वह साल दूसरा था, यह साल दूसरा है

सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार साल बदलने लगता है, तो जिनकी याद्दाश्त खराब हो चुकी है, उन्हें भी साले-सालियां याद आने लगते हैं, बावजूद इसके कि दोनों में कोई व्युत्पत्तिपरक संबंध नहीं है. ऐसे ही एक बुजुर्ग मित्र ने लोगों को आगाह करते हुए फेसबुक पर लिखा कि ज्यादा उड़ें नहीं, क्योंकि साल ही बदल रहा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 29, 2017 6:43 AM

सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

साल बदलने लगता है, तो जिनकी याद्दाश्त खराब हो चुकी है, उन्हें भी साले-सालियां याद आने लगते हैं, बावजूद इसके कि दोनों में कोई व्युत्पत्तिपरक संबंध नहीं है.

ऐसे ही एक बुजुर्ग मित्र ने लोगों को आगाह करते हुए फेसबुक पर लिखा कि ज्यादा उड़ें नहीं, क्योंकि साल ही बदल रहा है, साले-सालियां नहीं. ऐसा लिखते हुए वे अपने उन नौजवान दोस्तों को भूल गये, जिनकी सालियां ब्यूटी-पार्लर की मदद से अपने रूप का नित नवीकरण कर माघ कवि की इस उक्ति को चरितार्थ करती रहती हैं- क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया:. मुझे अलबत्ता सालभर सालन यानी सब्जी की याद आती रही, जो जनता की थाली से ऐसे गायब होती जा रही है, जैसे कथित आध्यात्मिक गुरुओं की शरण में जाकर लड़कियां. ठीक भी है, जब थाली में रोटी ही न रहे, तो भला सालन ही क्या करेगा रहकर?

साल बदलने पर मुझे अल्ताफ राजा का गाया हुआ गाना ‘क्या करोगे तुम आखिर, कब्र पर मेरी आकर’ भी याद आता है. क्या जबर्दस्त बारहमासा है! इससे पहले मैं जायसी के बारहमासे का ही प्रशंसक था, जिसमें नागमती अपने पति रत्नसेन के चित्तौड़ लौटने में देर होती देख विरह से भी ज्यादा इस खयाल से व्याकुल होने लगती है कि प्रियतम किसी अन्य युवती के प्रेम-जाल में न फंस गये हों- नागर काहु नारि बस परा, तेइ मोर पिउ मोसों हरा!

कवि सारे काम-धंधे छोड़कर, बशर्ते उसके पास कोई काम-धंधा होता हो, क्योंकि आम धारणा के अनुसार अगर उसके पास कोई काम-धंधा ही होता तो वह कवि बनता ही क्यों?

बहरहाल, कवि पूरे साल अपनी नायिका के पीछे लगा रहकर उसकी आषाढ़ से लेकर ज्येष्ठ मास तक की गतिविधियों की पल-पल की खबर देने के बाद अंत में कहता है कि गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रवि आदि भी जिस आग को सह नहीं सकते, उस प्रेम-अगन में जलनेवाली सती की सराहना की जानी चाहिए- मुहमद सती सराहिये, जरै जो अस पिउ लागि.

अल्ताफ राजा के बारहमासे की बात ही दूसरी है, जिसमें वह जनवरी से लेकर दिसंबर तक प्रेमिका के बदलते व्यवहार का वर्णन करता है कि वह साल दूसरा था, यह साल दूसरा है.

हालांकि, मुझे इस बात पर एतराज रहा है कि अगर ये साल दूसरा है, तो वह साल दूसरा कैसे हो सकता है, उसे तो पहला होना चाहिए था! हो सकता है अल्ताफ गणित में कमजोर हो और किसी की कमजोरी उजागर करना ठीक नहीं, क्योंकि इससे अपनी कमजोरी के उजागर होने का भी खतरा रहता है.

उसका यह बारहमासा मुझे राजनीतिक ज्यादा लगता है, जिसमें प्रेमिका के बहाने चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने नेता की पोल खोली गयी है और उसे इस बात से आगाह किया गया है कि वह साल दूसरा था, जब राहे-वफा पे थे तुम, वादों की टॉर्च लेकर! और यह साल दूसरा, बल्कि आखिरी है, जब टॉर्च की रोशनी मंद पड़ने लगी है और अब एक ही साल बचा है, कुछ कर गुजरने यानी कुछ करने या फिर गुजरने के लिए.

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