चुनावी ख़बरें या खबरों की नीलामी?

ज़ुबैर अहमद बीबीसी संवाददाता पेड न्यूज़ या ऐसी खबरें जो हक़ीकत में विज्ञापन होती हैं, लंबे समय से चिंता का कारण बनी हुई हैं. माना जाता है कि खबरें असर पैदा करती हैं. लोग क्या सोचते हैं और खबर पढ़ने के बाद लोग क्या सोचेंगे? इन दो स्थितियों के बीच की खाली जगह में खबरों […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 22, 2014 4:40 PM
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पेड न्यूज़ या ऐसी खबरें जो हक़ीकत में विज्ञापन होती हैं, लंबे समय से चिंता का कारण बनी हुई हैं.

माना जाता है कि खबरें असर पैदा करती हैं. लोग क्या सोचते हैं और खबर पढ़ने के बाद लोग क्या सोचेंगे?

इन दो स्थितियों के बीच की खाली जगह में खबरों की भूमिका बढ़ जाती है लेकिन अगर ये खबरें पैसे लेकर बेची जा रही हों तो…

ज़ुबैर अहमद का ब्लॉग

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उस उम्मीदवार को मैं पहले से जानता था और उम्मीद कर रहा था कि मेरे फ़ोन करने पर वो ख़ुश होंगे.

लेकिन जब उन्होंने मेरी आवाज़ सुनने के बाद ठंडी सी प्रतिक्रिया दी तो मेरी हैरानी का अंत न रहा.

मैं विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग करने के लिए महाराष्ट्र गया था. न तो चुनाव मेरे लिए कोई नई चीज़ थी और न ही राजनीतिक व्यक्तियों से फ़ोन पर बात करना.

पर ये मेरी समझ से परे था कि आख़िर वो उम्मीदवार मुझसे बात क्यों नहीं करना चाह रहे थे.

फिर मैंने कुछ दूसरे उम्मीदवारों को फ़ोन किया पर वो भी बात करने से कतरा रहे थे.

चर्चा

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अपनी समस्या मैंने एक स्थानीय पत्रकार के सामने रखी तो वो ज़ोर से हँसने लगे और कहा कि जो उम्मीदवार फोन नहीं उठा रहे थे वे डर रहे होंगे कि मैं उनकी कवरेज करने के लिए पैसे न मांग लूं.

मैं इससे काफी हैरान हुआ. मैंने एक साल पहले तक लगातार नौ साल मुंबई में रहकर महाराष्ट्र पर रिपोर्टिंग की थी और पिछले दो विधानसभा चुनावों को भी कवर किया था.

लेकिन पत्रकारों और मीडिया कंपनियों द्वारा पैसे लेकर रिपोर्टिंग करने वाली बात नहीं सुनी थी. इस बात पर मैं हैरान था कि पिछले एक साल में इतना कुछ बदल गया था.

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पेड न्यूज़ पहले से अधिक प्रचलित हो गया था और इसका इस्तेमाल कई चैनल और अख़बार कर रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो चुनावी अभियान की रिपोर्टिंग की बोली लग रही हो.

आज़ाद और निष्पक्ष पत्रकारिता का गला घोंटा जा रहा था और इस बारे में कोई चर्चा भी नहीं हो रही थी.

हाँ, ये पहले से चला आ रहा है लेकिन मेरे पत्रकार मित्र ने कहा इस बार ये खुले आम हो रहा है. उसने कहा अलग-अलग पैकेज के अलग-अलग चैनल अलग-अलग पैसे मांग रहे थे.

‘पैकेज’

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मेरे मित्र ने बताया, "एक बड़े चैनल को एक उम्मीदवार को एक हफ्ते तक उसकी चुनावी मुहिम को कवर करने के लिए दस लाख रुपए तक मिल रहे हैं. एक छोटा अख़बार इसी कवरेज के दो लाख रुपए ले रहा है."

उसने कहा उसे एक उम्मीदवार ने खुद फोन करके कहा कि वो मीडिया में कवरेज के लिए किसी चैनल से बात करे और पैसे की चिंता न करे.

मैंने पूछा तुम भी इस काम के पैसे लोगे? उसने कहा क्यों नहीं! "मैं एक पेशेवर फ्रीलांस पत्रकार हूँ. मैं कंसल्टेंसी की फीस ले रहा हूँ."

इस पूरे मामले की पुष्टि एक उम्मीदवार ने भी की और कहा खुद उसने एक चैनल और एक अख़बार से चुनावी अभियान के लिए पैकेज खरीदे हैं.

आयोग की चिंता

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मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि पेड न्यूज़ और प्रमोशनल न्यूज़ महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों के दौरान उनके लिए चिंता के विषय थे.

मुझे इस बात पर हैरानी हुई कि चुनाव आयोग को इस बारे में कुछ मालूम क्यों नहीं.

कुछ दिन पहले मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत के उस बयान को पढ़ कर इत्मीनान हुआ जिसमें उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान पेड न्यूज़ और प्रमोशनल न्यूज़ पर चिंता जताई है.

उन्होंने एनडीटीवी को बताया कि चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ और प्रमोशनल न्यूज़ सबसे बड़ी चिंता का विषय थे.

उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि चुनाव के दौरान काला धन बाँटा जा रहा था.

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