मजदूर दिवस विशेष: झारखंड में मजदूर यूनियनों की धार क्यों होती जा रही है कमजोर?

झारखंड में वक्त के साथ मजदूर यूनियनों की धार कमजोर हुई है. कई जगहों पर यूनियन कागज पर हैं. संस्थाओं के कमजोर होने के कारण कुछ संगठन कमजोर पड़ गए.

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 1, 2024 12:11 AM

रांची, मनोज सिंह: झारखंड औद्योगिक इलाका रहा है. यहां कई कल-कारखाने और खदान हैं. आजादी के पहले बड़ी संख्या में यहां मजदूरी के लिए आये थे. खदानों में काम किया. मजदूरों की हक की लड़ाई के लिए कई मजदूर संगठन यहां खड़ा हुए. इनके हक की लड़ाई लड़ी. वर्षों तक इनके लिए संघर्ष किया. राज्य में सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधि और नेता हुए. मजदूरों को हक दिलाने के लिए कई स्तर पर संगठन बने. सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं में मजदूर यूनियनों के प्रतिनिधियों और प्रबंधन के सदस्यों की कमेटी बनी. आज भी कई प्रमुख संगठनों में वेतन से लेकर सुविधा तक की बात इन्हीं ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों की मध्यस्थता के साथ होती है, लेकिन यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए, कि मजदूर यूनियनों की धार कमजोर हुई है. कई स्थानों पर कागज पर मजदूर यूनियनें हैं. इसके पीछे कई कारण है. कुछ यूनियनें तो इसलिए कमजोर हो गयी कि संस्था ही कमजोर पड़ गया है. यह बंद हो गये.

अंतिम दिन गिन रही है एचईसी
एचइसी जैसी बड़ी संस्था आज अंतिम दिन गिर रही है. यहां एक समय मजदूर यूनियनों का बोलबाला होता था. एक मजदूर यूनियन की नेता के आह्वान पर पूरा का पूरा एचइसी बंद हो जाता था. आज एचइसी जैसी संस्था में ही दर्जनों संगठन हो गये हैं. सबकी अलग-अलग डफली अलग-अलग राग है. देखते देखते एचइसी जैसी संस्था आज बंदी के कगार पर है. इसमें प्रबंधन के साथ-साथ मजदूर संगठनों का भी हाथ कम नहीं है. इसके लिए दोनों पक्ष अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते हैं. जब मजदूर संगठनों की चलती थी, तो उत्पादन प्राथमिकता नहीं रही. संस्थान को बचाने की प्राथमिकता नहीं रही. आज संस्था कमजोर हो गयी है, तो मजदूरों की आवाज सुनने से भी प्रबंधन इनकार कर रहा है. सैकड़ों दिनों मजदूर सड़कों पर खड़े होकर हक और हुकूक की आवाज उठाते हैं.

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मजदूर के साथ-साथ नेता भी है दोषी
इंटक से संबद्ध हटिया प्रोजेक्ट वर्क्स यूनियन के महामंत्री एचइसी के श्रमिक नेता राणा संग्राम सिंह ने कहा कि मजदूर यूनियनों को कमजोर होने में मजदूर के साथ-साथ नेता भी दोषी हैं. जैसे-जैसे मजदूरों का वेतन बढ़ने लगा, वे यूनियन से दूर होने लगे. उनको लगने लगा कि अब वह सुरक्षित हैं, यूनियन की जरूरत नहीं है. ऐसा बड़ी सार्वजनिक उपक्रमों में ज्यादा हुआ. कुछ निजी कंपनी और पीएयू मजदूरों पर कम मजदूर नेताओं पर ज्यादा ध्यान देने लगी. मजदूर नेताओं को जहाज और फाइव स्टार सुविधा देने लगे. इससे मजदूर नेताओं का ध्यान भी मजदूर हित पर कम होने लगा. इसके साथ-साथ जब धीरे-धीरे सरकार उद्योगपतियों के हाथों में जाने लगी, मजदूर उनकी प्राथमिकता सूची से हटने लगी. मजदूरों के काम का समय ज्यादा कर दिया गया. निजीकरण को बढ़ावा दिया गया. मजदूरों के हित के कानून में बदलाव कर दिया गया. ऐसे कई कारण रहे, जिसने मजदूर यूनियनों को कमजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

कोयला कंपनियों में कर्मियों को ज्यादा पैसा मिलने का असर
कोयला कंपनियों में अभी भी मजदूर यूनियनों का दबदबा है. लेकिन, मजदूर यूनियनों की आवाज पर उत्पादन और डिस्पैच ठप कराना अब संभव नहीं है. इसके पीछे दो कारण हो गया हैं. एक तो कोयला कंपनियों में काम करने वाले स्थायी कर्मियों का वेतन अधिक हो गया है. आंदोलन करने या उत्पादन-डिस्पैच ठप कराने का सीधा असर उनके पैसे पर पड़ता है. एक दिन बंद होने पर एक-एक कर्मियों को कम से कम दो हजार रुपये का नुकसान होता है. यह बात मजदूर नेता भी जानते हैं. उनको पता है कि अब कर्मी लंबी अवधि के लिए हड़ताल पर जाने के लिए तैयार नहीं होते हैं. कई बार तो हड़ताल पर जाने की घोषणा करने के बाद भी कई मजदूर नेता चुपके से हाजिरी बना लेते हैं. इस कारण कोयला कंपनियों में बहुत लंबी हड़ताल नहीं हो पा रही है. इस कारण मजदूर यूनियनों के विरोध के बावजूद कंपनी प्रबंधन या सरकार अपनी नीतियों थोपती जा रही है. कोयला कंपनियों में संघर्षरत मजदूर यूनियनों ने कोल इंडिया के निजीकरण (शेयर बेचने) का विरोध किया. इसके बावजूद सरकार ने शेयर बेचा. आगे भी बेचने की बात कह रही है. इपीएफओ का शेयर निजी संस्थाओं में लगाया. कोयला खदान निजी संस्थाओं को दे रही है. कोल इंडिया में खनन का काम धीरे-धीरे निजी हाथों में दिया जा रहा है. आउटसोर्स किया जा रहा है. इसका मजदूर संगठनों ने विरोध किया है. लेकिन, सरकार अपनी गति से चली जा रही है. इसके बावजूद आज भी कोयला कंपनियों में वेतन समझौता या सुविधाओं की बात दो पक्षीय ही होती है. प्रबंधन और मजदूर प्रतिनिधि साथ बैठते हैं. पिट (जहां कोयला खनन होता है) से लेकर मुख्यालय तक मजदूर और प्रबंधन की एक कमेटी है. यहीं कमेटी इस पर विचार करती है.

यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मजदूरों की ताकत कम हुई
सीटू के राज्य उपाध्यक्ष प्रकाश विप्लव कहते हैं कि यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मजदूरों की ताकत कम हुई है. इसके कई कारण है. एक तो कई उद्योग बंद हो गये. कोयला जैसे कुछ उद्योगों में मजदूरों का वेतन अधिक हो गया. इससे कोयला उद्योग के मजदूर अपनी आवाज को लेकर एकजुट तो हो जाते हैं, लेकिन मजदूरों की आवाज और केंद्र की नीतियों के खिलाफ बहुत मुखर नहीं हो पाते हैं. आज केंद्र सरकार मजदूर विरोधी कई कानून ला रही है. इसका जितना विरोध होना चाहिए था, उतना नहीं हो रहा है. दूसरा कारण संस्थाओं का निजीकरण होना भी है. आज ज्यादा दैनिक मजदूर होते जा रहे हैं. उनको अपनी नौकरी का भय सताता है. ऐसे में उनके यह उम्मीद करना कि वह हमारे आंदोलन में खड़ा होंगे, मुश्किल है. यहीं कारण है कि 60-70-80 दशक वाली मजदूरों की लड़ाई आज नहीं दिखती है. इसके बावजूद हम लोगों ने नौ-नौ आंदोलन किया है. कई बार सरकार को झुकने पर मजबूर किया है.

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