सी-सैट विवाद:भाषाई रंगभेद जिसे दुनिया ना माने,पढ़ें,योगेंद्र यादव का विशेष आलेख

।। योगेंद्र यादव ।। विरोध अंगरेजी की मुखालफत में नहीं दुनिया में दो तरह की विषमता होती है. पहली को आप खुली आंख से देख सकते हैं, उसे पकड़ सकते हैं, उससे जूझ सकते हैं. एक दूसरी तरह की विषमता होती है, जो खुली आंखों से नहीं दिखाई देती. उसे चश्मे से नहीं देखा जा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 5, 2014 4:46 AM

।। योगेंद्र यादव ।।

विरोध अंगरेजी की मुखालफत में नहीं

दुनिया में दो तरह की विषमता होती है. पहली को आप खुली आंख से देख सकते हैं, उसे पकड़ सकते हैं, उससे जूझ सकते हैं. एक दूसरी तरह की विषमता होती है, जो खुली आंखों से नहीं दिखाई देती. उसे चश्मे से नहीं देखा जा सकता.

वह आपकी चमड़ी के अंदर घुस जाती है. जब आपको अपनी महिला सहयोगी के साथ बात करते हुए यह महसूस होता है कि वह आपको आंख के कोने से देख रही है, कि यह पुरु ष है, पता नहीं मेरे साथ क्या कर देगा. उसी क्षण आपका संबंध बदल जाता है. ऐसा नहीं कि उसने इसके लिए कोई रणनीति बनायी है या उसके मन में कोई पूर्वाग्रह है. बस उसकी आंख आपको जिस आशंका से देखती है, उसमें कहीं दुनिया बदल जाती है. मैं समझता हूं रंगभेद के साथ कुछ ऐसा ही होता है.

दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में इस पर बहुत बात की जाती थी कभी. हम भारतीय गर्व से कहते थे कि देखो! हमारे यहां रंगभेद नहीं है. लेकिन, इसके ठीक उलट हमारे यहां एक गहरा भाषा-भेद है, जो विषमता को व्यक्त करता है. हम भाषाई-विभेद की दुनिया में जीते हैं और यह भाषाई विभेद हमें खुली आंखों से नहीं दिखाई देता.

‘तीस दिन में अंगरेजी बोलना सीखिए’ सरीखे विज्ञापन, कुकुरमुत्ते की तरह दिनानुदिन उगते अंगरेजी मीडियम के स्कूल, गप-गोष्ठियों से लेकर सभा-सेमिनारों तक में एक-दूसरे को अपनी लंगड़ी अंगरेजी से प्रभावित करने की कोशिश में लगे लोग, बच्चों को अंगरेजी में तुतलाने और फिर उनके साथ खुद भी अंगरेजी में तुतलाते मां-बाप..यह दृश्य हमारे लिए कितना जाना-पहचाना है.

हम इसे रोजाना ओढ़ते-बिछाते हैं, तो भी इसे भाषाई गैर-बराबरी का नाम देने से कतराते हैं. भारतीय भाषाओं को हीन समझा जाता है, और इसी तर्कसे उन लोगों को भी हीन माना जाता है, जो इन भाषाओं में लिखते-पढते और बोलते हैं. यूपीएससी की सिविल सर्विस परीक्षा के सीसैट परचे को लेकर उठे विवाद के मूल में भी यही बात है.

विरोध एप्टीट्यूड टेस्ट को लेकर कतई नहीं है, हालांकि सीसैट के विरोधियों में से कुछ की बातों से ऐसा लग सकता है. किसी नौकरी के लिए कोई उम्मीदवार कितना उपयुक्त है- इसे जांचने के लिए पूरी दुनिया में एप्टीट्यूड टेस्ट का उपयोग एक मानक के रूप में किया जाता है. ठीक इसी तरह मानविकी बनाम विज्ञान के विवाद में कुछ दम तो है जरूर, लेकिन यह भी मुद्दे की मुख्य बात

नहीं है.

यह बात सच है कि जो छात्र इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई से जुड़े हैं वे बाकियों की तुलना में इधर कई सालों से सिविल सर्विस परीक्षा में अच्छा रिजल्ट ला रहे हैं. हो सकता है, ऐसे उम्मीदवार जिस तरह के परीक्षा पैटर्न से परिचित हैं वह सिविल सर्विस परीक्षा को पार करने के मामले में उनके लिए तनिक मददगार साबित होता हो. सीसैट को लेकर उमड़ा विरोध ना तो हिंदी की तरफदारी में है और ना ही अंगरेजी की मुखालफत में.

प्रदर्शनकारियों ने जोर-शोर से कहा है कि वे हिंदी की हिमायत में यह सब नहीं कर रहे बल्किउनका संघर्ष सभी भारतीय भाषाओं का पक्षधर है. प्रदर्शनकारियों ने बार-बार कहा है कि वे अंगरेजी के विरोध में नहीं हैं. अंगरेजी भाषा संबंधी योग्यता की जांच वाले परचे का वे विरोध नहीं कर रहे. अंगरेजी मीडिया यह बात समझ ही नहीं पा रहा कि हिंदी-हिमायती या फिर अंगरेजी-विरोधी हुए बगैर भी कोई भाषाई गैर-बराबरी के सवाल को उठा सकता है.

यह विरोध-प्रदर्शन अंगरेजी के खिलाफ नहीं बल्किअंगरेजी के दबदबे के खिलाफ है. राष्ट्र की सारी प्रतिभा अंगरेजीभाषी एक छोटे से समूह के अंदर ही विराजती है- यह विरोध-प्रदर्शन इस धारणा के खिलाफ है.

यह हिंदी की हिमायत का नहीं बल्किअंगरेजी के बरक्स बाकी भारतीय भाषाओं को होड़ के लिए बराबर की जमीन दिलाने की लड़ाई है.

बात यह है कि सीसैट बड़े चुप्पा ढंग से अंगरेजी को बेहतर बनाता है. एप्टीट्यूड टेस्ट के भीतर निश्चित ही भाषाई योग्यता-क्षमता की जांच होनी चाहिए लेकिन क्या इस बात का भी कोई तुक है कि भाषाई योग्यता-क्षमता की जांच सिर्फअंगरेजी भाषा में होनी चाहिए. सीसैट में फिलहाल यही व्यवस्था है.

यह बात बिल्कुल ही अलग है कि सीसैट में भाषाई योग्यता की जांच के लिए पूछी जानेवाली अंगरेजी दसवीं-बारहवीं के स्तर की होती है. यहां मुद्दे की बात यही है कि एप्टीट्यूड टेस्ट में भाषाई योग्यता की जांच के लिए किसी भारतीय भाषा पर विचार तक नहीं किया गया है. सीसैट के प्रश्नपत्र में प्रस्तुत अनुवाद को लेकर उठा हंगामा बेजा नहीं है. इससे साबित होता है कि एप्टीट्यूड की जांच भाषा-निरपेक्ष नहीं है. प्रदर्शनकारी ठीक ही नाराज हैं कि उनके साथ सिविल सेवा की परीक्षा में दोयम दरजे के परीक्षार्थी का बरताव किया जा रहा है.

आंकड़े इस आशंका को पुष्ट करते हैं. साल 2013 के पुख्ता आंकड़े अभी नहीं आये हैं, तो भी खबरों के मुताबिक सिविल सेवा परीक्षा में अंतिम रूप से चयनित कुल प्रतिभागियों में हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों की संख्या 2011 (इस साल सीसैट की परीक्षा शुरू हुई) के बाद से घट कर महज तीन प्रतिशत रह गयी है, जबकि साल 2009 में यह संख्या 25 प्रतिशत थी.

सीसैट का परचा या फिर सिविल सेवा परीक्षा तो एक बड़ी सच्चाई का सिरा भर है. उच्च शिक्षा की पूरी प्रणाली भारतीय भाषाओं को पढ़ाई और परीक्षा का माध्यम बना कर स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले विद्यार्थियों को विरोध में खड़ी है. देश में उच्च अध्ययन के नामी-गिरामी संस्थानों में प्रवेश के लिए उन्हें आनन-फानन में अंगरेजी अपनाना पड़ता है.

समाज विज्ञान और मानविकी के विषयों की पढ़ाई वाले छात्रों के लिए यह कोशिश कुछ इतनी कठिन साबित होती है कि बहुधा छात्र इस आजमाइश में ही नहीं पड़ते. यदि संस्थान एक या एक से अधिक भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की अनुमति देनेवाला हुआ तो भी हर कदम पर बाधाएं खड़ी मिलती हैं: पाठ्यक्र म और उनमें दर्ज जरूरी किताबें अंगरेजी में होती हैं, प्रश्नपत्र भले ही ‘ज्ञानी गूगल जी’ के सहारे अन्य भाषाओं में अनूदित करवा लिया जाय, लेकिन शायद ही कोई परीक्षक इन भारतीय भाषाओं का जानकार मिलता है.

भारतीय भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाने वाले छात्र अपेक्षाकृत कमतर माने जानेवाले संस्थानों में दाखिला ले पाते हैं या फिर बेहतर संस्थानों के भीतर कमतर दरजे के अकादमिक पद को हासिल कर पाते हैं. उन्हें हर वक्त धारा के विरु द्ध तैरना पड़ता है.

इसी वजह से मैं इस विरोध-प्रदर्शन को देख कर खुश हूं और इसे सलाम भेजता हूं. विरोध-प्रदर्शन अगर मुख्य मुद्दे से ना भटके, सिविल सेवा परीक्षा देने का एक और अतिरिक्त मौका जैसे फुसलावनों या फिर सत्ताधारी पार्टी और उसके एजेंटों के फांस-फंदों में ना उलझे, तो फिर यह विरोध-प्रदर्शन देसी भाषाओं के खिलाफ जारी रंगभेदी बरताव के असर को एक हद तक कम करने की दिशा में बढ़ा कदम साबित हो सकता है. और हां, एक बात यह भी कि ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते!

(लेखक आम आदमी पार्टी के राजनीतिक मामलों की शीर्ष समिति के सदस्य हैं और फिलहाल विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) से छुट्टी पर हैं.)

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