लीची की भारत यात्रा

इंडियन स्वाद लीची का नाम सुनते ही जहां मुंह में रसभरे स्वाद का एहसास भर जाता है, वहीं मुजफ्फरपुर का नाम भी जेहन में कौंध जाता है. कहने को तो मुजफ्फरपुर की लीची बहुत मशहूर है, लेकिन पहले-पहल भारत में यह चीन से आया था. कुछ रोचक तथ्यों के साथ लीची के बारे में बता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 20, 2018 2:33 AM

इंडियन स्वाद

लीची का नाम सुनते ही जहां मुंह में रसभरे स्वाद का एहसास भर जाता है, वहीं मुजफ्फरपुर का नाम भी जेहन में कौंध जाता है. कहने को तो मुजफ्फरपुर की लीची बहुत मशहूर है, लेकिन पहले-पहल भारत में यह चीन से आया था. कुछ रोचक तथ्यों के साथ लीची के बारे में बता रहे हैं खान-पान और व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत…
जिसरसीले, खुशबूदार फल को हम लीची कहकर पुचकारते हैं, वह वास्तव में सदियों पहले चीन से यहां पहुंचा है मशहूर बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के साथ, जो कई बरस नालंदा विश्वविद्यालय में छात्र रहे थे. माना जाता रहा है कि सबसे बढ़िया किस्म की लीची बिहार में मुजफ्फरपुर के बागानों की सौगात है. इनका कंटीला छिलका आसानी से उतारा जा सकता है और भीतर वाली गुठली भी बहुत पतली- नाम मात्र की ही होती है. सुगंध और मिठास के तो कहने ही क्या! मेरा बचपन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके में बीता, जहां से मुजफ्फरपुर बहुत दूर है. वहां जो लीची पहुंचती थी, देहरादून से लायी जाती थी,
जहां फौंसेका नामक एक एंग्लो-इंडियन साहब के बाग थे. उनका दावा था कि चूंकि उनके पेड़ों के बीज मुजफ्फरपुर से लाये गये थे और फल की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए कलम भी वहीं के कुशल बागबान लगाते थे, अतः इस बाग की पैदावार को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए. सबसे महंगी और लोकप्रिय प्रजाति गुलाबजल की याद दिलाती ‘रोज लीची’ थी. बाद के बरसों में कई जगह लीची खाने का मौका मिला, पर वैसा रसास्वाद नहीं हुआ. हां, साल भर पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ानेवाले हमारे मित्र मलय नीरव ने हमें अपने मुजफ्फरपुर वाले बाग की सौगात भेजी, जिसने पुरानी यादें ताजा करा दीं.
बेशुमार नगरीकरण के कारण बागानों की जमीन सिकुड़ती जा रही है और देहरादून की बासमती, रत्नागिरी के हापुज और हिमाचली सेबों की तरह सबसे अच्छी फसल निर्यात के लिए ही आरक्षित रहती है. बहरहाल!
लीची का मौसम चेरी, शहतूत और जामुन-फालसे की तरह बहुत छोटा होता है, अतः इसका आनंद लेने की मोहलत दो-चार घड़ी होती है. याद रहे, ‘उम्र छोटी ही सही यह उम्र बड़ी होती है!’ शुरू में हर फल महंगा होता है और पहले-पहल बाजार में पहुंचनेवाला फल स्वादिष्ट भी अधिक नहीं होता. अतः और भी ज्यादा सतर्क रहने की दरकार होती है.
लीची के अधिकांश शौकीन टिन में बंद पहले से छिली, गुठली निकाली हुई लीची से संतुष्ट हो लेते हैं. पर ढेरों ठंडी की लिची को खुद छीलकर निबटाने का मजा ही कुछ और है. नयी पीढ़ी लीची के शरबत, आइस्क्रीम आदि से ही परिचित है. चीन में भोजनोपरांत अवश्य लीची को वनीला आइस्क्रीम के साथ परोसने का रिवाज है.
प्रयोगप्रेमी हमारे एक बावर्ची मित्र मीराज उल हक ने एक ‘लीची कबाब’ ईजाद कर हमारा दिल जीत लिया. उस समय वह रैडिसन होटल में हैरिटेज शैफ के रूप में काम कर रहे थे. वास्तव में यह मिठाई का लुकमा था. लीची के ऊपरी भाग के छिलके को तेज चाकू से सावधानी से काटने के बाद फल के ऊपरी हिस्से को नजाकत के साथ अलग किया गया था. फिर गुठली को निकाल खाली जगह पर छेना, हरी इलायची के दाने और चिलगोजे तथा पिस्ते की हवाइयां भरे गये थे. कलाकारी यह थी कि इन खाद्य पदार्थों से निर्मित कृत्रिम गुठली के ऊपर फिर से छिलके की ताजपोशी होती थी. देखने में फल बिल्कुल ताजा अनछुआ नजर आता था!
लीची कबाब ने हमें यह सोचने को मजबूर किया कि यह बहस कितनी बेमतलब है कि कौन चीज भारत की मूल संतान है और कौन विदेशी. मध्य एशियाई पिलाफ का कायाकल्प भारत में एक किस्म के नायाब पुलाव और बिरयानी में हुआ और यही देखने को मिलता है तुर्कों और अफगान कबाबों के गलौटी अवतार में. लीची यह भी याद दिलाती है कि बाद की सदियों में भी जाने कितने फलों की कलमकारी मुगल बादशाहों-शाहजादों की प्रेरणा-प्रोत्साहन से हुई.
बिहार में मुजफ्फरपुर के बागानों की लीची का कंटीला छिलका आसानी से उतारा जा सकता है और भीतर वाली गुठली भी बहुत पतली- नाम मात्र की ही होती है.
रोचक तथ्य
लीची का मौसम चेरी, शहतूत और जामुन-फालसे की तरह बहुत छोटा होता है, अतः इसका आनंद लेने की मोहलत दो-चार घड़ी होती है.
चीन में भोजनोपरांत अवश्य लीची को वनीला आइस्क्रीम के साथ परोसने का एक रिवाज है.
लीची कबाब ने हमें यह सोचने को मजबूर किया कि यह बहस कितनी बेमतलब है कि कौन चीज भारत की मूल संतान है और कौन विदेशी.
प्रयोगप्रेमी हमारे एक बावर्ची मित्र मीराज उल हक ने एक ‘लीची कबाब’ ईजाद कर हमारा दिल जीत लिया.
पुष्पेश पंत

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