CBI ने बाबरी मामले में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों की भूमिका की संभावना की जांच नहीं की : अदालत

लखनऊ : लखनऊ की एक विशेष अदालत ने कहा है कि सीबीआई ने अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के प्रकरण में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों से जुड़ी एक 'अहम' गुप्त सूचना की जांच नहीं की. अदालत ने कहा कि सीबीआई ने यह जांच नहीं की कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के लोग राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे में घुसे होंगे और उसे नुकसान पहुंचाया होगा, ताकि देश में सांप्रदायिक अशांति पैदा की जा सके.

By Agency | October 1, 2020 7:01 PM

लखनऊ : लखनऊ की एक विशेष अदालत ने कहा है कि सीबीआई ने अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के प्रकरण में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों से जुड़ी एक ‘अहम’ गुप्त सूचना की जांच नहीं की. अदालत ने कहा कि सीबीआई ने यह जांच नहीं की कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के लोग राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे में घुसे होंगे और उसे नुकसान पहुंचाया होगा, ताकि देश में सांप्रदायिक अशांति पैदा की जा सके.

विशेष न्यायाधीश एसके यादव ने अभियोजन के कई गवाहों के बयानों में विसंगति का हवाला दते हुए कहा कि विवादित ढांचे को ढहाने के लिये आपराधिक साजिश और अन्य आरोप मामले में 32 हाई-प्रोफाइल आरोपियों के खिलाफ साबित नहीं होते हैं. हिंदी में लिखे 2,300 पृष्ठों के फैसले में न्यायाधीश ने कहा कि केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) का मामला इस लिहाज से कमजोर हो गया कि उसने जांच नहीं की तथा न्यायिक पड़ताल के दायरे में आपराधिक साजिश के आरोप को लाने के लिये विवादित ढांचा ढहाये जाने के पाकिस्तान से जुड़े पहलू को खारिज कर दिया.

विशेष अदालत ने बुधवार को भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी सहित अन्य आरोपियों को विवादित ढांचे को ढहाने की साजिश रचने के आरोपों से बरी करते हुए यह टिप्पणी की. अदालत ने कहा आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ सीबीआई के आरोप इसलिए भी ”कमजोर हो गये कि उसने स्थानीय खुफिया इकाई (लोकल इंटेलीजेंस यूनिट) द्वारा पांच दिसंबर 1992 को भेजी एक रिपोर्ट की छानबीन नहीं की. उसमें कहा गया था कि छह दिसंबर 1992 को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के कुछ लोग स्थानीय भीड़ में शामिल हो कर ढांचे को नुकसान पहुंचा सकते हैं.”

इसमें इस बात का जिक्र किया किया गया है कि इस बारे में स्थानीय खुफिया सूचना थी कि दो दिसंबर 1992 को खुद से कुछ मजार तोड़ दिये गये और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने उन्हें आग के हवाले कर दिया, ताकि सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ा जा सके और कार सेवा बाधित हो सके. एलआईयू की रिपोर्ट पर उत्तर प्रदेश के महानिरीक्षक (सुरक्षा) के हस्ताक्षर हैं. फैसले में एलआईयू की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है कि ”पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों से जुड़े लोग अयोध्या में भीड़ में शामिल हो सकते हैं और वे विवादित ढांचे को विस्फोट कर तथा अन्य तरीकों से नुकसान पहुंचा कर राज्य में और देश में अशांति पैदा कर सकते हैं.”

अदालत ने इस बात का भी जिक्र किया कि ऐसी सूचना थी कि पाकिस्तान से मंगाये गये विस्फोटक दिल्ली के रास्ते अयोध्या पहुंचे हैं, जबकि अन्य खुफिया रिपोर्ट में प्रशासन को चेतावनी दी गयी थी कि जम्मू कश्मीर के उधमपुर इलाके से असामाजिक/गैर-राष्ट्रीय तत्व करीब 100 लोग कार सेवक के वेश में अयोध्या आ रहे हैं. अदालत ने कहा कि ये रिपोर्ट संबद्ध अधिकारियों को प्राप्त हुई और उस पर कार्रवाई की गयी.

न्यायाधीश ने कहा, ”यह सूचना प्रधान सचिव (गृह) उत्तर प्रदेश को भेजी गयी और राज्य की सभी सुरक्षा एजेंसियों को इस बारे में लिखित रूप से सूचना दी गयी. उन्होंने कहा, ”इस तरह की अहम सूचना होने के बावजूद, इन पहलुओं की जांच नहीं की गयी.” यह मामला अयोध्या में विवादित ढांचे को छह दिसंबर 1992 को ढहाये जाने से संबद्ध है, जिसके चलते कई महीनों तक दंगे हुए थे और उनमें देश भर में करीब 2,000 लोग मारे गये. यह ढांचा ‘कार सेवकों’ ने गिरा दिया, जिनका दावा था कि अयोध्या में 16वीं सदी में बाबरी मस्जिद का निर्माण प्राचीन राम मंदिर स्थल पर किया गया था.

इस मामले में पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी, पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती, उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, जिनके कार्यकाल के दौरान ढांचा ध्वस्त किया गया था, के अलावा विहिप के नेताओं विनय कटियार और साध्वी ऋतंभरा सहित 32 आरोपित थे. इस मामले में 49 व्यक्तियों के खिलाफ आरोप निर्धारित किये गये गये थे, लेकिन मुकदमे की सुनवाई के दौरान इनमें से 17 आरोपितों (अशोक सिंहल, बालासाहेब ठाकरे और विजयराज सिंधिंया सहित) का निधन हो गया था. निचली अदालत ने 2001 में आरोपियों के खिलाफ पहली बार आपराधिक साजिश के गंभीर आरोप को हटा दिया था.

इस फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में बरकरार रखा था, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने 19 अप्रैल, 2017 के फैसले में आरोपियों के खिलाफ आपराधिक साजिश के आरोप बहाल कर दिये थे. आपराधिक साजिश का आरोप धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्यता फैलाने के आरोप के अलावा था. हालांकि, आरोपितों ने खुद को निर्दोष बताते हुए दावा किया था कि उनके अपराध साबित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है. इन सभी ने दावा किया था कि उन्हें केंद्र में तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस ने राजनीतिक विद्वेष की वजह से फंसाया है.

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