शोर्य गाथा: 1948 की लड़ाई में शहीद हो गए थे शंकर हेंब्रम, शौर्य चक्र से किया गया था सम्मानित

स्वतंत्रता के ठीक बाद देश के कई हिस्सों में हिंसा हो रही थी. उधर कश्मीर पर कब्जा करने की नियत से हमले हो रहे थे. गुजरात का तटीय इलाका भी शांत नहीं था. इस इलाके में दुश्मनों का सामना सेना कर रही थी. इस टीम में झारखंड के शंकर हेंब्रम भी थे.

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 18, 2022 2:05 PM

Shaurya Ghata: स्वतंत्रता के ठीक बाद देश के कई हिस्सों में हिंसा हो रही थी. उधर कश्मीर पर कब्जा करने की नीयत से हमले हो रहे थे. गुजरात का तटीय इलाका भी शांत नहीं था. इस इलाके में दुश्मनों का सामना सेना कर रही थी. इस टीम में झारखंड के शंकर हेंब्रम भी थे. उस समय उनकी उम्र 24-25 की होगी. उम्र उनकी भले ही कम थी, मगर इरादे चट्टान की तरह थे. 12 जून 1948 का दिन था. शंकर दुश्मनों के साथ संघर्ष कर रहे थे. इस संघर्ष में दोनों ओर से लोग मारे जा रहे थे. फिर शंकर हेंब्रम का कोई अता-पता नहीं चला. उनका शव भी नहीं मिला लेकिन सेना ने यह मान लिया कि दुश्मनों के साथ हुई लड़ाई में वे शहीद हो गये. उन्हें मरणोपरांत शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया. वे अविवाहित थे.

छुरीबादा का शेर थे शंकर हेंब्रम

11 जून 1923 को झारखंड (तत्कालीन बिहार) के दुमका प्रांत के छुरीबादा गांव में शंकर हेंब्रम का जन्म हुआ था. उनके छोटे परिवार में उनके पिता गोपाल हेंब्रम और माता जितनी सोरेन के अलावा उनसे दो वर्ष बड़े भाई जगु हेंब्रम थे. घर की आर्थिक स्थिति और गांव का माहौल शंकर को बड़े होकर उनके पिता की तरह उन्हें भी खेतों में हल और बैल का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करता था. इसी के प्रशिक्षण के लिए बचपन से ही वह अपने पिता के साथ अक्सर खेतों में जाया करते थे. पांव उनके भले ही जमीन पर रहते हों, मगर नजरें हमेशा आकाश पर टिकी रहती थी. शायद उनकी अंतरआत्मा की यह आवाज थी कि उनकी असिमित शारीरिक बल, विलक्षण दिमाग और अदम्य साहस का सही उपयोग खेत में नहीं, बल्कि लड़ाई के मैदान पर हो सकता है. शायद इसलिए बचपन से ही खाकी वर्दी और उस पर लगे सितारे उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया करते थे. इस वर्दी को पहनने के योग्य बनने के लिए वह गांव के मैदानों में घंटों नंगे पांव दौड़ा करते थे.

फौज की बहाली प्रक्रिया के अभ्यास के दौरान न जाने कितनी बार हाथ-पांव छिलते रहे. मगर उन्हें इन जख्मों पर ध्यान देने का होश ही कहां था. उन्हें फौजी बनने की धुन सवार थी और इस धुन को सही मुकाम तब मिला, जब उनका चयन वर्ष 1941 में भारतीय सेना में हो गया. वहीं से उनकी जिंदगी को उचित दिशा और गति मिली. दुमका के एक छोटे से गांव से निकलकर उन्होंने न केवल अपना, बल्कि अपने पूरे इलाके का नाम रोशन किया.

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