जनसभा में एक शख्स ने खड़े होकर कहा- मैं हूं महेंद्र सिंह और नक्सलियों ने उन्हें गोलियों से भून डाला

ऐसे समय में महेंद्र सिंह अकेले घुटुआ गांव पहुंचे. वहां सन्नाटा देख समझ गये कि गांव के लोग डरकर भाग गये हैं. सड़क पर पुलिस के वाहनों का आवागमन तेज था. पुलिसिया आतंक का माहौल था. ऐसे में माले कार्यकर्ताओं और समर्थकों को तलाश करना कठिन था.

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 16, 2023 11:23 AM

बेरमो, राकेश वर्मा. कहते हैं कि जब व्यक्ति इस दुनिया में नहीं रहता, तब उसके अच्छे कर्मों को याद किया जाता है. उसकी चर्चा होती है. कॉमरेड महेंद्र सिंह (Comrade Mahendra Sing Death Anniversary) आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन इस जननेता की चर्चा आज भी लोग करते हैं. सिर्फ उनके विधानसभा क्षेत्र में नहीं, पूरे राज्य में. देश के कई राज्यों में कॉमरेड महेंद्र सिंह की पहचान है. आज भी वह औद्योगिक नगरी बेरमो कोयलांचल के लोगों के दिलों पर राज करते है.

वर्ष 1989 में बरकाकाना के पास घुटुआ गांव में आबकारी विभाग की छापेमारी के क्रम में गोलीकांड हुआ था. डरे सहमे ग्रामीण अपने-अपने घरों में ताला लगाकर गांव छोड़कर भाग गये थे. ऐसे समय में महेंद्र सिंह अकेले घुटुआ गांव पहुंचे. वहां सन्नाटा देख समझ गये कि गांव के लोग डरकर भाग गये हैं. सड़क पर पुलिस के वाहनों का आवागमन तेज था. पुलिसिया आतंक का माहौल था. माले कार्यकर्ताओं और समर्थकों को तलाश करना कठिन था.

ऐसे में महेंद्र सिंह ने बाजार से लाल रंग का कपड़ा खरीदा. रंग और ब्रश लिया. और आइपीएफ जिंदाबाद, घुटुआ गोलीकांड के दोषियों को बर्खास्त करो…, जैसे नारे लिखकर गांव के बाहर सड़क पर अकेले बैठ गये. उनके धरना पर बैठते ही सशस्त्र पुलिस की गाड़ी रुकी. एक अधिकारी ने पूछा- कौन हो जी, यहां कैसे बैठ गये. फिर सिपाहियों को आदेश दिया गया कि इनका झंडा, बैनर फेंक दो.

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महेंद्र सिंह ने बड़े ही शांत भाव से कहा कि अगर आपका संविधान इस बात का अनुमति देता है कि शांतिपूर्ण धरना पर बैठे व्यक्ति का झंडा, बैनर फेंक देना चाहिए. अगर जनता से यह लोकतांत्रिक अधिकार छीन लेने की प्रशासनिक शक्ति आपको मिली है, तो फेंक दिजिए. अधिकारी थोड़ा सहमा. फिर बोला, अच्छा ठीक है. बैठे रहो. लेकिन हल्ला-गुल्ला मत करना. गाड़ी आगे चली गयी.

इस बीच, ग्रामीणों को खबर मिली कि महेंद्र सिंह गांव के बाहर धरना पर बैठे हैं, तो वे धीरे-धीरे अपने घरों की ओर लौटने लगे. हजारीबाग जिले की अन्य इकाइयों को पता चला, तो वे भी एकत्र होने लगे. इसके बाद जनआंदोलन का ऐसा ज्वार फूटा कि पुलिस प्रशासन को बैकफुट पर आना पडा. गोलीकांड के दोषी को सजा मिली. जनता का उत्साह बढ़ा. संगठन का विस्तार हुआ. ऐसा साहसी जन नेता बहुत मुश्किल से मिलता है.

इतने बहादुर थे महेंद्र सिंह

जिस दिन महेंद्र सिंह को गोली लगी, वह चाहते तो जान बचाकर भाग सकते थे. लेकिन, आम लोगों को कोई नुकसान न हो, समर्थकों को गोली न लग जाये, उन्होंने शहादत दे दी. शूटरों ने पूछा था- कौन है महेंद्र सिंह. तब यह जननेता उठ खड़ा हुआ और बोला- मैं हूं महेंद्र सिंह. इसके बाद शूटरों ने उन्हें गोली मार दी. इतने बहादुर थे महेंद्र सिंह.

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…जब शहीदों का शिलापट्ट कंधे पर लेकर पहुंचे महेंद्र सिंह

चलकरी के शहीद तीन साथियों के नाम का शिलापट्ट महेंद्र सिंह ने पटना में बनवाया था. ये शिलापट्ट लेकर वे पटना से जारंगडीह ट्रेन से पहुंचे. कंधे पर शिलापट्ट लिये संडेबाजार के कार्यकर्ता इंद्रजीत सिंह के आवास पर गये. विस्थापित नेता विकास कुमार सिंह कहते हैं कि गांधीनगर में एक बार आईपीएफ की बड़ी सभा का आयोजन किया गया था. लोगों में महेंद्र सिंह को देखने व सुनने की उत्सुकता थी.

अचानक एक व्यक्ति साधारण कपड़े में अपने कंधे पर मोटरसाइकिल का साइलेंसर लिये पहुंचा. पूछने पर मालूम हुआ कि यही महेंद्र सिंह हैं. श्री सिंह कहते हैं कि सभा में भाग लेने के लिए महेंद्र सिंह मोटरसाइकिल पर उनके साथ आ रहे थे. इसी क्रम में साइलेंसर टूटकर गिर गया. तब पीछे बैठे महेंद्र सिंह ने गर्म साइलेंसर को जंगल के पत्ते के सहारे अपने कंधे पर रख लिया.

कई बड़े आंदोलन का गवाह रहा है बेरमो

80 के दशक से महेंद्र सिंह का काफी जीवंत संबंध यहां के लोगों से रहा. जब वे विधायक नहीं थे, उस वक्त हाफ पैंट व शर्ट पहने कंधा पर एक झोला लिये ट्रेकर या ट्रैक्टर से ही बेरमो आना-जाना करते थे. पार्टी के एक छोटे से कार्यकर्ता के घर में रुककर एक ही थाली में उनके साथ खाना व कई किलोमीटर तक गांव-देहात में पैदल घूमना उनकी कार्यशैली थी. विधायक बनने के बाद भी उनकी कार्यशैली नहीं बदली.

यहां कई बड़े आंदोलनों के अलावा गरीबों के हक-अधिकार के लिए आईपीएफ व माले के बैनर तले संघर्ष हुए. कई लोग शहीद हुए. कई लोग जेल गये. कई लोगों को प्रताड़ना झेलनी पड़ी. वर्ष 1994 में जरीडीह प्रखंड के इलाके में मेजर नागेंद्र प्रसाद की हत्या एक बड़ी घटना थी. महेंद्र सिंह के नेतृत्व में झूमड़ा मार्च, बालीडीह में ठेका मजदूरों की समस्याओं को लेकर विधायक समरेश सिंह के खिलाफ चलाया गया आंदोलन, चलकरी में पुलिस पदाधिकारियों को बंधक बनाने की घटना, थाना का घेराव कर पुलिस पदाधिकारियों की पिटाई, डीआरएंडआरडी में फर्जी कागजात के आधार पर नौकरी लेने संबंधी मामले का पर्दाफाश सहित विस्थापित आंदोलन आदि कई ऐसी घटनाएं हैं, जो आईपीएफ के आंदोलन के क्रम में हुए.

आईपीएफ के उस वक्त के राष्ट्रीय अध्यक्ष कॉमरेड विनोद मिश्र (वीएम) व दीपांकर भट्टाचार्य जैसे नेताओं का भी बेरमो क्षेत्र से लगाव रहा. सीपीआई एमएल (लिबरेशन) नाम से पहले भूमिगत संगठन चला करता था. वर्ष 1988 में आईपीएफ का गठन हुआ. 22 अप्रैल 1992 को भाकपा माले का गठन हुआ.

महेंद्र सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने किया था झुमड़ा मार्च

महेंद्र सिंह 1980 में हत्या के आरोप में गिरिडीह जेल में बंद थे. जेल में ही महेंद्र सिंह से बेरमो के विकास सिंह व काशीनाथ केवट की मुलाकात हुई. श्री केवट ने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथ मिलकर महेंद्र सिंह की रिहाई में जोरदार आंदोलन चलाया. वर्ष 1987-88 में बेरमो के संडेबाजार में महेंद्र सिंह ने जनसंस्कृति मंच का गठन किया. वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जनवादी मजदूर किसान संघ का गठन किया. वर्ष 1994 में गोमिया प्रखंड के झूमड़ा में महेंद्र सिंह के नेतृत्व में हजारों ग्रामीणों ने परंपरागत हथियारों के साथ झुमड़ा मार्च किया था. माओवादियों ने महेंद्र सिंह पर निशाना साधते हुए गोली चलायी थी, जिसमें अशोक महतो की मौत हो गयी थी. जवाबी कार्रवाई में कई माओवादी भी मारे गये थे.

चलकरी में तीन लोग हुए थे शहीद

वर्ष 1990 में आईपीएफ के ‘दाम बांधो काम दो’ के नारे के साथ कार्यकर्ता रैली में शामिल होने के लिए दिल्ली गये थे. यहां सड़क किनारे लेटे तीन कार्यकर्ता मोहर रविदास, तिलक रविदास एवं रामदास रविदास की ट्रक से कुचल दिये जाने की वजह से मौत हो गयी थी. उनकी याद में यहां हर साल शहादत दिवस मनाया जाता है. चलकरी गांव के कई कार्यकर्ता कहते हैं कि महेंद्र सिंह जब कभी यहां आते थे, तो रात में जमीन पर सोते थे. एक ही थाली में कार्यकर्ता के साथ खाना खाते थे. अपना, ड्राइवर सुखदेव और कार्यकर्ताओं के कपड़े भी खुद धोते थे.

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