किलकारियों पर ग्रहण

आजादी के 70 बरस पूरे होने के जश्न की तैयारियां कर रहे देश के सामने उसकी असली हकीकत एक भयानक त्रासदी के रूप में आयी है. गोरखपुर में ऑक्सीजन नहीं मिलने से बीमार बच्चों के मरने के सिलसिले पर बेचैनी और मातम के माहौल को बहानेबाजी और बयानबाजी की सरकार तथा प्रशासन के रवैये ने […]

By Prabhat Khabar Print Desk | August 14, 2017 6:35 AM
आजादी के 70 बरस पूरे होने के जश्न की तैयारियां कर रहे देश के सामने उसकी असली हकीकत एक भयानक त्रासदी के रूप में आयी है. गोरखपुर में ऑक्सीजन नहीं मिलने से बीमार बच्चों के मरने के सिलसिले पर बेचैनी और मातम के माहौल को बहानेबाजी और बयानबाजी की सरकार तथा प्रशासन के रवैये ने और भी क्षुब्ध किया है.
जो विवरण सामने आ रहे हैं, वे न सिर्फ उस अस्पताल की बदहाली के बारे में बता रहे हैं, बल्कि देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के तबाह होते जाने की ओर फिर से ध्यान भी दिला रहे हैं. सूचनाओं के मुताबिक, ऑक्सीजन आपूर्ति के बंद होने की जानकारी अस्पताल प्रबंधन और जिला प्रशासन को पहले से थी. अस्पताल के कर्मचारियों के वेतन महीनों से लंबित हैं. बेहतर शासन-प्रशासन देने के वादे पर सत्तासीन हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर से ही हैं. वहां से वह लंबे समय से सांसद रहे हैं.
मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और अधिकारियों ने इस प्रकरण में अलग-अलग तरह के कई बयान दिये हैं. अब देखना यह है कि जांच का कुछ नतीजा निकलता है या फिर उसकी नियति भी ऐसी बेशुमार जांचों की तरह किसी सरकारी फाइल में दफन हो जाना है या फिर कुछ छोटे-बड़े अधिकारियों की बर्खास्तगी की खानापूरी कर दी जायेगी. भारत उन अर्थव्यवस्थाओं में है, जो तेजी से बढ़ने के बावजूद स्वास्थ्य के मद में सबसे कम खर्च करती हैं. देश की राजधानी में स्थित एम्स जैसे विशाल अस्पताल से लेकर गांवों-कस्बों के प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों तक में अव्यवस्था और बदहाली का आलम है.
सरकारी तंत्र की लचरता व लापरवाही ने निजी क्षेत्र के अस्पतालों और क्लिनिकों को फलने-फूलने का खूब मौका दिया है, जहां उपचार के एवज में मोटी रकम वसूली जाती है. गरीब और कम आमदनी वाले लोगों को सरकारी अस्पतालों के रहमो-करम पर निर्भर रहना पड़ता है. साल-दर-साल के आंकड़े बताते हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य के मद में किये गये आवंटन अक्सर बिना खर्च के खातों में पड़े रह जाते हैं. उत्तर प्रदेश हो या कोई अन्य राज्य, सरकारें चाहे किसी भी दल की रही हों, सच्चाई यही है कि उनकी प्राथमिकताओं में स्वास्थ्य का स्थान बहुत नीचे है.
याद करने की कोशिश कीजिए कि कब और किस चुनाव में इस मुद्दे पर बहसें हुईं या फिर संसद या विधानसभाओं ने कब गंभीरता से स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी पर चर्चा की? सात दशकों की उपलब्धियों पर इतराते हुए देश की सरकारों को आत्ममंथन करने की जरूरत है, अन्यथा तड़प-तड़प कर मरते जाते नौनिहालों की तरह हमारा सामूहिक भविष्य भी सिसक-सिसक कर दम तोड़ देगा.

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