जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों की दावेदारी के लिए भगवान बिरसा ने अंग्रेजों से लिया था लोहा

रांची : जल, जंगल और जमीन प्रकृति के अनमोल रत्न माने जाते हैं. इनके बिना पृथ्वी पर जीवन का होना संभव नहीं है. आधुनिक झारखंड और पुराने बिहार के भगवान बिरसा मुंडा ने भविष्य की त्रासदी को बरसों पहले भांपते हुए जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों की दावेदारी के लिए अंग्रेजों के साथ लोहा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 14, 2019 10:33 PM

रांची : जल, जंगल और जमीन प्रकृति के अनमोल रत्न माने जाते हैं. इनके बिना पृथ्वी पर जीवन का होना संभव नहीं है. आधुनिक झारखंड और पुराने बिहार के भगवान बिरसा मुंडा ने भविष्य की त्रासदी को बरसों पहले भांपते हुए जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों की दावेदारी के लिए अंग्रेजों के साथ लोहा लिया था. बिरसा मुंडा लोक नायक होने के साथ ही भारत के एक आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी थे. उनकी अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका रही है और उन्होंने जीवन मूल्यों के आधार पर जिन तीन वस्तुओं पर आदिवासियों की दावेदारी के लिए बरसों तक उलगुलान या फिर संघर्ष किया.

दरअसल, झारखंड के आदिवासी दंपति सुगना और करमी के घर 15 नवंबर, 1875 को रांची जिले के उलिहातु गांव में जन्मे भगवान बिरसा मुंडा ने साहस एवं पराक्रम की स्याही से पुरुषार्थ के पन्नों पर शौर्य का इतिहास रचा है. उन्होंने हिंदू और ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आदिवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित है ही, हिंदू धर्म को भी ठीक से न तो समझ पा रहा है और न ही ग्रहण कर पा रहा है.

बृहस्पतिवार के हिसाब से रखा गया बिरसा नाम

मुंडा रीति रिवाज के अनुसार, उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था. उनका परिवार रोजगार की तलाश में उनके जन्म के बाद उलिहातु से कुरुमब्दा आकर बस गया, जहां वे खेतों में काम करके अपना जीवन बसर करते थे. उनके पिता, चाचा और ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था. बिरसा के पिता सुगना मुंडा जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे.

बकरी चराते समय वादक यंत्र तुइला को किया इजाद

बिरसा का बचपन अपने घर में, ननिहाल में और मौसी की ससुराल में भेड़-बकरियों को चराते हुए बीता. जंगल में भेड़ चराते वक्त समय व्यतीत करने के लिए वे अक्सर बांसुरी बजाया करते थे और लगातार बांसुरी बजाने से वे उसमें सिद्धहस्त हो गये थे. उन्होंने कद्दू से एक-एक तार वाला वादक यंत्र तुइला बनाया, जिसे भी वे बजाया करते थे. उनके जीवन के कुछ रोमांचक पल अखारा गांव में बीते थे. बाद में उन्होंने कुछ दिन तक चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की, लेकिन स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ. इस पर उन्होंने भी पादरियों और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया. फिर क्या था? ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया.

स्वामी आनंद पांडेय के संपर्क ने जीवन की धारा ही मोड़ दी

बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ तब आया, उनका संपर्क स्वामी आनंद पांडेय से हुआ. यह वही समय था, उन्हें हिंदू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का परिचय मिला. यह कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएं घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे. लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं. फिलहाल, झारखंड की राजधानी रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को अब ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते हैं. मुंडा आदिवासियों को अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था. 19वीं सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे.

जन-सामान्य के भरोसे बिरसा ने अपने प्रभाव में की वृद्धि

जन-सामान्य का बिरसा में काफी दृढ़ विश्वास हो चुका था. इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली. लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे. बिरसा ने पुराने रूढ़ियों, आडंबरों एवं अंधविश्वासों का खंडन किया. लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी. उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे. उन्होंने न केवल आदिवासी संस्कृति को बल्कि भारतीय संस्कृति को मजबूत करने में अहम भूमिका निभायी.

भगवान बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले जमींदारों के खिलाफ छेड़ी जंग

बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भी लोगों को दी. उनका संघर्ष एक ऐसी व्यवस्था से था, जो किसानी समाज के मूल्यों और नैतिकताओं का विरोधी था. जो किसानी समाज को लूटकर अपने व्यापारिक और औद्योगिक पूंजी का विस्तार करना चाहता था. उनकी इस क्रांतिकारी सोच को देखकर ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गयी और उसने उन्हें लोगों की भीड़ जमा करने से रोका. बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं. इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया. शीघ्र ही उन्हें दोबारा गिरफ्तार करके दो साल के लिए हजारीबाग जेल में डाल दिया गया. बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे, लेकिन बिरसा मानने वाले कहां थे. जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों के दो दल बनाये. एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने लगा और दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा. इसके लिए नये युवक भी भर्ती किये गये. इस पर सरकार ने फिर उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकाला, लेकिन बिरसा मुंडा पकड़ में नहीं आये.

बिरसा के नेतृत्व में राज्य स्थापना के लिए छेड़ा गया आंदोलन

इस बार का आंदोलन बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा. यूरोपीय अधिकारियों और पादरियों को हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के नेतृत्व में नये राज्य की स्थापना का निश्चय किया गया. बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है. यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों एवं आडंबरों के कोहरे ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है.

आदिवासियों की दिशा-दशा से भली-भांति थे परिचित

भगवान बिरसा मुंडा जानते थे कि आदिवासी समाज में शिक्षा का अभाव है, गरीबी है, अंधविश्वास है. बलि प्रथा पर भरोसा है, हड़िया कमजोरी है, मांस-मछली पसंद करते हैं. समाज बंटा है, जल्दी ही तथाकथित लोगों के झांसे में आ जाते हैं. धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं, तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं. इन समस्याओं के समाधान के बिना आदिवासी समाज का भला नहीं हो सकता. इसलिए उन्होंने एक बेहतर लोकनायक और समाज सुधारक की भूमिका अदा की. अंग्रेजों और शोषकों के खिलाफ संघर्ष भी जारी रखा. उन्हें पता था कि बिना धर्म के सबको साथ लेकर चलना आसान नहीं होगा. इसलिए बिरसा ने सभी धर्मों की अच्छाइयों से कुछ न कुछ निकाला और अपने अनुयायियों को उसका पालन करने के लिए प्रेरित किया.

खतरे को भांप अंग्रेजों ने जेल में ही दे दी थी धीमा जहर

जनवरी, 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे. उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे. बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं. आखिर में खुद बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर लिये गये. ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझा. इसलिए जेल में अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दे दिया था, जिस कारण 9 जून, 1900 को बिरसा की मौत हो गयी, लेकिन लोक गीतों और जातीय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं. बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल सहित समूचे देश के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है.

आज से सवा सौ साल पहले ही बिरसा ने भांप लिया आदिवासियों का भविष्य

जिस समय महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट कर रहे थे, लगभग उसी समय भारत में बिरसा मुंडा अंग्रेजों-शोषकों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ चुके थे. गांधी से लगभग छह साल छोटे बिरसा मुंडा का जीवन सिर्फ 25 साल का रहा. उनका संघर्ष काल भी सिर्फ पांच साल का रहा, लेकिन इसी अवधि में उन्होंने अंग्रेजों-शोषकों के खिलाफ जो संघर्ष किया, जिस बिरसावाद को जन्म दिया, उसने बिरसा को अमर कर दिया. आज झारखंड की जो स्थिति है, आदिवासी समाज की समस्याएं हैं, उसे बिरसा ने सौ-सवा सौ साल पहले भांप लिया था. उनकी यही बात इस ओर इशारा करती है कि बिरसा कितने दूरदर्शी थे. इसलिए उन्हें भगवान बिरसा कहा जाता है.

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