Success Story: ब्रस की जगह सुई-धागे से मधुबनी पेंटिंग को जीवंत कर रहीं कतरास की महिलाएं

Success Story: मधुबनी पेंटिंग या मिथिला पेंटिंग किसी परिचय का मोहताज नहीं. नाम लेते ही बिहार का मिथिलांचल जेहन में आ जाता है. मधुबनी के गांवों से निकली यह कला आज वैश्विक मंच पर अपना डंका बजा रही है. चमकीले रंग, ज्यामितीय डिजाइन और प्राकृतिक रंगों के उपयोग से हिंदू पौराणिक कथाओं, प्रकृति और दैनिक […]

By Shailly Arya | June 16, 2025 12:31 PM

Success Story: मधुबनी पेंटिंग या मिथिला पेंटिंग किसी परिचय का मोहताज नहीं. नाम लेते ही बिहार का मिथिलांचल जेहन में आ जाता है. मधुबनी के गांवों से निकली यह कला आज वैश्विक मंच पर अपना डंका बजा रही है. चमकीले रंग, ज्यामितीय डिजाइन और प्राकृतिक रंगों के उपयोग से हिंदू पौराणिक कथाओं, प्रकृति और दैनिक जीवन के दृश्यों को दर्शाने वाली इस समृद्ध कला के क्षेत्र में नया प्रयोग किया है देश की कोयला राजधानी धनबाद की महिलाओं ने. विशुद्ध रूप से कोयले के लिए जाने जाने वाले धनबाद के कतरास क्षेत्र की महिलाओं ने कोयले से इतर अपनी जिंदगी का ताना-बाना बुनना चाहा और इसमें उनकाे साथ मिला झारखंड सरकार के जेएसएलपीएस का. इसकी मदद से कतरास की महिलाओं ने गायत्री स्वयं सहायता समूह का गठन किया. तय हुआ कि कुछ अलग किया जाये. टीम लीडर अर्चना झा और रूही दास ने इलाके की महिलाओं को समूह से जोड़ा और उन्हें समझाया कि मधुबनी पेंटिंग को क्यों ना सूई-धागे के सहारे उकेरा जाये. शुरू-शुरू में कोई मानने को तैयार नहीं था, पर फिर बात बन गयी. और अब हालात यह है कि देश-विदेश में इनकी कलाकारी वाले कपड़ों की मांग है.

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देखते बनती है सुई-धागे की कलाकारी

टीम से जुड़ी महिलाएं मधुबनी पेंटिंग की बारीकी व खूबसूरती को जिस तेजी से सुई-धागे से उभारती हैं, वह देखते बनता है. अर्चना झा व रूही दास कहती हैं कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि बात-बात में बने इस समूह की पहचान दूर-दूर तक हो जायेगी. वह बताती हैं कि मधुबनी पेंटिंग कोयलांचल में देखने को बहुत कम मिलती है. हमेशा लगता था कि इसकी बारीकियां, खूबसूरती, उनमें छिपे संदेश से कोयलांचल भी परिचित हो और अब यह सपना साकार हो गया.

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सासू मां की मेहनत काम आईं : अर्चना झा बताती हैं कि दरभंगा उनका मायका और कतरास ससुराल है. वह दरभंगा में गोबर व प्राकृतिक रंग से मधुबनी पेंटिंग बनाती थीं. जब ससुराल आयीं, तो यहां सासू मां को सुई-धागे से कपड़ों पर कलाकृति उकेरते देखा. उन्हें यह कला बहुत पसंद आयी. उनसे प्रशिक्षण लेकर कपड़े पर मधुबनी पेंटिंग की कलाकृतियां उकेरना शुरू कर दिया. फिर इसे फैलाने की इच्छा जगी. कुछ महिलाओं से इस विषय पर बात हुई और गायत्री स्वयं सहायता समूह की नींव पड़ी.

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सूजनी क्राफ्ट से मिली पहचान : रूही दास बताती हैं कि समूह से संबद्ध सभी 10 महिलाओं ने मिलकर कपड़े पर रामायण-महाभारत आदि का चित्रण सुई-धागे शुरू किया. इसकी खूब चर्चा हुई और मांग बढ़ी. इससे उत्साहित समूह ने सुजनी क्राफ्ट (बंगाल में कंथा कला) के तहत रामायण थीम व कोहबर, डोली ले जाते कहार की कलाकृति बनाकर प्रदर्शनी में लगाना शुरू किया. रांची में जब प्रदर्शनी लगी, तो वहां खूब सराहना मिली. फिर समूह को फरवरी 2025 में दिल्ली में राष्ट्रपति भवन के उद्यान में लगी प्रदर्शनी में शामिल होने का मौका मिला. वहां भी खूब सराहना मिली. ऑर्डर भी मिले.

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एक प्रोडक्ट तैयार करने में लगते हैं 15 से 20 दिन : रूही दास बताती हैं कि साड़ी व दुपट्टा की मांग अधिक होती है. साड़ी बनाने में पंद्रह दिन, दुपट्टा, कुशन कवर व बेडशीट बनाने में बीस दिन का समय लगता है. साड़ी बनाने में पंद्रह सौ से पांच हजार रुपये, बेडशीट, पिलो कवर, कुशन सेट बनाने में बीस दिन व तीन से चार हजार रुपये लगते हैं. वह कहती हैं कि उत्पाद थोड़ा महंगा है, इसलिए कोयलांचल में इसकी मांग कम होती है. ज्यादातर डिमांड दूसरे राज्यों में होती है.

रिपोर्ट: सत्या राज, धनबाद

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