नये बिहार की चुनौतियां!

II केसी त्यागी II राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू kctyagimprs@gmail.com बिहार उपचुनाव के नतीजे और रामनवमी के बाद के घटनाक्रमों को लेकर मीडिया के एक तबके के साथ कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा बिहार सरकार की आलोचना सुर्खियों में रहीं. इस क्रम में स्थानीय शासन-प्रशासन की तथाकथित विफलता को भी खूब स्थान दिया गया, जिसमें राज्य के कुछ जिलों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 11, 2018 6:06 AM
II केसी त्यागी II
राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू
kctyagimprs@gmail.com
बिहार उपचुनाव के नतीजे और रामनवमी के बाद के घटनाक्रमों को लेकर मीडिया के एक तबके के साथ कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा बिहार सरकार की आलोचना सुर्खियों में रहीं. इस क्रम में स्थानीय शासन-प्रशासन की तथाकथित विफलता को भी खूब स्थान दिया गया, जिसमें राज्य के कुछ जिलों में हुई सांप्रदायिक झड़पों को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सुशासन व्यवस्था पर भी सवाल उठाये गये. किसी भी शासनाध्यक्ष के लिए ऐसी घटनाएं कष्टदायी व अवांछित होती हैं.
सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के आरोप में केंद्रीय मंत्री के आरोपित बेटे को गिरफ्तार किये जाने के बावजूद बिहार सरकार को लाॅ एंड आॅर्डर जैसे मुद्दे पर घेरा जा रहा है. क्या कोई उदाहरण है जब लालू प्रसाद या राबड़ी देवी के शासन काल में उनके पनाहगार के किसी अपराधी के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज हुई हो?
साल 1989 के भागलपुर दंगे में तत्कालीन सरकार की उदासीनता के कारण लगभग 2,000 लोगों की मौत हुई थी, जिन्हें न्याय दिलाने में पूर्ववर्ती राजद सरकार नाकामयाब रही थी. 30 नवंबर और पहली दिसंबर, 1997 को जहानाबाद के लक्ष्मणपुर बाथे गांव के 58 दलितों की नृसंश हत्या कर दी गयी थी. रीतलाल यादव व शहाबुद्दीन भी इसी राज की उपज हंै. सरकारी संरक्षण के कारण स्वयं पुलिस भी शहाबुद्दीन के खिलाफ केस दर्ज करने से परहेज करती थी.
साल 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आते ही शहाबुद्दीन की गिरफ्तारी के बाद सीवान समेत आसपास के इलाकों में शांति बहाल हो पायी. राज्य में स्पेशल कोर्ट के जरिये 50 हजार से अधिक अपराधियों पर कार्रवाई करते हुए 129 को मृत्यु दंड भी सुनाया गया. वह 1990 का दशक था, जब अंतरजातीय हिंसा अपने चरम पर थी. बारा, सेनारी और लक्ष्मणपुर इसके प्रमाण हैं.
एमसीसी और रणवीर सेना का वह दौर भी नहीं भुलाया जा सकता, जब सूर्यास्त के बाद आवागमन अनहोनी को न्योता देने जैसा था. उस दौरान चुनावी हिंसा भी शीर्ष पर थी.
1990 से पहले और 2005 तक ‘बूथ कैपचरिंग‘ रिकाॅर्ड पर थी. भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण नहीं कि आज भी उस शासन के मुखिया चारा घोटाले की सजा काट रहे हैं. जहां तक विकास की बात है, इस दरम्यान किडनैपिंग का उद्योग खूब फला-फूला. घरों-बैंकों में डकैती भी आम खबर थी. ‘रंगदारी’ उसी काल की उत्पत्ति है.
उस शासन में सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर बिहार की शर्मनाक तस्वीर बिहारी अस्मिता को भी प्रभावित कर रही थी. बिहारियों को अपमानजनक निगाहों से देखा जाने लगा था. पहले से गरीब राज्य की आर्थिक गतिविधि ठप हो चुकी थी, जिससे रोजगार की तलाश में सर्वाधिक पलायन भी हुआ.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार आठवीं पंचवर्षीय योजना अवधि 1990-95 के दौरान बिहार आर्थिक मापदंडों के अंतिम पायदान पर था. साल 1997-98, 2001-02 तथा 2003-04 के दौरान राज्य की जीडीपी नेगेटिव आंकड़ों में रही, जो वर्तमान शासन के वर्षों में 16 फीसदी तक पहंुचने में कामयाब रही है.
इतनी कम अवधि में शिक्षा, सड़क, बिजली, चिकित्सा एवं सुशासन के क्षेत्र में इतना विकास किसी भी राज्य में नहीं हुआ है, जितना नीतीश काल में हुआ. गत कार्यकाल में बिहार राज्य सड़क विकास निगम तथा ग्रामीण विकास विभाग द्वारा 66,000 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण व नवीनीकरण विकास का ठोस नमूना है. इसी दौरान ग्रामीण सड़कों की लंबाई 90 फीसदी तक बढ़ाकर गांवों को मुख्यधारा में शामिल किया गया. शुरुआत के तीन वर्षों में ही 336 से अधिक पुलों का निर्माण तथा 2015 तक 5,441 पुलों का निर्माण अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है.
हाल के वर्षों में शिक्षा संबंधी अनियमितताओं को लेकर भी सरकार की किरकिरी हुई, लेकिन अनियमितताओं के खिलाफ त्वरित कार्रवाई भी की गयी. प्राथमिक शिक्षा में सुधार हेतु इसके बजट को दोगुना करने के साथ ही पिछले कार्यकाल के दौरान 21,087 नये प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण एवं 19,581 प्राथमिक विद्यालयों की माध्यमिक विद्यालयों में तब्दीली से खासकर पिछड़े वर्गों का उत्थान हुआ है. तकरीबन 40 लाख बालिकाओं को साइकिल व ड्रेस देकर शिक्षा के प्रति प्रेरित करने का श्रेय इसी सरकार को है.
सीएमआइइ के डाटा के अनुसार, 1998-99 से 2005-06 तक राज्य में ‘इंडस्ट्रियल जाॅब्स’ का आंकड़ा 0.9 फीसदी था, जो 2005-06 से 2012-2013 के बीच आठ फीसदी से अधिक रहा. साल 2006-2013 तक राज्य ने 12 फीसदी की वार्षिक दर से विकास किया. वित्त वर्ष 2017 में भी यह 10.3 फीसदी के साथ देश में शीर्ष स्थान पर रहा. ‘इज आॅफ डुईंग बिजनेस’ को लेकर किये गये सुधार की देशभर में सराहना हुई है. सच है कि हाल के वर्षों में बिहार राजनीतिक गतिरोध का शिकार रहा है.
पूर्ण शराबबंदी का भी पूरा विरोध हुआ, लेकिन इससे समाज अधिक सशक्त, स्वास्थ्य और संयमी हुआ है, जिससे स्वास्थ्य में बेहतरी, आर्थिकी में सुधार हुआ. पारिवारिक हिंसा, घरेलू कलह आदि पर नियंत्रण संभव हुआ है.
एक सर्वे के मुताबिक, शराबबंदी के बाद लीवर, हृदय व सड़क दुर्घटना के मरीजों की संख्या में लगभग 50 फीसदी की कमी तथा सड़क दुर्घटनाओं और इनसे होनेवाली मौतों में लगभग 60 फीसदी की कमी दर्ज हुई है.
अब सरकार ‘सात निश्चय’ के क्रियान्वयन को प्रतिबद्ध है. राज्य में विद्यार्थियों को सरकारी गारंटी पर चार लाख तक का क्रेडिट कार्ड, आरक्षित रोजगार के तहत महिलाओं को विशेष अधिकार, हर घर बिजली लगातार, हर घर नल का जल, पक्की नाली-गली, शौचालय निर्माण एवं युवाओं हेतु अवसर बढ़ाने का कार्य जोरों पर है.
इसके साथ ही सरकार पिछड़ों, वंचित वर्गों के उत्थान, दहेज प्रथा व बाल विवाह के खिलाफ संवेदनशील है. वर्ष 2013 में बिहार पुलिस तथा 2016 में सभी सरकारी क्षेत्रों की नौकरियों में महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण की संस्तुति महिला सशक्तीकरण के लिए किसी उच्च मिसाल से कम नहीं है.
बहरहाल, जदयू का एनडीए गठबंधन में शामिल होने का निर्णय विपक्षी दलों को परेशान व आलोचक बना सकता है, लेकिन सरकार की उपलब्धियों व शासन पर पर्दा नहीं डाल सकता.
धर्मनिरपेक्षता से लेकर विकास, सामाजिक सौहार्द और सुशासन, सभी मोर्चों पर नीतीश मार्का ममता, लालू व अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष मार्का से भिन्न और सफल रहा है. ऐसी तस्वीरों में कम-से-कम बुद्धिजीवियों द्वारा ‘नीतीश राज’ की तुलना ‘जंगल राज’ से करना न सिर्फ अन्यायपूर्ण है, बल्कि कुतर्क भी.

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