खुद को बचाने के लिए जरूरी है ‘जल-जीवन-हरियाली’ की सफलता

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक प्रकृति,पर्यावरण और पृथ्वी की रक्षा के साथ ही मानव अस्तित्व जुड़ा हुआ है. बिहार सरकार के ‘जल जीवन हरियाली अभियान’ से आज कोई अन्य बेहतर अभियान हो ही नहीं सकता. इसे मानव के अस्तित्व की रक्षा से जुड़े एक अभियान के रूप में देखा जा सकता है. इस अभियान की सफलता […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 6, 2019 8:22 AM

सुरेंद्र किशोर

राजनीतिक विश्लेषक

प्रकृति,पर्यावरण और पृथ्वी की रक्षा के साथ ही मानव अस्तित्व जुड़ा हुआ है. बिहार सरकार के ‘जल जीवन हरियाली अभियान’ से आज कोई अन्य बेहतर अभियान हो ही नहीं सकता. इसे मानव के अस्तित्व की रक्षा से जुड़े एक अभियान के रूप में देखा जा सकता है. इस अभियान की सफलता बेहद जरूरी है.

इससे पृथ्वी बचेगी और साथ- साथ उससे मानव की भी रक्षा होगी.बिगड़ते पर्यावरण की समस्या की गंभीरता को लेकर अभी जागरूकता कम है. हर स्तर की शालाओं में पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई जब और अधिक होगी तो उसके साथ ही जागरूकता भी बढ़ेगी. बिहार सरकार ने जल- जीवन- हरियाली योजना पर अगले तीन साल में 24 हजार 500 करोड़ रुपये खर्च करने का निर्णय किया है. इसके तहत वर्षा जल संचयन की योजना है.जल स्रोतों का जीर्णेाद्धार करना है. पौधरोपण होगा. इससे जुड़ी कुछ अन्य योजनाएं भी हैं.

पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस योजना के लिए निर्धारित धन का सदुपयोग हो.उसका पूरा -का -पूरा इस्तेमाल हो.रिसाव कम- से- कम हो. भ्रष्टाचार के राक्षसगण 24 हजार करोड़ रुपये का बजट देखेंगे और उनके मंह से लार टपकने लगेगी. खबर है कि अनेक नल जल योजनाओं का वैसे ही लोग बंटाढार कर रहे हैं. हांलाकि, उस लूट पर सरकारी चौकसी इधर बढ़ी है.

नॉन-प्रैक्टिसिंग भत्ता

इस नवीन और महत्वाकांक्षी योजना की सफलता मनुष्य जीवन की रक्षा के लिए जरूरी है. इसीलिए जल- जीवन- हरियाली योजना की मॉनीटरिंग के काम में राज्य सरकार ऐसे अफसरों को लगाये जिनकी ईमानदारी निर्विवाद रही है. इस काम के लिए कुछ रिटायर अफसरों की सेवाएं भी ली जा सकती हैं.

जो आम अफसर व कर्मचारी लगाए जाएं ,उन्हें किसी और नाम से ‘नॉन-प्रैक्टिसिंग भत्ता’ दिया जाए.

जिस तरह सरकारी डाॅक्टरों को दिया जाता रहा ताकि वे प्राइवेट प्रैक्टिस न कर सकें.

उनसे यह विनती भी की जाए कि कम- से -कम अपनी अगली पीढ़ियों की रक्षा के लिए तो इस योजना में पूरा- का- पूरा धन लगने दो.

एनआरसी के लाभ

घुसपैठियों की पहचान हो जाने के बावजूद बंगलादेश सरकार उन्हें अपने यहां नहीं बुलाएगी.

आम तौर से यह तर्क दिया जाता है. जब से एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर पर काम शुरू हुआ है,तभी से यह तर्क दिया जा रहा है. राष्ट्रव्यापी एनआरसी की जरूरत से संबंधित केंद्रीय गृहमंत्री के ताजा बयान के बाद एक बार फिर यही तर्क दिया जा रहा है. ऐसा तर्क देने वालों में अधिकतर निहितस्वार्थी तत्व हैं. मान लीजिए कि बंगलादेश उन्हें नहीं स्वीकारेगा,पर रजिस्टर तैयार हो जाने पर घुसपैठ तो कम हो जायेगी.

क्योंकि जब रजिस्टर बन जायेगा तो किसी बाहरी के लिए यहां का वोटर बनना लगभग असंभव होगा. कुछ खास विचारधारा वाले नेता और कार्यकर्तागण खास स्वार्थ में दशकों से घुसपैठियों को बॉर्डर टपवाने में मदद करते रहे. उन्हें भारत में राशन कार्ड दिलवाने और वोटर बनवाने में मदद करते रहे. पर रजिस्टर तैयार हो जाने पर ऐसा करना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हो जायेगा. फिर वोट के सौदागरों को उन्हें बॉर्डर टपाने से क्या लाभ मिलेगा ? उस कारण घुसपैठियों की आमद काफी कम हो जायेगी .क्या इसे एनआरसी का लाभ नहीं कहेंगे ?

एक भूली- बिसरी याद

रामावतार शास्त्री पटना से तीन बार लोकसभा के सदस्य चुने गये थे. उन्हें अक्सर पैदल चलते मैं देखता था.यदा-कदा ही रिक्शे पर होते थे.

राजनीति में धन की बढ़ते असर के बीच सीपीआइ नेता शास्त्री जी की याद आती है. वे आम लोगों की तरह ही थे. स्वतंत्रता सेनानी थे.कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से होते हुए शास्त्री जी 1942 में सीपीआइ में शामिल हो गये.अंत तक उसी दल में रहे.श्रमिक मोर्चे पर भी सक्रिय रहे.

पहली बार वे 1967 में पटना से लोकसभा के लिए चुने गये. फिर वे 1971 और 1980 में भी सांसद बने.बात तब की है जब मैं भी पटना में पैदल यात्री ही था. बाद में साइकिल से चलने लगा. छोटे अखबारों में काम करता था.शास्त्री जी पत्रकार भी रहे. शास्त्री जी सरल स्वभाव के थे .पर अपने विचारों से दृढ़ भी थे. वे तेरह साल जेल में रहे थे.

पर इस बात का कोई गुमान उनके चेहरे पर नहीं देखा. कई अन्य कम्युनिस्ट नेताओं की तरह ही शास्त्री जी ने भी अपने लिए शायद ही कुछ किया. राजनीति पर काले धन के बढ़ते प्रभाव के आज के दौर में शास्त्री जी को याद करना इस प्रदूषित वातावरण में साफ हवा के झोंके की तरह हैं.उस जमाने में शास्त्री जी जैसे ही कुछ अन्य दलों में भी कुछ नेता मौजूद थे. पर सांसद होकर भी अक्सर पटना में पैदल चलते सिर्फ शास्त्री जी को ही मैंने देखा था.

और अंत में

गत महराष्ट्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस और और एनसीपी के कुछ नेता भाजपा में शामिल हो गये थे. उनमें से कुछ भाजपा के टिकट पर एमएलए भी बने. वे सत्ता के लिए भाजपा में गये थे.खबर है कि अब वे फिर अपने पुराने घर में लौटना चाहते हैं.ऐसे मौसमी पक्षियों पर भरोसा करने का यही हाल होता है.

ऐसा बिहार सहित पूरे देश में समय-समय पर होता रहा है. आश्चर्य है कि राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं -नेताओं को नजरअंदाज कर ऐसे आदतन दलबदलुओं को तरजीह क्यों देते हैं ?ऐसे मामले में एकाध अपवाद की बात समझ में आती है. पर अब तो थोक दल बदल हो रहे हैं.दल बदलुओं के लिए देश में कोई सर्वोच्च पुरस्कार स्थापित हो तो वह बिहार के ही एक नेता को मिलेगा, किसी अन्य राज्य के नेता को नहीं. भले महाराष्ट्र के नेता दल बदल करते रहें.

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