वसीयतों को 150 साल से है ‘वारिस’ का इंतजार

1860 से लेकर 2011 तक की वसीयतों को रखा गया है हिफाजत से अनुपम कुमारी, पटना ख्वाहिशें कुछ पाने की, तो कुछ देने की. कुछ जीते जी पूरी करने की, तो कुछ मरने के बाद. कुछ ऐसी ही ख्वाहिशें निबंधन कार्यालय में 150 सालों से लिफाफे में बंद हैं, जो अब तक हकीकत में नहीं […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 21, 2015 5:28 AM

1860 से लेकर 2011 तक की वसीयतों को रखा गया है हिफाजत से

अनुपम कुमारी, पटना

ख्वाहिशें कुछ पाने की, तो कुछ देने की. कुछ जीते जी पूरी करने की, तो कुछ मरने के बाद. कुछ ऐसी ही ख्वाहिशें निबंधन कार्यालय में 150 सालों से लिफाफे में बंद हैं, जो अब तक हकीकत में नहीं बदल पायी हैं. 50 से भी अधिक ऐसी वसीयतें हैं, जिन्हें वारिस का इंतजार है, पर शायद यह इंतजार अनंत है. क्योंकि, डेढ़ सौ साल पुरानी वसीयतें सुरक्षित तो रखी जा सकती हैं, पर उनके वारिस को नहीं. यही वजह है कि आज भी ख्वाहिशें लिफाफे में बंद पड़ी हैं.

सीलबंद लिफाफे में हैं बंद : भारतीय अधिनियम 16-1908 धारा 42 के तहत सील बंद लिफाफे में वर्ष 1860 से अब तक की 50 से भी अधिक वसीयतें पड़ी हैं. इन वसीयतों को करनेवाले की जानकारी तो है, लेकिन जिनके नाम की लिखी गयी हैं, उनकी कोई जानकारी नहीं है. इससे लगभग 150 साल पुरानी इन वसीयतों को उनका सही हकदार नहीं मिल सका है. इन वसीयतों में क्या लिखा है, किसके नाम लिखी गयी है. कितनी प्रॉपर्टी हैं, ऐसी कई अनकही-अनसुलझी बातें लिफाफे में बंद पड़ी हैं.

क्या है गुप्त वसीयत : इसे लिखनेवाले के अलावा वही व्यक्ति पढ़ सकता है, जिसके लिए लिखा गया हो. इस गुप्त वसीयत की जानकारी न तो रजिस्ट्रार को होती है और न ही कलक्टर को. वसीयत का असली हकदार वही होगा, जिसके नाम से वसीयत की गयी है. वसीयत करनेवाले की मृत्यु के बाद उसके वारिस, जो कि पूरी तरह से आश्वस्त हैं, वे ही क्लेम कर सकते हैं. वारिस के क्लेम करने के बाद कलक्टर व रजिस्ट्रार के बीच वसीयत खोली जाती है. वसीयत में क्लेम करनेवाले वारिस का नाम नहीं रहने पर सारी कागजी कार्रवाई पूरी होने के बाद भी उसे नहीं सौंपी जा सकती है.

फाइलें वही, बदलता रहा प्रभार

इन वसीयतों को बुक फाइव के नाम से जाना जाता है. इनका प्रभार डीएम को दिया जाता है. जिला निबंधक के रूप में उन्हें प्रभार सौंपा जाता है. यह सिलसिला वर्ष 1932 से अब तक जारी है. वसीयतों के प्रभारी तो बदलते जा रहे हैं, लेकिन वारिस का इंतजार कभी खत्म नहीं हो रहा है.

मुगलकालीन वसीयतें भी हैं शामिल

आजादी के पूर्व ही नहीं, बल्कि मुगल काल के लोगों द्वारा की गयीं वसीयतें अब निबंधन कार्यालय में ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सुरक्षित हैं, ताकि इसकी सुरक्षा हो सके. इसके लिए इसे डबल लॉक सिस्टम में रखा जाता है. इन महत्वपूर्ण वसीयतों के वारिसों को भी मालूम नहीं कि उनके पूर्वज उनके लिए कुछ छोड़ गये हैं. इनमें 1860 से 1864, 1920, 1940, 1950, 1999 से लेकर 2011 तक 50 से भी कई वसीयतों की सुरक्षा धरोहरों के रूप में की जा रही है.

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