फिराक गोरखपुरी यौमे पैदाइश : ‘एक मुद्दत से तेरी याद भी आयी न हमें…

– इमाम हाशमी- ‘एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें, और हम भूल गए हों तुम्हें ऐसा भी नहीं’ उर्दू साहित्य में जब 20 वीं भाताब्दी के शायरों का जिक्र होता है तो उर्दू में पहली बार ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले फिराक गोरखपुरी का नाम सबसे ऊपर दिखाई देता है. शायरी के […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 27, 2019 4:39 PM

– इमाम हाशमी-

‘एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें,

और हम भूल गए हों तुम्हें ऐसा भी नहीं’

उर्दू साहित्य में जब 20 वीं भाताब्दी के शायरों का जिक्र होता है तो उर्दू में पहली बार ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले फिराक गोरखपुरी का नाम सबसे ऊपर दिखाई देता है. शायरी के साथ–साथ उन्होंने उर्दू जुबान के भंडार को साहित्यकार और आलोचक के रूप में अपनी बहुमूल्य रचनाओं से मालामाल किया. आप 28 अगस्त, 1896 को गोरखपुर उत्तर प्रदेश में पैदा हुए. आपका पूरा नाम रघुपति सहाय था, लेकिन आप फिराक गोरखपुरी के नाम से ही मशहूर हुए. अपने परिश्रम और योग्यता के चलते फिराक गोरखपुरी का चुनाव पीसीएस. और आईसीएस इंडियन सिविल सर्विस के लिए हुआ था लेकिन इसी दौरान महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के समर्थन में उन्होंने इस्तीफा दे दिया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें जेल भी जाना पड़ा.

इसके बाद आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी प्राध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दीं. नि:संदेह आप अंग्रेजी भाषा के विद्वान थे लेकिन इसके बावजूद आपको उर्दू जुबान से खासा लगाव व प्यार था. इस बारे में आप कुछ इस अंदाज में अपने विचार प्रकट करते हैं –

‘‘ मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू जुबां…….जो भी मैं कहता गया हुस्न– ए–बयां होता गया.’’

‘‘ मजमुआ कलाम–गुल नगमा, ‘‘पर भारत का सबसे बड़ा साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. आपने ऑल इंडिया रेडियो में प्रोडयूसर के रूप में आपनी अमूल्य सेवाएं दीं. अपनी एक पुस्तक‘ उर्दू गज़ल गोई’ की प्रस्तावना में वर्तमान समय की गजल की तस्वीर पेश की. प्रगतिशील आंदोलन के दौरान हुई शायरी की तारीफ में लिखते हैं कि, ‘‘प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन में कुछ शायरों को प्रगतिशील गज़लें लिखने की तरफ आकर्षित किया. एक जगह जीवन की कठिनाइयों को बयां करते हुए कहते हैं –

‘‘तुम्हें क्योंकर बताएं जिंदगी को क्या समझते हैं।

वह यह कहते हैं मौत का भी इलाज हो शायद,

जिंदगी का कोई इलाज नहीं.

बहुत पहले से आहट उनकी हम पहचान लेते हैं. तुझे ए जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं’’

इसी तरह एक जगह गजल की खूबसूरती देखे :

‘‘भुला दी एक मुद्दत की ‘ जफाएं, उसने यह कहकर तुझे अपना समझते थे, तुझे अपना समझते हैं.’’

उर्दू साहित्य का यह चमकता सितारा फिराक गोरखपुरी अंतत: लंबी बीमारी के बाद 3 मार्च 1982 को 85 साल की उम्र में नयी दिल्ली में हमेशा के लिए इस संसार को अलविदा कह गया. मृत्यु के बाद उनके मृत शरीर को इलाहाबाद ले जाया गया, जहां गंगा–यमुना के संगम पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. उन्हें 1960 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1968 में पद्म भूषण, 1968 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार उर्दू शायरी में, 1981 में गालिब अकादमी अवार्ड मिला.

पढ़ें, फ़िराक़ गोरखपुरी की मशहूर गजल

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है

नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी

कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर

कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी

ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र

दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी

झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें

मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी

शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र

कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी

कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात

ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी

पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था

वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी

लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को

दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी

ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर

यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी

हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी

वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी

लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से

उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी

तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है

उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी

ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा

ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी

फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ

उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी

सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में

करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी

ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा

तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी

अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ

‘फ़िराक़’ करती रही काम वो नज़र फिर भी

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