जन-अपेक्षा के अनुरूप राष्ट्रपति

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार पम्बन से रामेश्वरम् जानेवाली वह सूनसान सड़क के पास एक छोटे से टुकड़े पर इन दिनों तेजी से निर्माण कार्य चल रहा है. दिवंगत राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का स्मारक बन रहा है वहां, जिसका उद्घाटन उनकी दूसरी बरसी (27, जुलाई 2017) पर होना है. एक पत्रकार जब इस निर्माण-स्थल पर […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 5, 2017 6:32 AM
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
पम्बन से रामेश्वरम् जानेवाली वह सूनसान सड़क के पास एक छोटे से टुकड़े पर इन दिनों तेजी से निर्माण कार्य चल रहा है. दिवंगत राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का स्मारक बन रहा है वहां, जिसका उद्घाटन उनकी दूसरी बरसी (27, जुलाई 2017) पर होना है. एक पत्रकार जब इस निर्माण-स्थल पर पहुंचा, तो चैन्नई से आया एक परिवार भी वहां था. परिवार ने बताया था कि ‘यह राष्ट्रपति का स्मारक है इसलिए हमने अपनी कार यहां रोकी है.’ पत्रकार ने एक और सवाल पूछा था उस परिवार से, ‘राष्ट्रपति-पद के लिए होनेवाले चुनाव के बारे में वे क्या सोचते हैं?’ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए परिवार के मुखिया ने प्रति प्रश्न किया था, ‘कब है चुनाव?’ और फिर उसने कहा था, ‘मुझे नहीं पता राष्ट्रपति के चुनाव के बारे में. हमारे लिए एक ही राष्ट्रपति हुए हैं, कलाम सर.’
आगामी 17 जुलाई को देश के नये राष्ट्रपति का चुनाव होना है. सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की ओर से दो प्रमुख उम्मीदवार मैदान में हैं. मीडिया में रोज कोई न कोई खबर होती है इस चुनाव के बारे में. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चैन्नई का वह परिवार शायद अपवाद है. लेकिन, पत्रकार के प्रश्न के उत्तर में उसने जो कहा, उसे नजरदांज नहीं किया जाना चाहिए.
यह सही है कि राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से होता है. देश के सांसद और सभी राज्यों के विधायक इस चुनाव में वोट देते हैं. आम मतदाता की भूमिका इसमें दर्शक मात्र की होती है. लेकिन, देश के राष्ट्रपति के चुनाव में देश का आम मतदाता सिर्फ दर्शक नहीं होना चाहिए. देश का राष्ट्रपति सांसदों-विधायकों का नहीं, उसका राष्ट्रपति होता है. इसलिए, जो भी व्यक्ति इस पद के लिए चुना जाये, वह समूचे राष्ट्र की पसंद की अभिव्यक्ति होना चाहिए. इसका सीधा-सा मतलब यह है कि हमारा राष्ट्रपति दलगत राजनीति से ऊपर होता है.
किसी राजनीतिक दल की विचारधाराओं से सहमति के बावजूद उसका व्यवहार दलों की नीतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए. अब तक के हमारे राष्ट्रपतियों में से अधिकतर ने राजनीतिक तटस्थता का परिचय दिया है, पर ऐसे भी उदाहरण रहे हैं, जिनका आचरण राष्ट्रपति-पद की सांविधानिक अपेक्षाओं और मर्यादाओं के अनुरूप नहीं रहा है. देश नहीं भूल सकता कि एक राष्ट्रपति ऐसा भी हुआ है, जिसने बिना अपने विवेक का उपयोग किये आपातकाल के अध्यादेश पर हस्ताक्षर किये थे. इसलिए देश के राष्ट्रपति से यह उम्मीद की जाती है कि वह देश के संविधान का पहरेदार होगा, देश की जनता के हितों को सर्वोपरि रखेगा.
इसीलिए देश की जनता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राष्ट्रपति-पद के चुनाव से उदासीन नहीं होगी. और इसीलिए चैन्नई के उस पर्यटक-परिवार की अनभिज्ञता बहुत कुछ सोचने के लिए हम सबको बाध्य करती है.
राष्ट्रपति का चुनाव सांसद और विधायक करते हैं, लेकिन उम्मीदवार चुननेवाले दल या दलों पर यह नैतिक दबाव होना ही चाहिए कि जिसे भी इस पद के लिए चुना जाये, वह जन-सामान्य की अपेक्षाओं-आकांक्षाओं के अनुरूप हो. ऐसा तभी हो सकता है, जब देश का आम मतदाता राजनीतिक दलों पर अपने अंकुश का एहसास कराये. राजनीतिक दल जब उम्मीदवार चुनें और सांसद-विधायक जब बोट दें, तो उन्हें इस बात का एहसास होना चाहिए कि वे आम नागरिक के साथ धोखा तो नहीं कर रहे?
इस बार राष्ट्रपति-पद के दोनों प्रमुख उम्मीदवार दलित समुदाय के हैं. सवाल है, क्या इन दोनों को दलितों के प्रति हमदर्दी और उन्हें राज-सत्ता में उचित स्थान देने के पवित्र भाव से ही उम्मीदवार बनाया गया है? काश, इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में होता!
स्वतंत्र भारत की राजनीति इसकी गवाह है कि वोटों की राजनीति में जो दिखाया जाता है, वह अक्सर असली नहीं होता.इस निर्णय के पीछे भी यदि दलितों का हित ही प्रमुख था, तो भाजपा को, और विपक्ष को भी, अपना उम्मीदवार घोषित करने के लिए आखिरी क्षण तक का इंतजार नहीं करना पड़ता. विडंबना ही है कि जब देश में एक बार फिर किसी दलित को सर्वोच्च पद पर बैठने का अवसर मिल रहा है, प्रतिस्पर्धा इस बात की चल रही है कि मेरा दलित तेरे दलित से ‘ज्यादा सफेद’ है! जबकि चुनाव का आधार योग्य और बेहतर इंसान होना चाहिए था-राजनीति नहीं.
बहरहाल, जो भी अगला राष्ट्रपति बनता है, (वैसे तो यह तय है, फिर भी) उसे दिवंगत राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के स्मारक पर कहे गये उस भारतीय के ये शब्द याद रखने चाहिए कि ‘हमारे लिए एक ही राष्ट्रपति हुए हैं, कलाम सर!’ कलाम राजनेता नहीं थे, सामाजिक कार्यकर्ता का बिल्ला भी उन्होंने कभी नहीं लगाया. वे एक वैज्ञानिक थे और एक विवेकशील अच्छे इंसान थे.
राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने भले ही उन्हें किन्हीं भी कारणों से वोट दिये हों, देश की जनता उन्हें उनकी इंसानियत के लिए याद करती है. किसी भी व्यक्ति के लिए यह चुनौती बहुत बड़ी है, लेकिन ऐसी चुनौती स्वीकार करके ही कोई व्यक्ति अपनी योग्यता-क्षमता प्रमाणित कर सकता है.

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