Jamaalapur vidhaanasabha: जमालपुर, आजादी के दीवानों से लेकर एशिया के सबसे बड़े रेल कारखाने तक
Jamaalapur vidhaanasabha: जमालपुर—जहां कभी आज़ादी की अलख जलाने वाली संध्या देवी रात के अंधेरे में गोगरी थाने की दीवारों पर परचे चिपकाती थीं, वहीं से कुछ ही दूरी पर गूंजते थे रेलवे कारखाने के हथौड़े और मशीनों के शोर. यह जमालपुर विधानसभा सीट सिर्फ स्टील और पटरियों का नहीं, बल्कि त्याग, साहस और तकनीक का भी इतिहास समेटे हुए है.
Jamaalapur vidhaanasabha: मुंगेर के पास बसा जमालपुर बिहार के नक्शे पर सिर्फ एक औद्योगिक ठिकाना नहीं है, बल्कि यह स्वतंत्रता संग्राम और औद्योगिक विकास दोनों का साक्षी रहा है. यहां की गलियों में एक तरफ आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ने वाली महिलाओं के किस्से हैं, तो दूसरी तरफ रेलवे के उस कारखाने की गाथा, जिसने एशिया में अपना नाम रोशन किया.
जमालपुर का इतिहास नायकों के संघर्ष, ब्रिटिश औपनिवेशिक रणनीति और भारतीय तकनीकी विकास की कहानी एक साथ कहता है.
संध्या देवी: 9 साल की उम्र से आज़ादी की राह पर
साल 1930 के दशक की शुरुआत थी, जब जमालपुर की बेटी संध्या देवी महज नौ साल की उम्र में आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़ीं. माता सरस्वती देवी और पिता विरंचि प्रसाद जहाज, दोनों ही स्वतंत्रता सेनानी थे और उसी घर के माहौल में संध्या ने भी साहस की राह चुन ली.
गोगरी थाने में रात के अंधेरे में परचे चिपकाकर भाग जाना, अंग्रेजी राज में कई बार घर की कुर्की झेलना—ये सब उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया था. उनके घर पर स्वतंत्रता सेनानियों का जमावड़ा रहता, और वह खुद अपने हाथ से उन्हें भोजन करातीं.
1932 में पहली बार वह माता-पिता के साथ भागलपुर जेल गईं और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में फिर से जेल गईं. इसी दौरान जेल में उनकी मुलाकात स्वतंत्रता सेनानी दिनेश मंडल से हुई और वहीं से उनकी जीवन यात्रा साथी के रूप में शुरू हुई. उसी साल उनके नेतृत्व में गोगरी थाने के पास रेल की पटरी उखाड़ फेंकने की घटना ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया.
जमालपुर रेलवे कारखाना: औद्योगिक गौरव की कहानी
जमालपुर का नाम भारतीय रेलवे के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है. 1860 में यहां रेलवे कारखाना स्थापित किया गया—ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी का पहला बड़ा केंद्र.
मुंगेर को चुने जाने के पीछे कई वजहें थीं—यहां सदियों से हथियार और लोहे के कलपुर्जों के निर्माण की परंपरा थी, जो रेलवे की तकनीकी जरूरतों के लिए अनुकूल थी. साथ ही यह हावड़ा–दिल्ली रेलमार्ग और साहिबगंज लूप लाइन पर रणनीतिक रूप से स्थित था.
1925 तक यह कारखाना एशिया का सबसे बड़ा रेलवे वर्कशॉप बन चुका था. यहां लोकोमोटिव इंजनों की मरम्मत और निर्माण का काम होता था. 1933 में आए भीषण भूकंप ने इसे तबाह कर दिया, लेकिन कुछ ही वर्षों में यह फिर खड़ा हो गया.
कारखाने का तकनीकी महत्व इतना था कि 1927 में यहां एक ट्रेनिंग स्कूल की शुरुआत की गई, जिसमें चुने हुए युवाओं को चार साल जमालपुर में और दो साल इंग्लैंड में प्रशिक्षण दिया जाता था. यह संस्थान बाद में भारतीय रेलवे का ‘इंडियन रेलवे इंस्टीट्यूट ऑफ मैकेनिकल एंड इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग’ बना.
शहर का रंग-ढंग और कॉलोनी का जीवन
जमालपुर रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही शहर की अलग ही दुनिया दिखती है—छोटे होटल, भीड़भाड़, लॉटरी के स्टॉल और शोरगुल. लेकिन रेलवे कॉलोनी में पहुंचते ही माहौल बदल जाता है. यह 125 साल पुरानी कॉलोनी अपनी अंग्रेजी स्थापत्य शैली और हरियाली से अलग पहचान रखती है.
एक समय में यहां रहने वाले ज्यादातर कर्मचारी अंग्रेज थे, जो हावड़ा के होटलों और रेस्टोरेंट्स की विलासिता से दूर, कॉलोनी के क्लब और जिमखाना में अपना समय बिताते थे. यही वह जगह थी, जहां औद्योगिक अनुशासन और सामाजिक मेलजोल का अनूठा मिश्रण मिलता था.
जमालपुर: संघर्ष और विकास का संगम
जमालपुर की कहानी दो धाराओं में बहती है—एक तरफ संध्या देवी जैसी बेटियां थीं, जिन्होंने निडर होकर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी और दूसरी तरफ वह औद्योगिक विरासत थी, जिसने भारत की रेलवे को मजबूती दी.
यहां की पटरियों पर न सिर्फ गाड़ियां दौड़ीं, बल्कि आज़ादी के सपने भी चले. यह शहर हमें याद दिलाता है कि इतिहास सिर्फ किताबों में नहीं, बल्कि ईंट-पत्थरों, मशीनों और उन गलियों में भी लिखा होता है, जहां लोग हिम्मत और हुनर से अपने दौर को बदल देते हैं.
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