मंदी की आशंका

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ऐसे समय में वैश्विक आर्थिक महामंदी की आशंका जतायी है, जब दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं पिछले दशक की मंदी से उबर कर स्थिरता की ओर बढ़ रही हैं. वृद्धि दर के आंकड़े कमोबेश आर्थिक बेहतरी की ओर संकेत कर रहे हैं, पर दीर्घकालीन नीतियों और ऋणों के खराब […]

By Prabhat Khabar Print Desk | June 28, 2015 6:41 AM
रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ऐसे समय में वैश्विक आर्थिक महामंदी की आशंका जतायी है, जब दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं पिछले दशक की मंदी से उबर कर स्थिरता की ओर बढ़ रही हैं.
वृद्धि दर के आंकड़े कमोबेश आर्थिक बेहतरी की ओर संकेत कर रहे हैं, पर दीर्घकालीन नीतियों और ऋणों के खराब प्रबंधन से यह गति नकारात्मक भी हो सकती है. दुर्भाग्य से विकास और निवेश की बड़ी-बड़ी संख्याओं के पीछे ऋण, आर्थिक विषमता और धन के केंद्रीकरण में बढ़ोतरी को नजरअंदाज करना आत्मघाती हो सकता है.
वित्तीय प्रबंधन को लेकर अलग-अलग तर्क हो सकते हैं, पर राजन और अन्य विशेषज्ञों की चिंताओं को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है. अगर बड़ी विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं समय से नहीं चेतती हैं, तो आसन्न संकट बरबादी का कारण बन सकता है. इस मसले पर एक विमर्श आज के समय में..
महामंदी की चेतावनी
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को लगता है कि दुनिया 1930 के दशक में आयी महामंदी जैसे हालात की ओर बढ़ रही है, जिससे मुकाबले कि लिए अंतरराष्ट्रीय सहमति बनाये जाने की जरूरत है. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में ‘केंद्रीय बैंक का दृष्टिकोण’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में उन्होंने बैंकों को आगाह किया कि वैश्विक अर्थव्यवस्था वैसी ही समस्याओं से घिर रही है, जैसी 1930 के दशक में महामंदी के समय थी.
बैंकों को इससे सावधान रहने और नयी व्यवस्था तैयार करने की जरूरत है. उन्होंने कहा, ‘आर्थिक वृद्घि का दबाव बहुत अधिक है, जिससे केंद्रीय बैंकों पर भी दबाव पड़ता है. मुङो फिक्र है कि वृद्घि को बढ़ावा देने के फेर में हम धीरे-धीरे वैसी ही समस्याओं में फंस रहे हैं, जैसी 1930 के दशक में थीं. मुङो लगता है कि दिक्कत केवल औद्योगिक देशों अथवा उभरते हुए देशों तक सीमित नहीं है, इसका दायरा बहुत बढ़ गया है. बेहतर समाधान के लिए हमें सब कुछ व्यवस्थित करना होगा. मुङो लगता है कि केंद्रीय बैंक किस तरह के कदम उठा सकते हैं, इसके लिए वैश्विक नियम तय करने के मकसद से चर्चा शुरू हो जानी चाहिए.
इसके लिए खासे अनुसंधान के बाद अंतरराष्ट्रीय सहमति बना कर कार्रवाई होनी चाहिए.’ भारत के नजरिये से ब्याज दरों में कटौती के बारे में पूछने पर राजन ने कहा, ‘भारत में हमें अभी निवेश को बढ़ावा देने की आवश्यकता है और मुङो उसी की ज्यादा चिंता है. इसलिए मेरा ध्यान इस पर रहता है कि केंद्रीय बैंक के कदम से ब्याज दरें नीचे आयेंगी या नहीं और कंपनियों को निवेश करने के वास्ते सस्ता कर्ज मिलेगा या नहीं.’
मांग मजबूत रहे तो मंदी का असर नहीं
अंजन रॉय
पूर्व आर्थिक सलाहकार, फिक्की
भारत बड़े निर्यातक देशों में नहीं है, इसलिए वैश्विक मंदी का खतरा भारत को नहीं है. लेकिन अगर हमारी आंतरिक मांग कमजोर हो गयी, तो अगर वैश्विक मंदी नहीं भी आयी, तो भी हमारी अर्थव्यवस्था के लिए चिंता की बात होगी. इसलिए भारत को चाहिए कि वह मांग को मजबूत बनाये रखने की कोशिश करे.
हमारे रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने जिस वैश्विक मंदी की ओर इशारा किया है, उसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. राजन ने कहा कि अगर बैंकों की मौद्रिक नीतियों पर कोई अंतरराष्ट्रीय सहमति नहीं बनती है, तो पूरी दुनिया में 1930 के ग्रेट डिप्रेशन (आर्थिक महामंदी) जैसी स्थिति होने का खतरा है.
जाहिर है, वैश्विक अर्थव्यवस्था में दिक्कतें पैदा होंगी, तो हो सकता है कि हमें मंदी की मार झेलनी पड़े. लेकिन दुनिया के केंद्रीय बैंकों ने हाल में जो सख्त कदम उठाये हैं, उससे ऐसा नहीं लगता कि हम अर्थव्यवस्था को संभाल नहीं पायेंगे. यूरोपीय बैंक हों या जापानी बैंक सभी ने केंद्रीय बैंकों की तर्ज पर ही अपनी मौद्रिक नीतियों में सख्ती लाने की बात कही है, जिसका इशारा राजन कर रहे हैं.
फिलहाल तो दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि दर बढ़ रही है, फिर भी राजन ऐसी बात कह रहे हैं, तो फिर इस पर चिंतन करना जरूरी है. हालांकि, राजन के इशारे पर दुनिया के केंद्रीय बैंकों का कितना ध्यान जायेगा, इसमें मुझे संदेह है. गौरतलब है कि वैश्विक मंदी से बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को ही ज्यादा नुकसान होता है.
हो वैश्विक नियमों पर बहस
दुनियाभर में जो जनसांख्यिकीय बदलाव आ रहे हैं, उसकी वजह से वस्तुओं की मांग घट रही है. मांग घटने से उत्पादित वस्तुओं के स्टॉक बढ़ने की संभावना रहती है, जिसके चलते अर्थव्यवस्था थमने लगती है. केंद्रीय बैंकों ने अपनी उदारता छोड़ कर सख्त मौद्रिक नीति के तहत अगर इस मांग को बढ़ाने की कोशिश की, तब तो वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं होगा, लेकिन अगर इस मांग में कमी आयी, तो बहुत मुश्किल होगा कि हम मंदी से बच पायें.
हालांकि, इस बात के लिए कुछ वर्षो पहले दुनिया के केंद्रीय बैंकों और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने मिल कर एक फैसला लिया था कि वे एक-दूसरे का सहयोग करेंगे. लेकिन फिलहाल यह सहयोग नजर नहीं आ रहा है, शायद यही वजह है कि राजन को उन्हें आगाह करने की जरूरत आयी कि उन्हें फिर से मौद्रिक नीति के वैश्विक नियमों पर बहस करनी चाहिए. केंद्रीय बैंकों को दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं के साथ मिल कर सहयोगपूर्ण रवैये के साथ काम करना चाहिए.
1930 जैसी स्थिति नहीं
दुनिया के कई ऐसे देश हैं, जहां की अर्थव्यवस्था बहुत ही गंभीर स्थितियों से गुजर रही है. ग्रीस की अर्थव्यवस्था संकट में है, चीन में आर्थिक मंदी के संकेत मिल रहे हैं, 2008-09 में यूरोप और अमेरिका मंदी का शिकार हुए थे, फिलहाल कुछ संभले हैं, भारत की अर्थव्यवस्था की दर भी पिछले कुछ वर्षो से कम ही रही है, हालांकि अब कुछ सुधार आ रहा है. कुल मिला कर देखें, तो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि आखिर वहां चल क्या रहा है. वहीं कई देशों की अर्थव्यस्था में अच्छी खासी वृद्धि देखी जा रही है. इसलिए ऐसा नहीं लगता कि दुनिया 1930 जैसी वैश्विक मंदी की ओर बढ़ रही है.
भारत पर असर नहीं
हो सकता है कि कुछ लोग इस बारे में भी सोचते हों कि अगर वैश्विक मंदी आयेगी, जिसका इशारा राजन कर रहे हैं, तो भारत पर भी इसका कुछ असर पड़ेगा. लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता. हालांकि भारत को सावधान रहने की जरूरत है और इसके मद्देनजर उसे अपनी अर्थव्यवस्था में मांग को मजबूत बनाये रखनी चाहिए. एक दूसरी बात यह भी है कि हम बहुत बड़े निर्यातक देश नहीं हैं. इसलिए वैश्विक मंदी का खतरा भारत को उतना नहीं है.
लेकिन वस्तुओं की अगर हमारी आंतरिक मांग कमजोर हो गयी, तो अगर वैश्विक मंदी नहीं भी आयी, तो भी हमारी अर्थव्यवस्था के लिए चिंता की बात होगी. इसलिए भारत को अगर वैश्विक मंदी के चपेट से बचना है, तो उसे चाहिए कि वह मांग को मजबूत बनाने की तमाम कोशिश को जारी रखे.
(बातचीत : वसीम अकरम)
चीनी अर्थव्यवस्था पर भी मंदी के बादल
टीम वोर्सटॉल
आर्थिक मामलों के जानकार
जैसे ही लोगों की संपत्ति बढ़ती है चीन के लोग, जो जीडीपी का 30-40 फीसदी बचत करते हैं, अधिक खर्च करने लगते हैं. लेकिन अगर शेयर बाजार में गिरावट आती है, तो इसका प्रतिकूल असर दिखने लगता है. परिसंपत्ति की कीमतें कम हो रही हैं, तो लोग अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए अधिक बचत करने लगते हैं.
अर्थव्यवस्था को लेकर ऐसी कोई भविष्यवाणी नहीं है, जिसे लेकर सशंकित हुआ जाये. ऐसा लगता है कि चीन का शेयर बाजार अपने शीर्ष पर पहुंच चुका है और कुछ हद तक यह आशंका बनी हुई है कि चीन में आर्थिक मंदी आ सकती है.
जीडीपी घटने की भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी, लेकिन आर्थिक पहलू के अन्य मोरचे में गिरावट आ सकती है और इससे आर्थिक विकास पर प्रभाव पड़ने का खतरा बना हुआ है. समस्या यह है कि जब परिसंपत्ति की कीमत बढ़ती है, तो हम खुद को अमीर महसूस करते हैं और इसलिए हम अधिक पैसा खर्च करने लगते हैं. इसका स्याह पक्ष यह है कि हम अपनी आमदनी में कम बचत करते हैं. हालांकि, जब परिसंपत्ति की कीमत कम होती है, तो इसका उल्टा प्रभाव होता है.
शेयरों में आयी गिरावट
वर्ष 2008 में जब वैश्विक मंदी आयी तो अमेरिका में यही स्थिति देखने में आयी थी. यही वजह है कि चीन को लेकर विश्व स्तर पर चिंता की वजह यह हालत है. मुख्य खबर यह है कि चीन के बाजार में गिरावट आयी और फिर इसमें 20 फीसदी का उछाल देखा गया. बीते शुक्रवार को चीनी कंपनियों के शेयरों में भारी गिरावट आयी और हाल के वर्षो में यह सबसे बड़ी गिरावट मानी जा रही है.
बाजार में आयी गिरावट चीनी बाजार के अनोखे रफ्तार पर ब्रेक लगा सकती है, जो चीनी अर्थव्यवस्था में गिरावट के संकेत के बावजूद उछाल पर है. कॉरपोरेट लांभांश में कमी आयी है.
चीन के शंघाई शेयर बाजार के सूचकांक में 7.4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी जो डॉ जोंस के सूचकांक का लगभग 1300 अंक होता है. शेनजेन, जो तकनीकी शेयरों के लिए जाना जाता है, वहां 7.9 फीसदी की गिरावट आयी. यह सिर्फ एक दिन के बाजार के हालात हैं, जो हाल में 20 फीसदी की दर से आगे बढ़े हैं. हाल में शेयर बाजार में जो बढ़त दिखी है, वह व्यापर में अंतर के कारण (माजिर्ग ट्रेडिंग) के कारण हुई है.
निवेशक हुए मजबूर
चीन के शेयर बाजार में बढ़त ब्रोकर द्वारा निवेशकों को कर्ज देने के कारण देखी गयी है और यह पिछले एक साल में बढ़ कर 2.2 ट्रिलियन यूयान हो गया है. माजिर्ग ट्रेडिंग चीन के व्यापार योग्य शेयर का 8.5 फीसदी हो गया है. वर्ष 1990 में ताईवान में भी यह इसी स्तर पर था, जो शेयर बाजार के बड़ी गिरावट का कारण बना था. जैसे ही बाजार में गिरावट आने लगी शेयर दलाल माजिर्न लोन का हिस्सा वापस मांगने लगे और इससे निवेशक अपने शेयर बेचने को मजबूर हो गये. हाल में शेयरों की ब्रिकी में सबसे अधिक नुकसान माजिर्न शेयरों को ही हुआ है.
चीन के भारी उद्योग के शेयरों में बाजार के बढ़त के बावजूद 40 फीसदी की गिरावट देखी गयी है. यह हमें 1929 में वॉल स्ट्रीट के हालात की याद दिलाती है. इसका अर्थ यह नहीं कि चीनी शेयरों में 80 फीसदी की और गिरावट आ सकती है. गौरतलब यह है कि पिछले दिनों चीन में बाजार में उछाल कर्ज से लिये गये पैसे के कारण आये हैं.
कम होती परिसंपत्ति की कीमत
सबसे चिंता की बात है संपत्ति का प्रभाव. जब परिसंपत्ति की कीमत बढ़ती है, तो आम तौर पर लोग अपनी आय का कम हिस्सा ही बचत करते हैं. वे सोचते हैं कि हमारे पास पैसा है, तो बचत की क्या जरूरत है. इस संदर्भ में चीन परिसंपत्ति आधारित निवेश से उपभोक्ता खर्च की ओर अपनी अर्थव्यवस्था की दिशा मोड़ रहा है और इसी के कारण आर्थिक विकास दर बढ़ा है.
इसके कारण ही शेयरों की कीमतें बढ़ी हैं. जैसे ही लोगों की संपत्ति बढ़ती है चीन के लोग, जो जीडीपी का 30-40 फीसदी बचत करते हैं, अधिक खर्च करने लगते हैं. लेकिन अगर शेयर बाजार में गिरावट आती है, तो इसका प्रतिकूल असर दिखने लगता है. परिसंपत्ति की कीमतें कम हो रही हैं, तो लोग अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए अधिक बचत करने लगते हैं. ऐसा ही अमेरिका में 2007-08 में देखने को मिला था.
वित्तीय व्यवस्था धवस्त होना महत्वपूर्ण था, लेकिन अगर यह नहीं भी होता, तो भी आर्थिक मंदी आती. क्योंकि हाउसिंग संपत्ति में 8 ट्रिलियन डॉलर खत्म हो गया और अगर ऐसा नहीं होता तो बचत दर बढ़ती, लोग कम खर्च करते और मंदी का सामना करना पड़ता. आज चीन की चिंता यही है. अगर शेयर बाजार में जबरदस्त गिरावट आती है, तो उपभोक्ता खर्च में कमी आयेगी और अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में चली जायेगी. मौजूदा समय में चीन के लिए यह सही नहीं होगा.
(साभार : फोर्ब्स)
कोई तैयारी नहीं
इसी वर्ष अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि 2007 के बाद पहली बार सभी विकसित अर्थव्यवस्थाएं वृद्धि की राह पर हैं. धनी देश 2010 के बाद पहली बार दो फीसदी से अधिक विकास दर हासिल कर सकते हैं और अमेरिका का केंद्रीय बैंक एकदम निचले स्तर पर पहुंच चुके ब्याज दरों को बढ़ा सकता है.
परंतु, यूनानी कर्ज से लेकर चीन के अस्थिर बाजारों तक वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी भी अनेक अवरोधों से जूझ रही है. कुछ ही ऐसी अर्थव्यवस्थाएं हैं, जो पिछले एक दशक में बिना मंदी का शिकार हुए बेहतरी की ओर अग्रसर हुई हैं. अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2009 में बढ़ना शुरू हुई. सोड के सिद्धांत को मानें, तो नीति-निर्धारकों को बहुत जल्दी ढलान का सामना करना होगा.
खतरा यह है कि अपने तमाम हथियार काम में ला चुके सरकारों और केंद्रीय बैंकों के पास अगली मंदी का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त साजो-सामान ही नहीं होगा. मौजूदा स्थिति में एक विरोधाभास भी है कि खतरे को कम करने के लिए अभी नीतियों में कुछ समय के लिए ढील देनी होगी.
सरकारें पैसा उड़ाने में लगी हैं
सबसे अच्छी खबर अमेरिका से है, जहां वृद्धि तेजी से हो रही है. मई महीने में नये 2.80 लाख लोगों को रोजगार मिला है. वेतन बढ़ रहे हैं और वाहनों की खूब बिक्री हो रही है. धनी दुनिया के अन्य हिस्सों में भी सुधार के संकेत हैं. यूरो जोन में बेरोजगारी कम हो रही है और कीमतें बढ़ रही हैं.
ब्रिटेन में रिकवरी कुछ ढीली रही है, पर रोजगार में ठोस बढ़ोतरी से संकेत मिलता है कि विकास की गति बनी रहेगी. जापान की वर्तमान वृद्धि दर 3.9 फीसदी सालाना है. इतने बड़े स्तर पर लगातार हो रही रिकवरी कोई संयोग भर नहीं है. लेकिन अपरिहार्य खामियां भी बरकरार हैं.
यूरोप कर्ज में डूबा हुआ है और निर्यात पर निर्भर है. जापान मुद्रास्फीति पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा है. अमेरिका में वेतन में वृद्धि कॉरपोरेशन की कमाई और उनके मूल्य को बहुत जल्दी कम कर सकती है.
विकासशील अर्थव्यवस्थाओं, जिन्होंने हालिया मंदी के बाद के सालों में हुए विकास में सबसे अधिक योगदान दिया है, ने बेहतर दिन देखा है. ब्राजील और रूस की अर्थव्यवस्थाएं इस साल कुछ सिकुडेंगी. खराब व्यापारिक आंकड़े बता रहे हैं कि चीनी वृद्धि की दर में गिरावट हो सकती है. अगर इनमें से कोई भी चिंता ढलान का कारण बनती है, तो दुनिया की हालत खराब बुरी तरह खराब हो जायेगी.
शायद ही कभी इतिहास में ऐसा हुआ है कि संकट का सामना करने के लिए इतनी सारी अर्थव्यवस्थाओं की तैयारी इतनी लापरवाह और खराब है. वर्ष 2007 से धनी देशों के कर्जे और सकल घरेलू उत्पादन का अनुपात 50 फीसदी के करीब बढ़ चुका है. ब्रिटेन और स्पेन में कर्ज दुगुने से अधिक हो चुका है.
किसी को यह नहीं मालूम कि इसकी हद कहां तक है, लेकिन जो सरकारें पैसा उड़ाने में लगी हैं, उन्हें अस्थिर मतदाताओं और परेशान कजर्दाताओं को समझाना-बुझाना पड़ेगा. ¬णपत्रों तक बहुत कम पहुंच रखनेवाले देश, जैसे कि यूरो जोन के हाशिये के देश, कोई बड़ा वित्तीय संरक्षण नहीं दे सकेंगे.
मौद्रिक नीति तो बहुत ही उलझी हुई है. अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने आखिरी बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी 2006 में की थी.
बैंक ऑफ इंग्लैंड की आधार दर 0.5 फीसदी पर अटकी हुई है. सत्रहवीं सदी से लेकर 2009 तक यह दर कभी भी दो फीसदी से नीचे नहीं आयी थी और भावी मूल्यों के आधार पर आकलन है कि 2018 के शुरू में यह दर 1.5 फीसदी के आसपास ही रहेगी. यूरो जोन और जापान की तुलना में यह दर बेहतर है. वहां 2018 में इसके शून्य के आसपास अटके होने की उम्मीद है. जब केंद्रीय बैंक मंदी की स्थिति में होंगे, तो उन्हें संभलने के लिए जगह उपलब्ध नहीं होगी कि वे ब्याज दरों में कमी कर अर्थव्यवस्था को कुछ मजबूती दे सकें. ऐसी स्थिति में भावी ढलान और भी खतरनाक हो जायेगी.
सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय
सरकारें अपनी भूमिका अदा कर सकती हैं. अब भी शर्मनाक तरीके से इंफ्रास्ट्रक्चर में वृद्धि के लिए छोटे निवेश किये जा रहे हैं. धनी देशों के संगठन ओइसीडी ने सही ही ब्रिटेन के वित्त मंत्री को सार्वजनिक खर्च में कटौती के प्रस्ताव के लिए आलोचना की थी. कर्ज को नियंत्रित करने की नीति के रूप में वृद्धि कटौती से बेहतर है. सरकार को खुले बाजार और सरल श्रम कानूनों की ओर सुधारों का रुख तेज करना होगा.
(द इकोनॉमिस्ट के संपादकीय का अनूदित अंश )
वैश्विक आर्थिक महामंदी (1929-39) को जानिए
सबसे बड़ी और लंबी मंदी
पश्चिमी औद्योगिक जगत के इतिहास की सबसे गंभीर और दीर्घकालीन आर्थिक तबाही को महामंदी या ‘द ग्रेट डिप्रेशन’ की संज्ञा दी जाती है. करीब दस सालों तक चली इस मंदी कीअवधि 1929 से 1939 तक थी. अमेरिका में अक्तूबर, 1929 में स्टॉक मार्केट में भारी गिरावट के साथ इसकी शुरुआत मानी जाती है.
इस गिरावट से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के केंद्र वाल स्ट्रीट में अफरा-तफरी मच गयी और लाखों निवेशक बुरी तरह बरबाद हो गये. बाद के वर्षो में उपभोक्ता व्यय बहुत कम हो गया और निवेश लगभग बंद हो गया. इस कारण औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट आयी और तबाह कंपनियों द्वारा बड़ी संख्या में कामगारों की छंटनी से बेरोजगारी की दर आसमान छूने लगी. मंदी के असर का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1933 तक करीब 1.5 अमेरिकी बेरोजगार थे और देश के आधे बैंक दिवालिया हो चुके थे.
जो लोग रोजगार में थे, उनकी आय में भारी कटौती हुई थी और सक्रिय बैंकों का कारोबार बहुत धीमा और नुकसानदेह था. हालांकि, राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट द्वारा घोषित राहत और सुधार के उपायों से मंदी के असर में कुछ हद तक कमी आयी थी, पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से पटरी पर आकर मुनाफे में तब आयी, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण पैदा हुई वैश्विक मांग ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भारी फायदा पहुंचाया.
अक्तूबर, 1929 के वे दो दिन
उपभोक्ता वस्तुओं की मांग और सोने की बिक्री में कमी से उत्पादन पर पड़े नकारात्मक असर के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था 1929 की गर्मियों में आम मंदी के प्रभाव में आयी. लेकिन, उन्हीं दिनों स्टॉक मार्केट में शेयरों की कीमत लगातार बढ़ रही थी, जो कुछ महीनों में इतनी अधिक हो गयी थी कि उसे भविष्य के किसी मुनाफे की उम्मीद से तार्किक नहीं ठहराया जा सकता था.
बहरहाल, 24 अक्तूबर, 1929 को शेयरों की इस उछाल को भारी झटका लगा. निवेशकों ने थोक के भाव में अपने पैसे खींचने शुरू कर दिये थे. उस दिन 1.29 करोड़ शेयर बेचे गये थे, जो एक रिकॉर्ड था. इस दिन को ‘ब्लैक थर्सडे’ का नाम दिया जाता है. इसके पांच दिन बाद ‘ब्लैक ट्यूजडे’ को 1.6 करोड़ शेयर बेचे गये. लाखों शेयर रद्दी हो गये और कर्जे या उधारी पर जिन्होंने शेयर लिये थे, वे सड़क पर आ गये.
वर्ष 1932 तक शेयरों की औसत कीमत 1929 की कीमत की 20 फीसदी से भी कम रह गयी थी. अगले साल तक 25 हजार अमेरिकी बैंकों में 11 हजार बैंक पूरी तरह तबाह हो चुके थे. वर्ष 1932 में 1929 की तुलना में उत्पादन 54 फीसदी कम हो चुका था और बेरोजगारी की दर 25 से 30 फीसदी के आंकड़े तक पहुंच चुकी थी.
यूरोप में पसरी महामंदी
सोने की कीमत और प्रथम विशयुद्ध के करारों के आधार पर विभिन्न देशों की मुद्राएं जुड़ी हुई थीं. इस कारण अमेरिकी मंदी बहुत जल्दी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों, खासकर यूरोप, में फैल गयी. पहले महायुद्ध के बाद अमेरिका यूरोप का सबसे बड़ा देनदार और वित्त-पोषक बन गया था.
युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्था बरबाद हो गयी थी और वे अपनी बेहतरी के लिए अमेरिका पर निर्भर थे. जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था में गिरावट आयी और अमेरिकी निवेश यूरोप में कम हुआ, तो वहां भी गंभीर असर हुआ. इस मंदी की सबसे अधिक मार उन देशों पर पड़ी जो अमेरिकी कर्जे और सहयोग पर बुरी तरह से आश्रित थे. ये देश थे- ब्रिटेन और जर्मनी. जर्मनी में 1932 तक 60 लाख से अधिक लोग बेरोजगार हो चुके थे, जो वहां की कुल कार्यशक्ति का 25 फीसदी हिस्सा थे. ब्रिटेन पर अपेक्षाकृत कम असर हुआ, पर उसके औद्योगिक और निर्यात क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ा.
देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए आंतरिक उत्पादन को बढ़ाने की कोशिश की और आयात को नियंत्रित करने की कोशिश की. मंदी की शुरुआत से 1932 तक विश्व व्यापार में करीब 50 फीसदी की कमी आ चुकी थी. हालांकि दस वर्षो के बाद दुनिया मंदी की मार से उबर चुकी थी, परंतु अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों और राजनीतिक अस्थिरता पर इस परिघटना के दीर्घकालीन प्रभाव हुए, जिनका असर करीब एक सदी के बाद आज भी देखा जा सकता है.
महामंदी के नीतिगत प्रभाव
जानकारों के मुताबिक, महामंदी की जड़ में अमेरिकी अर्थव्यवस्था का असंतुलित होना था. यह असंतुलन 1920 के दशक के तेज बढ़त के मानसिकता और अधिक लाभ की उम्मीद में स्टॉक में खूब निवेश के शोर में छुप गया था. इस मंदी ने उन कमियों के साथ देश के राजनीतिक और वित्तीय संस्थाओं की कमजोरी को भी उजागर किया, जो मंदी के कारणों और कारकों पर लगाम लगाने में अक्षम साबित हुए थे.
महामंदी से पहले सरकार ने व्यापार के उतार-चढ़ावों पर पारंपरिक रूप से बहुत कम या न के बराबर रुचि लेते हुए अर्थव्यवस्था को मुक्त बाजार के जिम्मे सौंप दिया था. लेकिन बाजार मंदी के शुरुआती वर्षो में पटरी पर आने की अपनी कोशिशों में असफल साबित हुआ और अंतत: सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा था.
इस मंदी ने सरकार को कराधान, सामाजिक व्यय और बीमा, कल्याणकारी योजनाएं, औद्योगिक नियमन आदि के क्षेत्र में अधिक हस्तक्षेप और नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त किया. इसे ही आज कल्याणकारी राज्य की संज्ञा दी जाती है.
वैश्विक महामंदी के राजनीतिक प्रभाव
अंतरराष्ट्रीय मंदी के महत्वपूर्ण राजनीतिक परिणाम हुए थे. द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करने में इस संकट की बड़ी भूमिका रही थी. जर्मनी और जापान में सैन्यवादी अतिवादी सरकारें सत्ता में आयीं, जिन्होंने दुनिया को युद्ध में धकेल दिया था. अमेरिका और ब्रिटेन में लोक-कल्याणकारी व्यवस्थाएं स्थापित हुईं, जिन्होंने युद्धोपरांत अर्थव्यवस्थाओं की निगरानी की. इन नीतियों ने रोजगार योजनाएं शुरू कीं और कृषि तथा उद्योग को सहयोग दिया और उन्हें नियंत्रित किया.
हालांकि, अमेरिकी सरकार की कोशिशों से अर्थव्यवस्था को खास मदद नहीं मिली और 1939 में आय का स्तर 1929 के स्तर से अधिक नहीं था, परंतु इन नीतियों से जरूरतमंदों को राहत मिली. अमेरिका अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक लाभ द्वितीय विश्व युद्ध में हथियारों व अन्य सामानों की वैश्विक मांग के कारण हुआ और वह आर्थिक महाशक्ति बन गया.

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