कैंसर मरीजों की बने आवाज, पत्रकार रवि को अंतरराष्ट्रीय अवार्ड

इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लंग कैंसर (आइएएसएलसी) ने वरिष्ठ पत्रकार व लंग कैंसर के अंतिम स्टेज के मरीज रवि प्रकाश को इस साल के पेशेंट एडवोकेट एडुकेशनल अवार्ड के लिए चुना है.

By Prabhat Khabar Print | May 27, 2024 12:43 AM

वरीय संवाददाता(रांची).

लंग कैंसर के क्षेत्र में काम करनेवाली दुनिया की प्रतिष्ठित संस्था इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लंग कैंसर (आइएएसएलसी) ने वरिष्ठ पत्रकार व लंग कैंसर के अंतिम स्टेज के मरीज रवि प्रकाश को इस साल के पेशेंट एडवोकेट एडुकेशनल अवार्ड के लिए चुना है. उन्हें यह पुरस्कार सात सितंबर को अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत के सैन डिएगो शहर में आयोजित होनेवाले वर्ल्ड कांफ्रेंस ऑन लंग कैंसर (डब्लूसीएलसी) कार्यक्रम के दौरान दिया जायेगा. यह पुरस्कार लंग कैंसर के क्षेत्र में मरीजों के मुद्दों को उठानेवाले शख्स को हर साल दिया जाता है. आइएएसएलसी का पेशेंट एडवोकेट एडुकेशनल अवार्ड दुनिया के अलग-अलग देशों में मरीजों की एडवोकेसी के क्षेत्र में काम कर रहे पांच लोगों को हर साल दिया जाता है. इस साल भारत से पत्रकार रवि प्रकाश को इसके लिए चुना गया है. उल्लेखनीय है कि रवि प्रकाश जनवरी 2021 से लंग कैंसर से जूझ रहे हैं. उनका कैंसर चौथे स्टेज में पकड़ में आया था. उसके बाद वे न केवल अपने कैंसर का इलाज करा रहे हैं बल्कि उन्होंने कई मंचों पर मरीजों की आवाज उठायी है. सोशल मीडिया पर भी वे दवाओं की कीमत और कैंसर मरीजों की परेशानियों को लेकर लगातार मुखर रहे हैं.

कीमोथेरेपी के दर्द भरे 68 सत्रों से गुजर चुके हैं रवि :

कैंसर से लड़ाई लड़ रहे रवि प्रकाश अभी तक कीमोथेरेपी के 68 अलग-अलग सत्रों से गुजर चुके हैं. वह कैंसर मरीजों के लिए काम कर रही स्वयंसेवी संस्था लंग कनेक्ट इंडिया के निदेशक भी हैं. पिछले वर्ष उन्होंने काठमांडू में आयोजित सार्क फेडरेशन ऑफ अंकोलॉजिस्ट के सम्मेलन को भी संबोधित किया था.

दबे पांव कैंसर ने दी मेरे जीवन में दस्तक :

पत्रकार रवि प्रकाश ने कहा, मुझे खुशी है कि इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लंग कैंसर जैसी बड़ी संस्था ने मुझे इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना है. जिंदगी आराम से चल रही थी. तभी एक दिन अचानक कैंसर ने दबे पांव धीरे से दस्तक दे दी. इसके सेल अंतिम स्टेज में मेरे शरीर में घुस आये. मेरी सांसें अब चंद घंटे, महीने या साल की मेहमान थीं. उसका भी कोई तय समय नहीं. दुनिया से जाने का वक्त कब आ जाये, इसकी कोई गारंटी आज भी नहीं है. तभी मैंने कैंसर को समझना शुरू किया. मरीजों की दिक्कतें समझी, तो फिर इसकी आवाज उठानी शुरू की.

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