जीएसटी को थैंक्स बोलना मांगता!

मनोज श्रीवास्तव व्यंग्यकार देश में अंग्रेजों के समय के कई कानून चल रहे हैं. कभी कोई दिक्कत हुई तो बताओ? फिर इस जीएसटी में ऐसा क्या है, जो समझ से बाहर है? व्यापारी, सीए, वकील, सरकारी अमला सब चक्कर में! पढ़े-लिखे लोग घर से बाहर निकलते ही बचने की जुगाड़ ढूंढते-फिरते हैं कि कोई जीएसटी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 31, 2017 12:23 AM

मनोज श्रीवास्तव

व्यंग्यकार

देश में अंग्रेजों के समय के कई कानून चल रहे हैं. कभी कोई दिक्कत हुई तो बताओ? फिर इस जीएसटी में ऐसा क्या है, जो समझ से बाहर है? व्यापारी, सीए, वकील, सरकारी अमला सब चक्कर में! पढ़े-लिखे लोग घर से बाहर निकलते ही बचने की जुगाड़ ढूंढते-फिरते हैं कि कोई जीएसटी समझने के पीछे न लग जाये, नहीं तो पढ़े-लिखे होने का ठप्पा पल भर में बिखर जायेगा.

अब आप बताइये कभी किसी गरीब-गुरबे ने कोई शिकायत की, या किसी अनपढ़ ने कोई शिकायत की, या किसी ग्रामीण ने कोई शिकायत की? आप कहेंगे अरे देश में इनके शिकवे-शिकायतें ही तो भरे है, बाकी तो पूरा देश खाली है. पर नहीं भाई साहब! हम कह रहे हैं कि किसी सर्वहारा वर्ग ने किसी नियम को ना समझ पाने की कभी कोई शिकायत की हो तो बताइये.

गरीब-दुखिया रोयेगा, तो पेट के लिए, पर वह किसी नियम के लिए आंसू नहीं बहाता. वह रोटी-कपड़ा-मकान की शिकायत किया होगा, पर किसी नियम के न समझ आने की कभी शिकायत नहीं करता. सर्वहारा वर्ग पूर्ण रूप से प्रजातंत्र और सरकार की नीयत-मंशा पर विश्वास करनेवाला प्राणी है.

वह मानता है कि जो नियम बना है, उसी के हित में ही बना होगा. पर, ये पढ़े-लिखे लोग ज्यादा नौटंकी करते हैं! हमेशा सरकार को कटघरे में खड़ा करने की जल्दी में रहते हैं. गरीब आदमी दफ्तर के चक्कर काटता है, हाथ जोड़े खड़ा रहता है. दफ्तर के बाबू ने जो कागज पढ़कर सुनाया, उसे सिर-माथे रखकर, हुक्म समझकर अपने घर रवानगी डाल देता है. अदालत-अदालत घूमता है. उसके लिए कागज-स्याही-अक्षर सब एक बराबर, फिर भी न्याय की ऊंची सीढ़ी बिना उफ किये चढ़ जाता है.

यह पढ़ी-लिखी जमात बहुत शातिर है! इसने शेयर मार्केट में पैसा लगाया. इसे कभी रिस्क फैक्टर आये क्या समझ में? बीमा नियम को बिना समझे ही मौत का सौदा कर लेते हैं, किंतु उसमें कोई दिक्कत नहीं! पुलिस थाने जाते हैं, लेकिन दंड संहिता की अज्ञानता का रोना नही रोते.

अंग्रेजी में लिखी धाराओं से कोई दिक्कत नहीं. जज साहब अंग्रेजी में फैसला सुनाकर जेल में भेज दें, पर ये नहीं बोलेंगे कि न जिरह समझ आयी न फैसला, फिर न्याय किस बात का हुआ? दफ्तरों में तो शासकीय नियमावली और उनके गजट प्रकाशन ऐसे होते हैं कि उसमें हिंदी भी अंग्रेजी जैसी नजर आती है, जिसका अर्थ अच्छा-खासा हिंदी रत्न भी अर्थ न समझ पाये, लेकिन कोई फर्क नहीं. ये समझ का शातिरपन है कि वह अपने हिसाब से सोती और जाग्रत होती रहती है.

जीएसटी न समझ पाने का दोष भी इसी समझ का शातिरपन है, जिसमें व्यापारी ग्राहक के लिए चिंतित है कि उसको नुकसान है. कभी देखा है आपने साहुकार को गरीबों की चिंता करते? नहीं देखा न! मतलब जीएसटी वह बला है, जो दूसरों के लिए दुख-दर्द जगा दे! अब यह जाग्रति कोई कम है क्या? इसके लिए जीएसटी को थैंक्स बोलना मांगता मैन!

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