण यह टल गयी और आज भी मामला उलझा हुआ है.
मामले की सुनवाई के दौरान निर्भया की मां एक बार अदालत में ही फूट-फूट कर रो पड़ी थीं. उन्होंने कोर्ट से कहा था कि मेरे अधिकारों का क्या? मैं भी इंसान हूं, मुझे सात साल हो गये, मैं हाथ जोड़ कर न्याय की गुहार लगा रही हूं. यह वह घटना है, जो महीनों तक देशभर के मीडिया की सुर्खियों में रही. इस घटना को लेकर कई शहरों में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए थे. जन आक्रोश को देखते हुए तत्काल जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी थी और ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए रेप कानूनों में बदलाव कर कड़ा किया गया था.
दुष्कर्म के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित किये जाने की व्यवस्था की गयी.
यह मामला भी फास्ट ट्रैक में चला, सजा भी सुनाई गयी, लेकिन गुनहगारों को सजा नहीं मिल पायी है. दिल्ली जेल नियमों के अनुसार एक ही अपराध के चारों दोषियों में से किसी को भी तब तक फांसी नहीं दी जा सकती, जब तक कि वे दया याचिका सहित सभी कानूनी विकल्प नहीं आजमा लेता. लिहाजा, सभी दोषी एक-एक कर अपने विकल्पों का इस्तेमाल कर व्यवस्था की कमजोरी का फायदा उठा रहे हैं.
इसका दूसरा पहलू यह है कि इससे आम आदमी के जहन में पूरी कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े हो जाते हैं. यह स्थिति किसी भी समाज के लिए अच्छी नहीं है. कुछ दिनों पहले हैदराबाद के बहुचर्चित रेप कांड में पकड़े गये चारों अभियुक्तों का पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया. एनकाउंटर के जरिये ‘तत्काल न्याय’ से पूरी न्याय प्रणाली पर देशव्यापी बहस छिड़ गयी. मुठभेड़ की खबर लगते ही लोग घटनास्थल पर पहुंचे और कुछेक लोग पुलिस पर फूल बरसाते भी नजर आये.
यह एनकाउंटर हैदराबाद से 50 किलोमीटर दूर उसी स्थान पर हुआ, जहां दुष्कर्म हुआ था. इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसी घटनाओं से हमारी पूरी न्याय व्यवस्था पर संकट उत्पन्न होने का खतरा है, लेकिन इस सवाल का जवाब भी देना जरूरी है कि क्या दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध की शिकार बेटी को तुरंत न्याय पाने का अधिकार नहीं है?
बड़ी संख्या में लोगों का इसके पक्ष में आना सामाजिक व्यवस्था की विफलता का भी संकेत है. पूरे देश और समाज को यह चिंतन करना होगा कि न्याय प्रणाली को दुरुस्त कैसे किया जाए? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2014 में अदालतों ने दुष्कर्म के 27.4 फीसदी मामलों में फैसले सुनाये थे. 2017 में ऐसे मामलों में फैसला सुनाने में गति में मामूली तेज हुई और 31.8 फीसदी तक हो गयी, लेकिन एक और चिंताजनक खबर आ रही है कि अपराधी सबूत मिटाने की गरज से दुष्कर्म पीड़िता को जला दे रहे हैं. देश में इस तरह के कुल 574 मामलों में से 90 फीसदी अब भी अदालतों में लंबित हैं.
महिला उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि हमने महिलाओं का सम्मान करना बंद कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि दुष्कर्म से पीड़ित महिला स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जो उसने किया ही नहीं होता है. दरअसल, यह केवल कानून व्यवस्था का मामला नहीं है. यह हमारे समाज की सड़न का प्रगटीकरण भी है.
निर्भया के अलावा दो और चर्चित मामलों पर नजर डालते हैं. सन् 2009 में आइटी प्रोफेशनल जिगिशा घोष की दिल्ली में हत्या कर दी गयी थी. एक आइटी कंपनी में ऑपरेशन मैनेजर 28 साल की जिगिशा को 18 मार्च, 2009 की रात में तब अगवा कर लिया गया था, जब वह दफ्तर की कैब से घर के बाहर उतरीं. तीन आरोपी जिगिशा को अपनी सेंट्रों कार से गुडगांव और दिल्ली के विभिन्न इलाकों में घुमाते रहे. उनके एटीएम कार्ड से पैसे निकाले, उनके मोबाइल और गहने छीनने के बाद गला घोंट कर उनकी हत्या कर दी. पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर तीनों कातिलों को पकड़ा. इस मामले में निचली अदालत ने दो अभियुक्तों को फांसी और एक को उम्र कैद की सजा सुनायी थी.
बाद में दिल्ली हाइकोर्ट ने दो में से एक दोषी की फांसी की सजा को घटा कर उम्र कैद कर दिया और दूसरे की उम्र कैद की सजा बरकरार रखी. फिलहाल, यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है और फैसले का इंतजार है. दिल्ली की टीवी पत्रकार सौम्या विश्वनाथन हत्या का मामला भी अरसे तक सुर्खियों में रहा. 30 सितंबर, 2008 को जब सौम्या अपनी ड्यूटी खत्म कर देर रात अपनी कार से घर वापस जा रही थीं, तब उनकी हत्या कर दी गयी थी. पुलिस ने तीन लोगों को आरोपी बनाया, जो बाद में आइटी प्रोफेशनल जिगिशा घोष की हत्या के भी अभियुक्त पाये गये. 2008 से इस मामले की सुनवाई अभी निचली अदालत में ही चल रही है. हाल में दिल्ली हाइकोर्ट ने इस मामले की सुनवाई जल्द पूरी करने का निर्देश दिया है.
यह स्थिति देश की राजधानी दिल्ली के तीन चर्चित मामलों की है. दुष्कर्म की सभी घटनाएं सभ्य समाज को शर्मसार करती हैं. सरकारों, न्यायपालिका और समाज का यह दायित्व है कि ऐसी घटनाओं का कोई भी दोषी बच कर नहीं निकल पाना चाहिए. न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए.

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