ओस-कुहासा सब गेहूं का!

मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार पता नहीं आप क्या समझते हैं, लेकिन कक्का कह रहे थे कि सर्दी का यह मौसम धरती पर सिर्फ गेहूं के लिए ही आता है. कक्का अभी भोज खाकर लौटे थे और बाहर दरवाजे के पास बैठे हुए थे. रात चांदनी थी फिर भी कुहरे की चादर में लिपटकर हरेक […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 28, 2017 6:13 AM
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
पता नहीं आप क्या समझते हैं, लेकिन कक्का कह रहे थे कि सर्दी का यह मौसम धरती पर सिर्फ गेहूं के लिए ही आता है. कक्का अभी भोज खाकर लौटे थे और बाहर दरवाजे के पास बैठे हुए थे. रात चांदनी थी फिर भी कुहरे की चादर में लिपटकर हरेक दृश्य गुम सा हो गया था. अमरूद के पत्तों पर गिरती ओस की बूंदें टप्प-टप्प की आवाज कर रही थीं.
कक्का के चेहरे पर लाली पसर गयी. बोले कि अब भी मौसम आता है, तो यह सिर्फ डींगें हांककर लौट नहीं जाता है. वह कुछ-न-कुछ उपकार करके ही जाता है. कक्का का आशय धुआंधार गिर रही ओस से था. कह रहे थे कि सर्दी के मौसम की पहचान कुहासे और ओस से है. ओस न गिरे, तो गेहूं के नन्हें पौधे उदास हो जायें. यह ओस गेहूं के लिए गिर रही है. गेहूं के नन्हें पौधों को ढकने का शीतल चादर है कुहासा!
कक्का कहते हैं कि जाड़े का मौसम धान कट जाने के बाद आता है. धान के बाद का सीजन गेहूं का होता है.
यह नमी की फसल है. इसे खूब पानी नहीं चाहिए. इसे हल्की फुहारे की जरूरत होती है. हल्की फुहारे कौन दे भला? न दे कोई तो गेहूं ठीक से अंकुरेगा नहीं और जो थोड़ा बहुत अंकुरेगा भी, वह नमी के अभाव में झुलसकर खत्म हो जायेगा. कक्का कहते हैं कि प्रकृति बड़ी अद्भुत चीज है. इसे पता रहता है कि किसे क्या चाहिए. धान को खूब पानी चाहिए, तो वह सावन बनकर बरसता है. गेहूं को हल्की फुहारे चाहिए और साथ ही साथ ठंड का एहसास भी. मौसम उसे कुहरे की चादर में लपेटकर ओस से रातभर नहाता रहता है.
धान जो पुआल छोड़ता है, वह गर्म एहसास को जिंदा रखने में हमारी मदद करता है. कक्का कहते हैं कि पुआल की तासीर बड़ी गर्म होती है. कभी इस पर सोकर देखोगे, तब पता चलेगा. जाड़ा आता है, तो यह पशु का आहार बनता है. पशु इसे खाकर पागुर करते हुए जाड़े को धकेलते रहते हैं.
खेतों में गेहूं उपजाना बिना पशु के सहयोग के संभव नहीं था. अब तो खैर बात ही दूसरी हो गयी है. फिर भी धान से चावल निकालने के बाद जो भूसा बच जाता है, वह भी सर्दी के मौसम में गर्मी की अलख जगाने के काम आता है. किसान इसे मेड़ पर जलाकर पूस की रात में गेहूं की पहली सिंचाई करते हैं.
कक्का कहते हैं कि सर्दी की रातें वैसे ही लंबी नहीं होतीं. इसका भी कारण होता है और सर्दी में जो भी होता है और जितने भी कारण होते हैं, उन सबका संबंध मनुष्य के जीवन को सहेजनेवाली रोटी का मूल गेहूूं से ही जुड़ा होता है. कक्का कहते हैं कि जब दिन उगता है, तब सूरज की तपिश बढ़ जाती है. यह तपिश गेहूं को ज्यादा नहीं चाहिए. बस थोड़े से ही उसका काम चल जाता है.
उसे तो फुहारे चाहिए. मूसलाधार नहीं, हल्की-हल्की सी. बूंदें इतनी धीरे से गिरें कि गेहूं के नन्हें पौधों को चोट न लगे. वो घायल न हो जायें. इसीलिए प्रकृति ने रातें लंबी कर दीं. ताकि गेहूं के नन्हें पौधे दिन में सूरज की थोड़ी सी तपिश लेकर रात को देर तक ओस में भीगते रहें और दुनिया की रोटी के लिए खुद को तैयार करते रहें.

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