होली राग-रंग का लोकप्रिय पर्व
चंदन तिवारीइमेल : chandan.tiwari59@gmail.co... हिंदू पांचांग के अनुसार फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनायी जाने वाली होली राग-रंग का लोकप्रिय पर्व होने के साथ ही वसंत का संदेशवाहक भी है. राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं. उसमें भी लोकगीतों का अपना एक विशेष महत्व है और इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली […]
चंदन तिवारी
इमेल : chandan.tiwari59@gmail.co
हिंदू पांचांग के अनुसार फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनायी जाने वाली होली राग-रंग का लोकप्रिय पर्व होने के साथ ही वसंत का संदेशवाहक भी है. राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं. उसमें भी लोकगीतों का अपना एक विशेष महत्व है और इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम…
वसंत : महज ऋतुराज नही, महाराजाधिराज कहिए या, गीतों की दृष्टि से वसंत, वसंतोत्सव सा कोई नळभ
वसंत का मौसम तेजी से गुजर रहा है. अब कुछ दिन शेष बचे हैं, लेकिन लोग अब इतनी बातों में उलझे रहते हैं कि अब वसंत का भी आनंद नहीं ले पा रहे हैं. वसंत न सिर्फ मानवीय समुदाय, बल्कि पूरी सृष्टि के लिए ही एक खास अवसर लेकर आता है. नवजीवन देता है, इसलिए इस खास ऋतु को लोकपरंपरा में खासा महत्व दिया गया है.
ब्रजकिशोर दूबे ने अपने एक गीत में लिखा है –
आईल बसन्त गम गम,गमके चारी ओर हो।
कुहके कोयलिया, राते दिने बड़ी जोर हो।।
लोक ने वसंत के उल्लास में फागुन को मस्त होकर जीने की शुरुआत की और वह वसंत के त्योहार को फागुन की पूर्णिमा यानी होली तक ले गया. माघ शुक्ल पंचमी यानी वसंत पंचमी से शुरू यह उत्सव फागुन माह में अपने चरम पर होता है. भोजपुरी के तुलसीदास कहे जानेवाले रामजियावन बावला ने फागुन के बारे में लिखा है कि –
सगरी सरेहिया रंगाइल हो,
सखी फागुन आईल।
अब गौर कीजिए वसंत के शुरू होने से लेकर खत्म होने तक पर. वसंत के पांचवे दिन वसंतपंचमी आता है. वसंत उत्सव के रंग में ढलने लगता है. पचरा देवी गीतों का गायन शुरू होता है-
निमिया के दाढ़ मइया के लागेला सोहावन….
फिर फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को महशिवरात्रि मनाया जाता है. इस दौरान पूरा माहौल शिवभक्त हुआ रहता है. शिव के गीतों का रेंज सबको पता है. शिवगीतों का दौर चलता है. महाशिवरात्रि के अगले दिन से फगुआ का गायन शुरू हो जाता है, जो कि होली तक चलता है. सुमिरन होली से गायन इस दिन की शुरुआत होती है. कई सुमिरन होली बहुत ही मशहूर हैं, जैसे –
ऐसो नाम होली गाइये….
सुमिरौं मैं सिरी भगवान हरे लल्ला….
वसंत को प्रेम और बिरह का प्रतीक ऋतु भी माना जाता है, तो अन्य धार्मिक पर्व-त्योहारों के साथ-साथ उसके तराने चलते भी रहते हैं. वसंत के इस प्रेम पर नाजिर अकबराबादी ने लिखा है –
जब फागुन रंग झमकते हो,
तब देख बहारें होली की….
इस गीत में उत्साह है. उमंग है. ऐसे ही कई बिरह गान बहुत मशहूर हैं. इसी तरह विरह गीत का एक उदाहरण देखें –
केकरा संग खेलब होरी सखी
बलमा परदेसी न आएं…
जब होली खत्म होता है, तो यह खुमारी तुरंत न उतरे, इसके लिए लोकमानस ने परंपराओं में इसका विस्तार किया गया है. फाग के खत्म होते ही चैता, चैती, घाटो जैसे गायन होते हैं. चैत में ही छठ आ जाता है, जिसमें गीत ही मंत्र होते हैं-
आइ गइले चइत महिनवा,
छठ करबो जरूर
और फिर चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से नवरात्र शुरू हो हैं. इसमें भी देवी के गीतों का खास महत्व होता है. बस सोच कर देखिए कि करीबन दो माह के अंदर ही गीतों की कितनी वेरायटी गाने और सुनने को मिलती है. अगर सिर्फ एक फाग या होली गीतों की ही बात करें, तो इसकी वेरायटी देखिए. ब्रज में गीतों का अलग रंग होता है. वहां कृष्ण नायक रहते हैं गीतों में…
"ब्रज में हरी होरी मचाई"
अवध में आकर राम नायक हो जाते हैं. काशी के फाग में शिव. बिहार के फाग में बाबा हरिहरनाथ. बिहार में आकर यह फाग और विस्तार पाता है. जैसे –
बाबा हरिहरनाथ सोनपुर में रंग खेले,
बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर,
अंगना में उड़ेला गुलाल….
यहां फाग गीतों में इतिहास आता है. बाबू कुंवर सिंह आते हैं. 1857 की लड़ाई आती है, लेकिन फाग गीतों का अपार विस्तार देनेवाले बिहार में होली के गीतों का राग रंग भी बदला है. इस रंग को भोजपुरी गीतों ने बदला है. भोजपुरी गीतों की वर्तमान धारा में एक धारा ऐसी है, जिसे बात बेबात गीत के लिए स्त्री का देह जरूरी तत्व की तरह चाहिए होता है. फाग के गीतों को भी स्त्री देह की परिधि में समेटने की कोशिश हुई है. इससे लोकगीतों की सुंदरता प्रभावित हुई है. दरअसल, आज तकनीक के प्रभाव में हम अपनी जिंदगी को भी इतना तकनीकी बनाते जा रहे हैं कि इन गीतों का भरपूर आनंद ले ही नहीं पा रहे. भारतीय परंपरा एवं संस्कृति की मीठी चाशनी में लिपटे इन सुमधुर गीतों की जगह अब फिल्मी धुनों और गानों ने ले ली है. उत्साह को उन्माद में बदलने की कोशिश कह सकते हैं इसे.
