हर रोज जिंदगी जीने की जद्दोजहद है जोंडरापहाड़ में

धनबाद : जोंडरापहाड़ से लौटकर डॉ ओम सुधा साथ में संजय कुमार : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों में जिन गांवों का चित्रण है, वह कल्पना से निकलकर जमीन पर उतर आती हैं. इक्कीसवीं सदी के इस भारत में इससे ज्यादा वीभत्स गांव की कल्पना नहीं की जा सकती है. जिला मुख्यालय धनबाद से महज […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 7, 2019 7:25 AM
धनबाद : जोंडरापहाड़ से लौटकर डॉ ओम सुधा साथ में संजय कुमार : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों में जिन गांवों का चित्रण है, वह कल्पना से निकलकर जमीन पर उतर आती हैं. इक्कीसवीं सदी के इस भारत में इससे ज्यादा वीभत्स गांव की कल्पना नहीं की जा सकती है. जिला मुख्यालय धनबाद से महज 45 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है-जोंडरापहाड़.
टुंडी प्रखंड की बेंगरिया पंचायत के इस गांव का रास्ता मनियाडीह थाना के बगल से जाता है. 50 मीटर बाद ही कच्चे पथरीले रास्ते का सफर अपनी कहानी खुद कहता है.
आम दिनों में इस गांव तक पहुंचने के लिए तीन जगह नाला पार करना पड़ता है. पर बारिश के दिनों में ना उस गांव तक कोई जा सकता है, ना आ सकता है.
रास्ता भी बस कहने को रास्ता है. लोग झाड़ियों के बीच से बच-बचाकर निकलते हैं, वही रास्ता बन जाता है. हर बारिश के बाद पहले वाला रास्ता गुम हो जाता है और मेहनतकश आदिवासियों के पांव नये रास्ते बना लेते हैं.
केंद, भेलवा, अंडी, कटहल के पेड़ और झाड़ियों से होते ही जब गांव में प्रवेश करते हैं, तो आपका स्वागत नंग-धड़ंग बच्चे करते हैं. इन बच्चों की उभरी हुयी पसलियां कुपोषण से सरकार से लड़ने के दावों का एक्स-रे है.
गांव में धान की ड़ेंगाई करते 65 साल के बुज़ुर्ग खारे बेसरा मिलते हैं. खारे बेसरा ने आज तक रेलगाड़ी नहीं देखी. बेसरा ने मोबाइल देखा तो है, पर कभी छुआ नहीं है. टीवी नहीं देखी है. देखे भी कैसे इस गांव में बिजली जो नहीं है.
लगभग 300 की आबादी वाले इस गांव में जितने ग्रामीणों से संवाददाता ने बातचीत की सबकी यही कहानी है. गांव में संथाल आदिवासी रहते हैं. आजादी के सत्तर सालों बाद भी बिजली और सड़क तक से महरूम इन आदिवासियों की त्रासदी यह है कि ये गड्ढे का गंदा पानी पीने की मजबूर हैं.
गांव से लगभग एक किलोमीटर नीचे उतरकर गंदे से गड्ढे में जमा पानी इन 300 मासूम लोगों की जीवन रेखा है. सूरजमणि बताती हैं-इसी पानी से लोग कपड़े भी धोते हैं, बर्तन धोते हैं, पानी पीते हैं और मवेशियों को भी पिलाते हैं.
पहाड़ के बीच रह रहे इन आदिवासियों की मुश्किलें पहाड़ की ऊचाइयों से होड़ कर रही हैं. पहाड़ से नीचे एक प्राथमिक विद्यालय है, जहां पांचवी तक पढ़ाई होती है, पर इस गांव में कोई मैट्रिक पास भी नहीं है. अधिकांश युवक बाहर मजदूरी करते हैं जो धान की कटाई के समय लौटकर आते हैं.
बारिश के मौसम में टापू में तब्दील हो जाने वाले इस गांव में अगर कोई बीमार पड़ जाये तो उसे खटिया पर लादकर छह किलोमीटर दूर मनियाडीह स्वास्थ्य उपकेंद्र लाना पड़ता है. गर्भवती महिलाओं को हो रहे कष्ट का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है. इस गांव में गर्भवती महिलाओं की मौत बहुत सामान्य है. ग्रामीणों की परेशानी का कोई अंत नहीं है. इनका हर सवाल शूल सा चुभता है.
ग्रामीणों की जुबानी : जितने चेहरे, उतनी कहानियां
बहाली देवी कहती हैं-हमारे गांव में हाथियों का आतंक है. कभी भी हाथियों का झुंड चावल और महुआ की गंध सूंघकर आक्रमण कर देता है. हमें रतजगा करना पड़ता है.
अंबावती देवी न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहचानती हैं और न ही मुख्यमंत्री रघुवर दास को. कहती हैं-कुछ लोग एक खास वक़्त (चुनावी मौसम) में आते हैं. खूब मुस्कुराते हैं. हाथ जोड़ते हैं. कभी-कभी पैर भी पड़ते हैं. फिर वो कभी नहीं दिखते.
पानमुनि देवी कहती हैं-वह शादी के बाद यहां आयीं हैं, तो आज तक यहां से बाहर नहीं गयी हैं. पानमुनि निरक्षर हैं. पर वह चाहती हैं कि उनके बच्चे पढ़े.
एतबारी बेसरा कभी स्कुल नहीं गया. झेंपते हुए कहता है-मैंने रेलगाड़ी के बारे में सुना है. मैं चढ़ना चाहता हूं रेलगाड़ी पर.
बीरालाल ने भले ही कभी मोबाइल का इस्तेमाल नहीं किया है, पर वह कहता है-हमे पीने का साफ पानी मिलना चाहिए.
सुकराम से जब हमने बात की, तब वह पास के तालाब से पकड़कर लाये बगुला को आग में पकाकर खा रहा था. कहता है-वह कमाने के लिए कोलकाता जाना चाहता है, ताकि अपनी मां को नयी साड़ी लेकर दे सके.
संतोषी मरांडी की शादी बचपन में ही हो गयी. वह धान दंगाई में अपने पिता का हाथ बंटा रही थी. मायूस होकर कहती है-उसका पति बहुत साल पहले परदेस कमाने गया है, लौटकर नहीं आया.
कटीराम मरांडी कहता है-बारिश के दिनों में ग्रामीणों को आवागमन की बहुत दिक्कत होती है. हम गांव वाले अगर श्रमदान करके कच्चे पक्के रास्ते बना देते हैं, तो वन विभाग वाले उसे तोड़ देते हैं. सरकार हमारे लिए सड़क क्यों नहीं बनाती?
सूरजमणि कहती हैं-बीमार पड़ने पर हमलोगों को दिक्कत होती है. मुझे नहीं पता की सरकार किसको कहते हैं. पर यहां कोई अस्पताल बनवा सकता है क्या?
भामनी देवी से जब हमने बात की तो वह आने वाले त्योहार के लिए गोबर और मिट्टी से अपना घर लीप रही थी. कहती हैं-सुना है कि सरकार सबको शौचालय बना के दे रही है, हमारे गांव में तो एक भी नहीं बना है.
कहां है सरकार?
स्थानीय मासस नेता किशोर लाला इस स्थिति के लिए राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को कठघरे में खड़ा करते हैं. कहते हैं-यह कहानी उस सूबे की है, जहां की सरकार उपलब्धियां गिनने में 323 करोड़ खर्च कर देती है, यह उस देश की भी कहानी है जहां की सरकार विदेश के दौरे पर 4031 करोड़ खर्च कर देती है और 3000 करोड़ का पुतला बन जाता है.

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