रोजगार देने वाली खादी भंडार आज लड़ रही अपनी अस्तित्व की लड़ाई
कभी महात्मा गांधी के 'स्वदेशी' आंदोलन का प्रतीक रही खादी, जो चरखे की धुन पर चलती थी, आज विभाग व सरकार के उदासीनता के कारण अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. सरकार स्वदेशी की नारा जरूर दे रही है.
चोरौत. कभी महात्मा गांधी के ””स्वदेशी”” आंदोलन का प्रतीक रही खादी, जो चरखे की धुन पर चलती थी, आज विभाग व सरकार के उदासीनता के कारण अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. सरकार स्वदेशी की नारा जरूर दे रही है. लेकिन कभी स्वतंत्रता सेनानी की पहचान रही खादी की ओर कोई विशेष पहल नहीं कर रही है. इसी का परिणाम है कि कभी चरखे की धुन जो गांव की महिलाओं को रोजगार मुहैया कराकर स्वावलंबी बनती थी आज वह पूर्ण रूपेण विलुप्त हो गई है. आजादी के समय बापू के आह्वान पर चरखे के दीवाने हुए लोगों को चरखे से काटे गए सूत बेचने में कठिनाई नहीं हो, इसको लेकर खादी भंडार की स्थापना प्रखंड मुख्यालय में हुई थी. आजादी के बाद 1965 में तत्कालीन महंत ने खादी भंडार के नाम 5 कट्टा जमीन नीमबारी बाजार के समीप पोखरा के पूरबी भिंडा पर दान दिया था, जिस पर निर्मित भवन भी अब क्षतिग्रस्त तो हो चुका है. चहारदीवारी नहीं रहने के कारण अतिक्रमण भी शुरू हो चुका है. खादी भंडार के प्रबंधक सीताराम मंडल ने बताया कि जिस समय उनके पिताजी यहां कर्मी थे, उस समय इस क्षेत्र के ही नहीं पड़ोसी जिला के समीपवर्ती गांव के भी सूत काटने वाली महिला पुरुष यहां अपना सूत बेचने आते थे. जिससे उन्हें रोजगार तो मिलता ही था. कपड़ों की कमी नहीं होती थी. सूत बेचने से जो पैसा होता था, उससे कच्ची सामग्री रुई लेने के बाद आवश्यकता के अनुसार पैसा लेकर शेष पैसा कपड़ा के लिए अपने खाता में जमा छोड़ देते थे. अधिकांश लोग ठंड के समय जाड़ा का कपड़ा रुई लेकर ठंड से परिवार का ठंडा से बचाव करता था. यह परंपरा उनके आने के बाद भी चल रहा था. लेकिन 90 के दशक के अंत आते-आते सरकारी उदासीनता के कारण मृतप्राय होती चली गई. अब विभाग द्वारा उपलब्ध कराए गए खादी के कपड़े बेचने के लिए इसे खोल कर रखता हूं. सरकार की उदासीनता के कारण विभाग की भी स्थिति अच्छी नहीं है. जिसके कारण भवन की समुचित मरम्मत व रखरखाव नहीं हो पा रही है.
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