गली-गली में गुरु

मनोज श्रीवास्तव टिप्पणीकार इस युग में गुरुओं की संख्या अनगिनत है, तो हर दूसरा प्राणी किसी का शिष्य. गली-गली में गुरु और घर-घर शिष्य हैं. इसके बावजूद समाज की जो हालत हो रही है, वह दूसरी ही कहानी कहती है. गुरुओं के बीच शिष्य बनाने की प्रतिस्पर्धा है, तो लोगों में शिष्य बनने की होड़. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | September 7, 2017 6:36 AM
मनोज श्रीवास्तव
टिप्पणीकार
इस युग में गुरुओं की संख्या अनगिनत है, तो हर दूसरा प्राणी किसी का शिष्य. गली-गली में गुरु और घर-घर शिष्य हैं. इसके बावजूद समाज की जो हालत हो रही है, वह दूसरी ही कहानी कहती है. गुरुओं के बीच शिष्य बनाने की प्रतिस्पर्धा है, तो लोगों में शिष्य बनने की होड़. कई लोग तो एक समय में एक से अधिक गुरुओं के शिष्य बने हुए हैं. कई गुरुओं के शिष्यों की संख्या तो करोड़ों में है. देश-विदेश में उनके बेहिसाब चेले भी हैं.
किस शास्त्र, परंपरा के अनुसरण से इतने गुरु-शिष्य पैदा हो रहे हैं, क्याें यह पूछनेवाला कोई नहीं है? किसी भी कालखंड में इतने गुरु-शिष्य का संदर्भ मिलना मुश्किल है. क्या बीते काल के ऋषि-मुनियों से ज्यादा योग्य गुरुजन आज के समय अवतरित हो गये हैं? इतनी धर्म पारायण जनता पहले भी किसी युग में इस धरा पर रही है या यह सौभाग्य इसी समय प्राप्त हुआ है?
धर्म को दुकान में बदलने की कवायद करते कदम जब निशानों की शिनाख्त में फंसते हैं, तो सवाल भी उठते हैं. क्या इन सबसे धर्म का भला हो रहा है?
ये लोग धर्म को शक्ति प्रदान कर रहे हैं? क्या अच्छे-बुरे, योग्य-अयोग्य सभी आम जन चुटकी में शिष्य बन सकते हैं? ऐसा किस संत परंपरा का विधान है? कहते हैं कि बुद्ध किसी को शिष्य बनाने में दो वर्ष का समय लेते थे, लेकिन अब शिष्य बनाना दो मिनट का काम है. कोई समझने-समझाने को तैयार नहीं कि शिष्य बना रहे या मैगी! ऐसे हालात हैं कि विष्णु अवतार भगवान बुद्ध को मात करते फर्राटा साधु-संत कहां जाकर रुकेंगे, यह भगवान भी न बता पाएं.
इस वक्त हमारे समाज में हर दूसरा-तीसरा प्राणी किसी-न-किसी गुरु का शिष्य है. फिर समाज में इतनी हिंसा, ईर्ष्या और बेईमानी क्यों व्याप्त है?
समाज की बेहतरी का श्रेय लेने में अगर ये आगे हैं, तो शिष्यों के इन बुरे कर्मों का श्रेय लेने कोई गुरु आगे क्यों नहीं आता और कहता कि हमारी शिक्षा में कमी की वजह से समाज की यह हालत है और इसके उपाय खोजने के लिए हमारी साधना अपूर्ण है? इसलिए अब हम और साधना-मंथन करके हल खोजते हैं, ताकि समाज बदले. महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ वेश-भूषा बदल लेनेभर से गुरु बन सकता है क्या? इनके किस गुरु ने इन्हें जीते जी गुरु की उपाधि से नवाज दिया और शिष्य बनाने की अनुमति प्रदान कर दी?
इनके नाम में 108, 1008 लगाने का क्या पैमाना है, किस परंपरा से जुड़ा है यह? अपने नाम में इन अंकों को क्या सभी लोग जोड़ सकते हैं? रोको यह सब अंधेरगर्दी! साधना के कठोर पथ पर चलकर सालों में एक सच्चे साधक और साधु का उद्भव होता है, उसे लोगों ने बच्चों का खेल बनाकर छोड़ दिया है…

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