स्त्री-संघर्ष और आवाजें

एक सीमित अंतराल पर मधु कांकरिया उपन्यास लिखती रही हैं. सन् 2000 में उनका पहला उपन्यास ‘खुले गगन के लाल सितारे’ आया था. ‘सेज पर संस्कृत’ और ‘सूखते चिनार’ के बाद उनका छठा उपन्यास ‘हम यहां थे’ किताबघर प्रकाशन से आया. मशहूर कविता पंक्तियों के उपशीर्षकों से सजा यह उपन्यास डायरी के शिल्प में है. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 13, 2019 6:24 AM

एक सीमित अंतराल पर मधु कांकरिया उपन्यास लिखती रही हैं. सन् 2000 में उनका पहला उपन्यास ‘खुले गगन के लाल सितारे’ आया था. ‘सेज पर संस्कृत’ और ‘सूखते चिनार’ के बाद उनका छठा उपन्यास ‘हम यहां थे’ किताबघर प्रकाशन से आया. मशहूर कविता पंक्तियों के उपशीर्षकों से सजा यह उपन्यास डायरी के शिल्प में है. उपन्यास की नायिका दीपशिखा है और वह एक साथ ही करुणा, प्रतिरोध, संघर्ष, स्वप्न, संकल्प और समर्पण की प्रतिमूर्ति बना दी गयी है.

‘दीपशिखा की डायरी : अपने-अपने जंगल’ से ‘ओ जिंदगी! ओ प्राण!’ तक के उपशीर्षकों में मधु कांकरिया ने दीपशिखा के बहाने कोलकाता के मारवाड़ियों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक हालातों का वर्णन करती हैं. लेकिन, अलका सरावगी और शर्मिला जालान की रचनाओं में मारवाड़ियों का सहज और स्वाभाविक जीवन जिस प्रामाणिकता के साथ उपस्थित होता है, वह इस उपन्यास में अनुपस्थित है.

उपन्यास के उत्तरार्द्ध में नायक जंगल कुमार की नजर से दीपशिखा के जीवन को पूर्णता देने की कोशिश की गयी है. ‘एक मुझमें रागिनी है/ जो तुमसे जागिनी है’ में दीपशिखा के सौंदर्य का ऐंद्रिय वर्णन है, जहां जंगल कुमार हैं और वह पूर्णता के अहसास से भर जाती है. जब उसे कैदी नंबर 989 के रूप में जंगल कुमार पाते हैं, तो वह अफसोस नहीं करती. वह कहती है- ‘अभी सब खत्म नहीं हुआ है जंगल कुमार. अंजलि में अमृत अभी भी बचा हुआ है.’

दीपशिखा पति परित्यक्ता है, लेकिन उपन्यास में पति की विशेष चर्चा नहीं मिलती. वह उपन्यास के शुरू में ही अपने बच्चे के साथ घर लौट आती है. सामाजिक रूढ़ियों से ग्रस्त मां के साथ लगातार संघर्ष करती दीपशिखा बड़े भाई के सहयोग से कंप्यूटर की पढ़ाई ही नहीं करती, बल्कि बड़े भाई के दोस्त की कंपनी में काम करना शुरू करती है. और वहीं कोलकाता से बिशुनपुर पहुंच जाती है दीपशिखा.

उपन्यास की खासियत यह भी है कि दीपशिखा में घर की स्त्री के निजी संघर्षों को जनसंघर्ष तक ले जाने की विचारमय यात्रा का प्रमाण है. इस दीर्घ यात्रा में लगे पंद्रह-बीस वर्षों के बीच घटी घटनाओं से भी पाठक परिचित होता चलता है. उपन्यास ‘हम यहां थे’ के बहाने मधु कांकरिया अपने सामाजिक-राजनीतिक सचेतनता का भी प्रमाण देती हैं.

– मनोज मोहन

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