स्मृति शेष : अपनी जिंदादिली के कारण लोगों की यादों में बसे हैं अजीत कुमार अकेला
भोजपुरी के मशहूर लोकगायक अजीत कुमार अकेला का निधन हो गया. उनके निधन से शोक पसरा है. हालांकि एक कलाकार कभी मरता नहीं इसलिए जिंदादिल अजीत अकेला लोगों की स्मृति में एक सुखद याद की तरह हैं. उनके निधन के बाद कुछ लोगों ने श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें याद किया. जिनमें पत्रकार निराला, पत्रकार सुमीत […]
भोजपुरी के मशहूर लोकगायक अजीत कुमार अकेला का निधन हो गया. उनके निधन से शोक पसरा है. हालांकि एक कलाकार कभी मरता नहीं इसलिए जिंदादिल अजीत अकेला लोगों की स्मृति में एक सुखद याद की तरह हैं. उनके निधन के बाद कुछ लोगों ने श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें याद किया. जिनमें पत्रकार निराला, पत्रकार सुमीत एवं लोकगायिका चंदन तिवारी की टिप्पणी उल्लेखनीय है. उन्हें याद करते हुए पत्रकार निराला ने लिखा है- अजीत अकेला चले गये. यह खबर जैसे ही मिली, कई बातें अचानक से मन में उमड़—घुमड़ गयी. निजी रिश्ते में एक भारी नुकसान से मन परेशान हुआ, वह अलग बात, लोकगायकी में आयी एक बड़ी रिक्तता वाला परिदृश्य भी मन में तैरने लगा.
कई पुरानी स्मृतियां ताजगी के साथ मानस पटल में तैरने लगी. बात तब की है,जब बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का ताजा—ताजी उभार हो रहा था. अपने खास अंदाज की वजह से लालूजी मशहूर हो चुके थे. लालू प्रसाद के उभार के वक्त एक गाना बहुत मशहूर हुआ था— धन फुलवरिया, धन माई मरछिया, लालू हवे जिनके ललनवा कि जानेला जहनवा ए भइया… जबर्दस्त किस्म का गीत था. गीतों में और गीतों के समानांतर ही कलाकारों में रुचि बचपने से रही तो इस गीत के गायक के बारे में पता करना शुरू किया.
मालूम हुआ कि अजीत अकेला का गीत है. तब पहली दफा पटना गया था. पुनाईचक में रहने लगा. पटना पुनाईचक के चौराहे पर एक आयोजन हो रहा था. अजीत अकेला उसमें अपनी प्रस्तुति देने आये थे. वे आये तो लोगों का उत्साह देखने लायक था. अजीत अकेला ने गाया— झामलाल बुढ़वा पीटे कपार, हमरा करमवा में जोरू नहीं. अब भी याद आ रहा है कि पैर रखने तक की जगह नहीं थी लेकिन उसी में जगह बनाकर लोग इस गीत पर नाचने को बेताब हो गये थे. मैं पटना के लिए अजनबी था. तब इंटर की पढ़ाई करने पहली दफा उस शहर को पहुंचा था. लोग झामलाल गीत पर नाचने में मगन थे, उसी बीच में जुगाड़ बनाकर किसी तरह स्टेज तक पहुंच गया. अजीत अकेला गाना गाने के बाद मंच पर ही कुर्सी पर बैठे थे. उनको एक चुटका भिजवा दिया.
यह लिखकर कि आपसे आग्रह है कि लालूजी वाला गीत सुना दीजिए. अजीत अकेला मेरा नाम पूछे. स्टेज पर वे गाना गा चुके थे. फिर से माइक पकड़कर आये. मेरे नाम को बोलकर गीत सुनाये. अब आप समझ सकते हैं कि उस वक्त मेरी स्थिति कैसी होगी! पटना पहली बार गया था और नये—नये साथियों के साथ प्रोग्राम देखने गया था. स्टेज से अजीत अकेला जैसे कलाकार ने नाम लेकर कहा कि यह राजनीतिक मंच नहीं है फिर भी इस गीत को मैं गा रहा हूं कि क्योंकि मेरे बहुत ही प्रिय निरालाबाबू की फरमाइश है यह. एक तो स्टेज से मेरा नाम लिया उन्होंने तो समझिए कि हमारे साथी कैसे देख रहे होंगे मुझे और मुझमें गर्ववाली कैसी कैसी फिलिंग आ रही होगी. सब साथी तो हमारी तरह ही थे. पहली बार पटना पहुंचे हुए. खैर! यह तो दूसरी बात थी. असल बात दूसरी थी, जो करेजे में जाकर बैठ गयी.
वह बात थी अकेला भइया की अदा. वे जब बोले कि मेरे बहुत ही प्रिय तो लगा ओह रे ओह, इतना बड़ा कलाकार मुझे अपना बहुत प्रिय बोल रहा है. अकेलाजी का फैन बना रहा. बाद में जब पत्रकारिता की ट्रेनिंग का भी शहर पटना ही बना तो उन्हें खोजकर मिलने गया. बोले कि बताइये कैसे आना हुआ? बोले कि कोई काम नहीं, बहुत साल पहले आपने कहा था कि मेरे बहुत प्रिय तो सोचे कि अब हम कहें कि आप मेरे बहुत प्रिय हैं… उस बात—मुलाकात के बाद जो रिश्ता बना, वह बना रहा. मुलाकात अरसे बाद होती थी, साल भी गुजर जाते थे लेकिन रिश्ते की गरमाहट बढ़ती ही जा रही थी. आज जब यह खबर मिली कि अकेला भइया अब नहीं रहे, उनसे मुलाकात नहीं होगी, उनसे बात नहीं होगी तो मन कैसा कैसा तो हो रहा है.
आखिरी बार बात तब हुई थी जब लालू प्रसाद यादव का एक प्रोफाइल लेख लिखते हुए उनके गाने—धन फुलवरिया को उद्धृत कर रहा था. उन्हें फोन मिलाया. बोला कि सुनाइयेगा भइया. उनका जवाब था. गाना सुनोगे तुम फोन पर! तुमसे तो बतियायेंगे भी नहीं अब. अनजान नंबर से किया है तो फोन उठा भी लिये अउर बतिया भी रहे हैं नहीं तो पुरनका नंबर से करता तो उठाते भी नहीं. एतना एतना दिन पर याद करोगे तो हम पहचाने से मना कर देंगे अउर देखेंगे तो मुंह फेर लेंगे, न पहचानेंगे, न बोलेंगे—बतियायेंगे. यही सब सुनाते—सुनाते 20 मिनट बतिया लिये. हाल चाल से लेकर जितनी जरूरी बातें थी, सब हो गयी लेकिन एक ही वाक्य दुहराते रहे, तुम रे बाबू, गलती से तुम्हरा नंबर उठाये हैं, आओ तो बताते हैं तुमको. सामने रहोगे तो तिकवेंगे नहीं तोरा ओर. शिकायत भी इतने प्यार और अधिकार से करते थे कि बता नहीं सकता. सुबह से उनकी बहुत याद आ रही है. ठीक है भइया, जाइये, जहां भी गये होंगे आप वहां की दुनिया में भी आपके जाने भर से ही माहौल खुशनुमान हो जाएगा. अब तो क्या सामने और क्या फोन पर, बोलने—बतियाने, शिकायत करने… सबका रिश्ता ही टूट गया. अकेला भइया को प्रणाम है.अलविदा है. ईद के दिन गुजरे हैं, उन्हें जन्नत ही मिलेगी. लोककलाकारों को जीते जी उतनी ख्याति नहीं मिलती, जितनी ख्याति उनके चले जाने के बाद मिलती है. जब आकलन का दौर शुरू होता है. लोककलाकारों की विडंबना पर भिखारी ठाकुर ने लिखा था— अबहीं नाम भइल बा थोरा, जब ई छुट जाई तन मोरा. सेकरा बाद नाम होई जईहन. कव सज्जन मिल के गुण गईहन. यह बात भिखारी ठाकुर ने अपने लिए लिखी थी, यह बात बाद के भी कई कलाकारों पर लागू होती है. बिहार में बिहारीपन के गीत—संगीत को एक मुकाम दिलाने, स्थापित करवाने में जब कलाकारों की बात निकलेगी तो अकेला भइया का नाम ऊपरवाली सूची में होगा.
वे जीवन भर बिहार को ही जीते रहे, बिहारीपन को ही फैलाते रहे. अपने सहज अंदाज में, ठेठ और मौलिक आवाज में. उनकी कमी इसलिए भी खलेगी क्योंकि अभी बिहारी लोकगीतों, विशेषकर भोजपुरी लोकगीतों में अश्लीलता और विद्रूपता के खिलाफ मजबूत लड़ाई शुरू हुई है. उस लड़ाई में अकेला जैसे कलाकार का होना ही लड़नेवालों को नैतिक ताकत दे रहा था.
कई पुरानी स्मृतियां ताजगी के साथ मानस पटल में तैरने लगी. बात तब की है,जब बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का ताजा—ताजी उभार हो रहा था. अपने खास अंदाज की वजह से लालूजी मशहूर हो चुके थे. लालू प्रसाद के उभार के वक्त एक गाना बहुत मशहूर हुआ था— धन फुलवरिया, धन माई मरछिया, लालू हवे जिनके ललनवा कि जानेला जहनवा ए भइया… जबर्दस्त किस्म का गीत था. गीतों में और गीतों के समानांतर ही कलाकारों में रुचि बचपने से रही तो इस गीत के गायक के बारे में पता करना शुरू किया.
मालूम हुआ कि अजीत अकेला का गीत है. तब पहली दफा पटना गया था. पुनाईचक में रहने लगा. पटना पुनाईचक के चौराहे पर एक आयोजन हो रहा था. अजीत अकेला उसमें अपनी प्रस्तुति देने आये थे. वे आये तो लोगों का उत्साह देखने लायक था. अजीत अकेला ने गाया— झामलाल बुढ़वा पीटे कपार, हमरा करमवा में जोरू नहीं. अब भी याद आ रहा है कि पैर रखने तक की जगह नहीं थी लेकिन उसी में जगह बनाकर लोग इस गीत पर नाचने को बेताब हो गये थे. मैं पटना के लिए अजनबी था. तब इंटर की पढ़ाई करने पहली दफा उस शहर को पहुंचा था. लोग झामलाल गीत पर नाचने में मगन थे, उसी बीच में जुगाड़ बनाकर किसी तरह स्टेज तक पहुंच गया. अजीत अकेला गाना गाने के बाद मंच पर ही कुर्सी पर बैठे थे. उनको एक चुटका भिजवा दिया.
यह लिखकर कि आपसे आग्रह है कि लालूजी वाला गीत सुना दीजिए. अजीत अकेला मेरा नाम पूछे. स्टेज पर वे गाना गा चुके थे. फिर से माइक पकड़कर आये. मेरे नाम को बोलकर गीत सुनाये. अब आप समझ सकते हैं कि उस वक्त मेरी स्थिति कैसी होगी! पटना पहली बार गया था और नये—नये साथियों के साथ प्रोग्राम देखने गया था. स्टेज से अजीत अकेला जैसे कलाकार ने नाम लेकर कहा कि यह राजनीतिक मंच नहीं है फिर भी इस गीत को मैं गा रहा हूं कि क्योंकि मेरे बहुत ही प्रिय निरालाबाबू की फरमाइश है यह. एक तो स्टेज से मेरा नाम लिया उन्होंने तो समझिए कि हमारे साथी कैसे देख रहे होंगे मुझे और मुझमें गर्ववाली कैसी कैसी फिलिंग आ रही होगी. सब साथी तो हमारी तरह ही थे. पहली बार पटना पहुंचे हुए. खैर! यह तो दूसरी बात थी. असल बात दूसरी थी, जो करेजे में जाकर बैठ गयी.
वह बात थी अकेला भइया की अदा. वे जब बोले कि मेरे बहुत ही प्रिय तो लगा ओह रे ओह, इतना बड़ा कलाकार मुझे अपना बहुत प्रिय बोल रहा है. अकेलाजी का फैन बना रहा. बाद में जब पत्रकारिता की ट्रेनिंग का भी शहर पटना ही बना तो उन्हें खोजकर मिलने गया. बोले कि बताइये कैसे आना हुआ? बोले कि कोई काम नहीं, बहुत साल पहले आपने कहा था कि मेरे बहुत प्रिय तो सोचे कि अब हम कहें कि आप मेरे बहुत प्रिय हैं… उस बात—मुलाकात के बाद जो रिश्ता बना, वह बना रहा. मुलाकात अरसे बाद होती थी, साल भी गुजर जाते थे लेकिन रिश्ते की गरमाहट बढ़ती ही जा रही थी. आज जब यह खबर मिली कि अकेला भइया अब नहीं रहे, उनसे मुलाकात नहीं होगी, उनसे बात नहीं होगी तो मन कैसा कैसा तो हो रहा है.
आखिरी बार बात तब हुई थी जब लालू प्रसाद यादव का एक प्रोफाइल लेख लिखते हुए उनके गाने—धन फुलवरिया को उद्धृत कर रहा था. उन्हें फोन मिलाया. बोला कि सुनाइयेगा भइया. उनका जवाब था. गाना सुनोगे तुम फोन पर! तुमसे तो बतियायेंगे भी नहीं अब. अनजान नंबर से किया है तो फोन उठा भी लिये अउर बतिया भी रहे हैं नहीं तो पुरनका नंबर से करता तो उठाते भी नहीं. एतना एतना दिन पर याद करोगे तो हम पहचाने से मना कर देंगे अउर देखेंगे तो मुंह फेर लेंगे, न पहचानेंगे, न बोलेंगे—बतियायेंगे. यही सब सुनाते—सुनाते 20 मिनट बतिया लिये. हाल चाल से लेकर जितनी जरूरी बातें थी, सब हो गयी लेकिन एक ही वाक्य दुहराते रहे, तुम रे बाबू, गलती से तुम्हरा नंबर उठाये हैं, आओ तो बताते हैं तुमको. सामने रहोगे तो तिकवेंगे नहीं तोरा ओर. शिकायत भी इतने प्यार और अधिकार से करते थे कि बता नहीं सकता. सुबह से उनकी बहुत याद आ रही है. ठीक है भइया, जाइये, जहां भी गये होंगे आप वहां की दुनिया में भी आपके जाने भर से ही माहौल खुशनुमान हो जाएगा. अब तो क्या सामने और क्या फोन पर, बोलने—बतियाने, शिकायत करने… सबका रिश्ता ही टूट गया. अकेला भइया को प्रणाम है.अलविदा है. ईद के दिन गुजरे हैं, उन्हें जन्नत ही मिलेगी. लोककलाकारों को जीते जी उतनी ख्याति नहीं मिलती, जितनी ख्याति उनके चले जाने के बाद मिलती है. जब आकलन का दौर शुरू होता है. लोककलाकारों की विडंबना पर भिखारी ठाकुर ने लिखा था— अबहीं नाम भइल बा थोरा, जब ई छुट जाई तन मोरा. सेकरा बाद नाम होई जईहन. कव सज्जन मिल के गुण गईहन. यह बात भिखारी ठाकुर ने अपने लिए लिखी थी, यह बात बाद के भी कई कलाकारों पर लागू होती है. बिहार में बिहारीपन के गीत—संगीत को एक मुकाम दिलाने, स्थापित करवाने में जब कलाकारों की बात निकलेगी तो अकेला भइया का नाम ऊपरवाली सूची में होगा.
वे जीवन भर बिहार को ही जीते रहे, बिहारीपन को ही फैलाते रहे. अपने सहज अंदाज में, ठेठ और मौलिक आवाज में. उनकी कमी इसलिए भी खलेगी क्योंकि अभी बिहारी लोकगीतों, विशेषकर भोजपुरी लोकगीतों में अश्लीलता और विद्रूपता के खिलाफ मजबूत लड़ाई शुरू हुई है. उस लड़ाई में अकेला जैसे कलाकार का होना ही लड़नेवालों को नैतिक ताकत दे रहा था.
पटना के पत्रकार सुमीत कुमार ने लिखा-भगवान इतना निर्मम कैसे हो सकता है !! आज सुबह नींद खुलते ही वाट्सअप खोला तो एक मैसेज देख कर सन्न रह गया. संदेश था- लोकगायक अजीत कुमार अकेला का ब्रेन हैमरेज से निधन हो गया. अभी उनकी उम्र ही क्या थी ? पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन जब एक ग्रुप में उनके ही नंबर से उनके भांजे के मैसेज को देखा तो यकीन करना पड़ा.
यकायक ही उनका मुस्कुराता चेहरा और " सुमित भाई " के संबोधन से उनके तमाम वक्तव्य याद आने लगे. आंखें और मन दोनों भर आये. अभी कुछ दिन पहले ही तो अपने कार्यालय में उनसे लंबी मुलाकात हुई थी. इस मुलाकात में उन्होंने भोजपुरी गीतों की अश्लीलता से लेकर पटना कॉलेजियट स्कूल (इसी स्कूल में वो पढ़ाते थे) की अपनी चिंताओं से अवगत कराया था. उन्होंने प्रभात खबर के एक अभियान में भी जुड़ने का भरोसा दिलाया था.मगर सबकुछ छोड़ छाड़ कर अचानक ….
मेरे प्रति उनका स्नेह बड़े भाई से भी कहीं अधिक था. जब भी कोई बात होती तो, मुझसे शेयर जरूर करते. इतने अच्छे और बड़े लोकगायक होने के बावजूद लेशमात्र का भी घमंड नहीं. हां, वो भोजपुरी गीत में फैली अश्लीलता को लेकर व्यथित जरूर रहा करते थे. जब भी कुछ पूछिए- फट पड़ते. सुमित भाई- अश्लील और द्विअर्थी गीत ही भोजपुरी समाज को बर्बाद कर रहे हैं. पारंपरिक और शुद्ध भोजपुरी गाने शुरू से लोगों की पसंद रहे हैं और आगे भी रहेंगे.
उनके भोजपुरी गीतों का मैं बचपन से ही प्रेमी था, इसलिए जब भी कभी उनसे बात करने या मिलने का मौका मिलता तो मुझे काफी अच्छा लगता. राष्ट्रीय सहारा अखबार में रहने के दौरान उनसे जुड़ा एक प्रसंग मुझे हमेशा याद रहेगा. दरअसल किसी विशेष मौके पर उनका इंटरव्यू किया जाना था. इसके लिए मेरे दूसरे रिपोर्टर साथी को यह जिम्मेवारी मिली थी.
लेकिन उन्होंने मेरे साथी से कहा कि – सुमित भाई को ही इंटरव्यू दूंगा. यह उनका मेरे प्रति अपनापन था, लेकिन इससे मेरे रिपोर्टर साथी नाराज हो गये थे. तब मैंने फोन कर अजीत भैया को समझाया था मीडिया क्षेत्र में ऐसी चीजों का लोग बुरा मान जाते हैं. वो भले ही चले गये, लेकिन मेरे प्रति उनका स्नेह हमेशा मेरे साथ रहेगा. अजीत भैया आप हमेशा याद आयेंगे.
लोकगायिका चंदन तिवारी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए एक आडियो संदेश अपने फेसबुक एकाउंट से पोस्ट किया है, उन्होंने लिखा-झामलाल बुढ़उ पिटे कपार, हमरा करमवा में जोरू नहीं…………………………………
अजीत अकेला सर के उहें के गावल एगो गीत के गुनगुना के आखिरी विदाई पर नमन कर रहल बानी. श्रद्धांजलि दे रहल बानी. गीत उहे ह, जे जन—जन में मशहूर भईल अउर हमके तो बहुत बहुत बहुत पसंद रहल शुरू से ही.