Jharkhand News : कभी बुनकरों के कपड़े की थी धाक, अब सरकारी उपेक्षा के कारण खत्म हो रहा उनके हाथ का हुनर

कभी बुनकरों के हाथों का बुना हुआ बीरू गमछा की धाक दुबई तक थी. बदले दौर में बीरू, मेरोमडेगा के बुनकर पुस्तैनी व्यवसाय छोड़ मजदूरी करने को मजबूर हो गये हैं. गुझरिया में लगभग 50 घर के लोग बुनाई का काम करते थे, यहां आज सिर्फ तीन बचे हैं, जो किसी तरह बुनकर का काम कर रहे हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 6, 2021 1:38 PM

कभी बुनकरों के हाथों का बुना हुआ बीरू गमछा की धाक दुबई तक थी. बदले दौर में बीरू, मेरोमडेगा के बुनकर पुस्तैनी व्यवसाय छोड़ मजदूरी करने को मजबूर हो गये हैं. गुझरिया में लगभग 50 घर के लोग बुनाई का काम करते थे, यहां आज सिर्फ तीन बचे हैं, जो किसी तरह बुनकर का काम कर रहे हैं.

सिमडेगा : बीरू गमछा के नाम से बुनकरों द्वारा बुना हुआ कपड़ा कभी पहचान थी, किंतु आज बीरू में एक भी बुनकर नहीं बचे. परंपरागत कपड़ा बुनाई का व्यवसाय अब खतरे में पड़ता जा रहा है. सिमडेगा जिले के बीरू, मेरोमडेगा, गुझरिया में मेहर समाज द्वारा परंपरागत तरीके से लकड़ी की मशीन बना कर सूती खादी कपड़ों की बुनाई का पुस्तैनी काम है. इससे लोगों की अच्छी कमाई भी हो रही थी. सिमडेगा में बीरू के अलावा अन्य जगहों में हाथ से बुनी कपड़े की पहचान बीरू गमछा, भेतरा गमच्छा की पहचान पूरे देश के अलावा विदेश में दुबई तक हुई थी.

किंतु अब इस परंपरागत कपड़ा बुनाई का व्यवसाय संकट में पड़ गया है. नयी मशीन आ जाने के कारण अब हाथों से बुने हुए कपड़ों की कीमत बुनकरों को नहीं मिल रही है. इस कारण बीरू गमछा से प्रसिद्ध कपड़ा अब बीरू में बनना बंद हो गया है. वहीं मेरोमडेगा में भी कपड़े की बुनाई का काम लोग छोड़ चुके हैं.

जिले की बासेन पंचायत स्थित है गुझरिया गांव. इस गांव में लगभग 85 घर है. पहले तो लगभग 50 घरों में यहां भी कपड़े की बुनाई का काम चलता था, किंतु धागे की किल्लत और महंगाई के कारण गुझरिया गांव में अब पांच परिवार ही कपड़ा बुनाई का व्यवसाय कर रहे हैं. अन्य लोग अब खेती, मजदूरी कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं. गुझरिया गांव के मुरली मेहर, सोमारू मेहर कहते हैं अगर सरकार इस परंपरागत व्यवसाय को संरक्षण और बढ़ावा नहीं देगी, तो यह पुस्तैनी व परंपरागत बुनकर का काम छोड़ना होगा.

अब इस परंपरागत व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए सरकार बुनकरों को हैंडलूम की व्यवस्था दे. मशीन उपलब्ध कराएं, ताकि वे अपना परंपरागत व्यवसाय को और आगे बढ़ा कर अपनी आय को बढ़ा सके. साथ ही इसकी पहचान कायम रख सके. समारू मेहर का कहना है कि अब बुनकरों द्वारा बुने गये कपड़ों की कीमत मशीन से बनाये गये कपड़ों की कीमत से बहुत ज्यादा होती है. इसलिए अब यह व्यवसाय खतरे में पड़ता जा रहा है.

दिन भर में एक साड़ी ही बुनकर बिन पाते हैं. जिसमें पूरा परिवार लगता है. अगर आय की बात करें तो पूरे परिवार को एक दिन में एक सौ रुपये ही मिल पाता है. ऐसे में बहुत लोग इस व्यवसाय से विमुख हुए हैं. किंतु कुछ लोग अब भी अपने पुस्तैनी व्यवसाय से जुड़े हुए हैं. किंतु अगर सरकार से कोई मदद नहीं मिलती है, तो वे लोग भी इस व्यवसाय को छोड़ कर खेती-मजदूरी करने को बाध्य हो जायेंगे.

Posted By : Sameer Oraon

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