बिहार की जनता को एक बार फिर चाहिए 2005-10 वाली नीतीश सरकार

कानों-कान : अनेक शांतिप्रिय लोग चाहते हैं कि शपथ ग्रहण करने के बाद नीतीश कुमार अपने ही 2005-10 वाले सुशासन को दुहराएं.

By Prabhat Khabar | November 13, 2020 7:43 AM

सुरेंद्र किशोर, राजनीतिक विश्लेषक

अब यह तय है कि एक बार फिर नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे. इस खबर से उत्साहित लोगबाग सन 2005-10 के शासन की याद दिलाने लगे हैं. अनेक शांतिप्रिय लोग चाहते हैं कि शपथ ग्रहण करने के बाद नीतीश कुमार अपने ही 2005-10 वाले सुशासन को दुहराएं. जब उन वर्षों में सुशासन संभव था, तो आज उसकी पुनरावृत्ति असंभव कैसे होगी ?

2005 से 2010 तक के शासन को लोगों ने इतना पसंद किया था कि 2010 के विधानसभा चुनाव में राजग को 206 सीटें मिलीं, पर कई कारणों से हाल के वर्षों में ढिलाई आ जाने के बाद ताजा आंकड़ा 125 का है. यह आंकड़ा 2025 में आसानी से बढ़ सकता है, बशर्ते 2020 से 2025 तक कानून-व्यवस्था वैसी ही रहे जिस तरह 2005-10 की अवधि में थी.

भ्रष्टाचार का स्तर को घटा कर पहले के स्तर पर लाए जाने की जरूरत है.यह सच है कि हाल के वर्षों में विकास व कल्याण के क्षेत्रों में राज्य में अभूतपूर्व काम हुए हैं, पर उसके साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ा है.

पुलिस को और अधिक चुस्त बनाने की जरूरत बुधवार को गया जिले के कोंच प्रखंड मंे सड़क जाम छुड़ाने गयी पुलिस पर लोगों ने हमला कर दिया.बेहोश होने तक तीन पुलिसकमियों को पीटा गया.ऐसी घटनाओं के अलावा शराब व बालू के अवैध व्यापार में लगे लोग आये दिन पुलिस के साथ ऐसा ही सलूक करते हैं.

पुलिस पलट कर सबक सिखाने लायक कार्रवाई नहीं करती. यानी, कई कारणों से बिहार पुलिस का मनोबल गिरा हुआ है. उस मनोबल को उठाने की जरूरत है. बिहार के करीब दो-तिहाई नवनिर्वाचित विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं.

हां, यह संभव है कि उनमें से कुछ पर राजनीतिक आंदोलनों को लेकर मुकदमे हों, पर बाहुबली विधायकों और उनके समर्थकों को यदा-कदा दूसरों से बचाने और इनसे दूसरों की रक्षा करने की समस्या पुलिस के सामने अब अधिक रहेगी.ऐसे में सशक्त मनोबल वाली पुलिस की राज्य में अधिक जरूरत पड़ेगी.

राज्य भर में पुलिस का मनोबल कैसे बढ़ेगा.इस पर राज्य मुख्यालय में उच्चस्तरीय विचार-विमर्श करना पड़ेगा. दरअसल जब-जब भी असामाजिक तत्व पुलिसकर्मियों को कहीं से मारकर भगा देते हैं,तब -तब शांतिप्रिय लोग चिंतित हो जाते हैं.चिंता होती है कि जब पुलिस ही मार खा रही है तो हमें कौन बचाएगा ?

नवनिर्वाचित कम्युनिस्ट विधायक

इस बार कम्युनिस्ट दलों को बिहार विधानसभा में कुल 16सीटें मिली हैं. सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि माले की है. उसे 12 सीटें मिलीं. यह तो मानी हुई बात है कि कम्युनिस्ट दलों में अन्य दलों की अपेक्षा अधिक निःस्वार्थी व सेवाभावी लोग होते हैं. यदि सामाजिक न्याय व देशभक्ति के मामलों में कम्युनिस्टों की नीतियां इस देश के अनुकूल होतीं , तो इस गरीब देश में वही आज राज करते.

खैर, बिहार के ये 14 विधायक इस गरीब राज्य में चाहें तो अपनी गरीबपक्षी व भ्रष्टाचार विरोधी भूमिका बेहतर ढंग से निभा सकते हैं.गरीबी कम करने में सरकारी भ्रष्टाचार सबसे बड़ी बाधा है.भ्रष्टाचार के खिलाफ उसी तरह आंदोलन चलाने की जरूरत है जिस तरह बगोदर में माले विधायक दिवंगत महेंद्र सिंह कभी चलाते थे. यदि ऐसा हुआ तो कम्युनिस्टों को अगली बार चुनाव जीतने के लिए किसी अन्य दल की मदद की जरूरत नहीं रहेगी.

चिराग की नजर अगले विधानसभा चुनाव पर

हाल की चुनावी हार में अपनी जीत देख रहे लोजपा प्रमुख चिराग पासवान ने कहा है कि हम 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव पूरी ताकत के साथ लड़ंेगे, पर लोजपा इस बीच 2024 का लोकसभा चुनाव भूल गयी. यदि चिराग ने 2024 तक नीतीश कुमार के खिलाफ पहले जैसा ही राजनीतिक व्यवहार जारी रखा , तो भी क्या भाजपा के लिए यह संभव होगा कि उन्हें राजग में बनाए रखे ?

संभवतः अब तक भाजपा चिराग के प्रति नरम इसलिए भी रही क्योंकि हाल ही में रामविलास पासवन का निधन हुआ है.भाजपा को लगता था कि कहीं चिराग के खिलाफ कड़ाई करने पर रामविलास पासवान के प्रशंसक नाराज न हो जाएं.यदि 2024 का लोकसभा लोजपा को राजग से अलग होकर लड़ना पड़ा तो क्या होगा ?

ओवैसी का बिहार में उभार

कांग्रेस नेता तारिक अनवर ने कहा है कि बिहार में असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम का उभार शुभ संकेत नहीं है.याद रहे कि उसे विधानसभा की पांच सीटें मिल गयी हैं. अनवर साहब की बात सही है, पर सवाल है कि यह बात कहने का उन्हें कोई नैतिक अधिकार है क्या ?

जो दल गत कर्नाटक विधानसभा चुनाव में एसडीपीआइ से तालमेल कर चुका है , उसे ओवैसी के खिलाफ बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. ओवैसी की पार्टी जितना अतिवादी है, उसकी अपेक्षा पीएफआइ की राजनीतिक शाखा एसडीपीआइ काफी अधिक अतिवादी है.

और अंत में

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि परिवारवादी पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा हैं. इस स्थिति में खुद प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. उम्मीद है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के अगले विस्तार के समय मोदी अपनी इस टिप्पणी का ध्यान रखेंगे और किसी परिवारवादी पार्टी को जगह नहीं देंगे.

Posted by Ashish Jha

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