प्रकृति क्या हमारा साथ छोड़ रही है- यह आज का सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए. पिछले एक दशक से जैसे परिवर्तन पारिस्थितिकी में हुए हैं, वे यही संकेत कर रहे हैं कि प्रकृति हमसे नाखुश है. पिछले 100 सालों में हमने जिस तरह से विकास के मापदंड तय किये और हम जिस हद तक प्रकृति को नकारते चले गये, यह उसी का परिणाम है. जीवन के लिए संकट बनती घटनाओं का भी हमने कभी भी गंभीरता से संज्ञान में नहीं लिया. अनियोजित विकास व ऊर्जा की भारी खपत संकटों का बहुत बड़ा स्रोत बनी. जब जेम्स वाट ने कोयले के इंजन का आविष्कार किया था, तो उन्हें भी शायद पता नहीं था कि यह काला सोना गला घोटने वाला साबित होगा. आज विश्व की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा इसी पर केंद्रित है कि किस तरह से हम कोयले से उत्पन्न कार्बन और अन्य गैसों से मुक्त हो सकते हैं? हमने प्रकृति के तमाम संसाधनों पर एकतरफा आक्रमण करना शुरू कर दिया. आज हालत यह है कि पारिस्थितिकी के महत्वपूर्ण अवयव धीरे-धीरे गायब होने शुरू हो गये, चाहे नदियां हों, वन हों या मिट्टी हो. सबसे बड़ी बात इनकी भरपाई के लिए उतने गंभीर प्रयास नहीं हुए, जितना कि विकास के लिए इन्हें तबाह करने में. एक किलोमीटर वर्ग का वन अगर 200 टन कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता हो, तो सोचिए हर वर्ष दुनिया के हर कोने में वनों का पतन निश्चित रूप से कार्बन या अन्य गैसों को बढ़ाने में वैसे ही विपरीत भूमिका भी निभा रहा होगा. ज्यादातर नदियां जब सूखने के कगार पर हैं, खास तौर से इसलिए कि वनों की कटाई के कारण वर्षा जल सोखने की प्रक्रिया बाधित हुई. अब तो धीरे-धीरे वर्षा जनित नदियां भी हमारा साथ छोड़ना शुरू कर चुकी हैं. वर्तमान में ही देख लीजिए कि पूरा उत्तर भारत शीतकालीन वर्षा से पूरी तरह वंचित रहा. इसका बड़ा असर खेती पर पड़ रहा है. ऐसी कमी से भूजल स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ेगा ही, साथ में आने वाले समय में वनों में आग लगने के रास्ते भी बड़े स्तर पर खुल जायेंगे. इसका व्यापक असर पारिस्थितिकी तंत्र पर तो पड़ेगा ही, आने वाली गर्मी भी बहुत अधिक होगी. यह भी तय है कि जब गर्मी ज्यादा पड़ेगी, तो उसका एक सीधा असर वायु प्रदूषण पर भी पड़ेगा. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 2020 में पांच लाख लोग वायु प्रदूषण से खत्म हो गये, जिनमें ढाई लाख से ज्यादा बच्चे थे. हमने जीवन को बेहतर करने के लिए हर तरह की कोशिशें कीं, पर प्रकृति की ही चिंता नहीं की. अगर हम स्थानीय से लेकर विश्व स्तर तक कुछ रणनीति तैयार करते, तो शायद स्थिति बेहतर होती. अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में सारी लड़ाई अपने-अपने विकास पर केंद्रित होती है. ऐसे में हमारे पास यही विकल्प बचता है कि हम स्थानीय स्तर पर संकट की गंभीरता को समझें.
संबंधित खबर
और खबरें