दंगों की रिपोर्ट पर तीस साल बाद भी पाबंदी

दलजीत अमी बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क़त्ल के बाद हुए दंगों को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कई सवालों के साथ जोड़कर देखा जाता है. यह बहस भी मायने रखती है कि सिखों के क़त्ल को दंगा कहा जाए या क़त्लेआम, पर इनके बारे में सबसे अहम मानी जाने […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 31, 2014 1:03 PM
दंगों की रिपोर्ट पर तीस साल बाद भी पाबंदी 5

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क़त्ल के बाद हुए दंगों को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कई सवालों के साथ जोड़कर देखा जाता है.

यह बहस भी मायने रखती है कि सिखों के क़त्ल को दंगा कहा जाए या क़त्लेआम, पर इनके बारे में सबसे अहम मानी जाने वाली रिपोर्ट पर तीस साल बाद भी पाबंदी लगी हुई है.

मानवीय अधिकार संगठनों, पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स और पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने ‘हु आर द गिल्टी?’ के नाम से रिपोर्ट छापी थी.

अहम रिपोर्ट

यह रिपोर्ट 11 नवंबर 1984 को जारी की गई और दो फ़रवरी 1985 को इस पर पंजाब सरकार ने पाबंदी लगा दी.

इंदिरा गांधी के क़त्ल के बाद की हिंसा के बारे में हुई हर जांच और हर कमीशन में यह रिपोर्ट अहम मानी गई है.

मानवीय अधिकार संगठनों के दस्तावेज में इसका हवाला महत्वपूर्ण है.

दंगों की रिपोर्ट पर तीस साल बाद भी पाबंदी 6

अंग्रेज़ी के बाद जम्हूरी अधिकार सभा पंजाब ने इसे पंजाबी में ‘दोषी कौन?" के नाम से छापा था.

सभा के जनरल सेक्रेटरी प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह बताते हैं, "पंजाब में सांप्रदायिक तनाव को कम करने और किसी तरह की हिंसा की संभावना को कम करने के उद्देश्य से इस रिपोर्ट को पंजाबी में छापना ज़रूरी समझा गया था."

‘नफ़रत फैलाने वाला’

दंगों की रिपोर्ट पर तीस साल बाद भी पाबंदी 7

उनका कहना है,"इस रिपोर्ट में दिल्ली में हिंसा के लिए ज़िम्मेदार लोगों के बारे में तफ्सील थी तो सिख बिरादरी की मदद करने वाले दूसरे धर्मों के लोगों का भी नाम था."

इस रिपोर्ट पर दो फ़रवरी 1985 को पाबंदी लगाई गई. इसके बाद 12 फ़रवरी को जारी अधिसूचना में कहा गया कि यह रिपोर्ट दो धर्मों के लोगों के बीच ‘नफरत फ़ैलाने’ और ‘दुश्मनी पैदा’ करने का काम कर सकती है.

इसलिए इसपर ‘दफ़ा 124-ए और 153-ए’ के तहत पाबंदी लगाई जाती है.

प्रो जगमोहन का कहना है, "यह पाबंदी ग़ैर-लोकतांत्रिक है. इसे हमने तभी चुनौती दी थी. सरकार ने न पाबंदी हटाई और न हमारे ख़िलाफ़ कार्रवाई की. पर यह पाबंदी हटाई जानी चाहिए."

सरकार की मंशा

रष्ट्रपति शासन में लगी इस पाबंदी में इस रिपोर्ट को किसी और भाषा में अनुवाद करने पर भी रोक है.

दंगों की रिपोर्ट पर तीस साल बाद भी पाबंदी 8

पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के कार्यकर्ता गौतम नवलखा इस पाबंदी को ‘बेतुका’ बताते हुए कहते हैं, "यह सरकार की मंशा को दिखाता है. लगातार नफरत फ़ैलाने वाले संगठन सक्रिय हैं और जिस रिपोर्ट को हर सरकारी कमीशन महत्वपूर्ण मान चुका है उस पर पाबंदी लगी हुई है."

पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के पंजाब के प्रवक्ता अर्जुन शेरोन का कहना है,"साम्प्रदायिक हिंसा का इतिहास नाइंसाफ़ी का रहा है. यह पाबंदी भी इसी नाइंसाफ़ी की कड़ी है."

इस मसले पर पंजाब सरकार के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की गई, लेकिन कोई भी बात करने को तैयार नहीं हुआ.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

Next Article

Exit mobile version