Special Story: अफ्रीका तक थी सिल्ली के लौहे से बने औजारों की मांग, अब अस्तित्व बचाने को कर रहा संघर्ष

दक्षिण भारत से लेकर अफ्रीका तक अपनी धमक रखने वाला सिल्ली के लौहे से बने औजार अब अपना अस्तित्व बचाने को लेकर संघर्ष कर रहा है. सिल्ली में लोहे का काम करने वाले लोगों की मानें तो यहां बने औजार काफी लोकप्रिय है. लेकिन बात जब आय की होती है, तब निराशा हाथ लगती है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 25, 2022 2:12 PM

Ranchi News: दक्षिण भारत से लेकर अफ्रीका तक अपनी धमक रखने वाला सिल्ली के लौहे से बने औजार अब अपना अस्तित्व बचाने को लेकर संघर्ष कर रहा है. सिल्ली में लोहे का काम करने वाले लोगों की मानें तो यहां बने औजार काफी लोकप्रिय है. हालांकि वे तंज के लहजे में बताते हैं कि बात लोकल फोर वोकल की होती है और लोकल हुनर सांसे गिन रहा है.

इन औजारों को बनाते हैं कारीगर

सिल्ली का लौह उद्योग अपना अस्तित्व बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है. सिल्ली के एक इलाके में आज भी आगर (छेद करने का औजार) काफी मात्रा में तैयार किये जाते है. इसके अलावे दरवाजा का क्लेम्पू, दरवाजा का हसकल, आगर, बटाली, हसकल और कचक जैसे बढ़ई के औजार भी तैयार किये जाते है. इन तैयार औजारों को स्थानीय दुकानों के अलावा, बुंडू, पतराहातु, राहे, तमाड़, किता, जोन्हा के बाजार में भेजे जाते है. वहां काफी ऊंचे कीमत में बिकते है.

अफ्रीका तक सिल्ली के आगर की मांग

सिल्ली के आगर की गुणवत्ता इतनी प्रसिद्ध है कि इस आगर की पूरे देश भर में मांग है. कारीगरों की माने तो पहले सिल्ली के आगर को दक्षिण भारत से अफ्रीका तक भेजा जाता था. आज भी यहां से उत्पादित आगर को कारीगर पश्चिम बंगाल के व्यापारियों को बेच देते हैं. पश्चिम बंगाल के झालदा व पुरुलिया से इसकी ब्रांडिंग करके देश के दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, लखनऊ, राउरकेला, दक्षिण भारत के भी शहरों समेत देश के अन्य हिस्सों में भेजा जाता हैं. वहां ऊंचे कीमतों पर बेची जाती है.

किसी तरह भर रहा कारीगरों का पेट

सिल्ली में करीब 40 से पचास भठ्ठी ही बचे है जहां आगर व अन्य औजारों का निर्माण किया जाता है. कारीगर नीरू विश्वकर्मा ने बताया कि इस उद्योग के लिये जरूरी लोहा ही समय पर नहीं मिल पाता. अगर मिलता भी है तो काफी ऊंचे कीमत पर अलावे अन्य खर्च काट कर कोई तीन सौ रुपये ही बचते है. इसलिये आने वाली पीढ़ी भी इस काम मे रुचि नहीं ले रहे हैं. विश्वकर्मा एवं मनभुला विश्वकर्मा बताते है कि सिल्ली के लोहार टोला समेत अन्य को मिलाकर लोहार की भठ्ठी 40 ही बचे हैं. कोयला की कमी से काम में परेशानी हो रही है. अन्य खर्च को देखें तो एक भठ्ठी पर सात सौ का खर्च आता है. यहां के कारीगरों का पेट मुश्किल से ही भर पा रहा है.

नयी तकनीक से नई पीढ़ी जुड़ेगी

कारीगरों ने बताया कि पुरानी पद्धति से आगर के निर्माण एवं इससे होने वाली कम आय के कारण नयी पीढ़ी के युवा रुचि नहीं ले रहे हैं. अगर राज्य सरकार उद्योग को प्रोत्साहन दे, तकनीक नयी आये, इस आगर उद्योग में मशीनीकरण हो तो, आय बढ़ेगी. फिर नयी पीढ़ी भी जुड़ेगी तो उद्योग बचेगा नहीं तो पुराने कारीगरों मरने के साथ ही सिल्ली का लौह उद्योग का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा.

रिपोर्ट : विष्णु गिरि

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