Bihar Election 2020: लंबे समय तक बिहार में सत्ता में रही कांग्रेस, जानें कैसे छूटा सामाजिक आधार वाले वोटरों का साथ…

Bihar Election 2020 पटना: एक जमाने में कांग्रेस की छतरी के नीचे दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण वोटरों की गोलबंदी हुआ करती थी. कांग्रेसी अम्ब्रेला के नीचे इन जातिगत समूहों के इतर पिछड़े वर्ग के जनाधार वाले नेताओं का भी सामंजस्य होता था. लेकिन, 1990 के दशक में मंडलवाद की राजनीति हावी होती गयी, तो कांग्रेस का जनाधार खिसकता चला गया. कांग्रेस के दलित वोटर दूसरी पार्टियों की ओर शिफ्ट होने लगे. सवर्ण खासकर ब्राह्मण मतदाताओं को भाजपा ने अपनी ओर आकर्षित किया. वहीं, अल्पसंख्यक मतदाता भी पूरी तरह साथ नहीं रह पाये.

By Prabhat Khabar | August 26, 2020 6:38 AM

Bihar Election 2020 पटना: एक जमाने में कांग्रेस की छतरी के नीचे दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण वोटरों की गोलबंदी हुआ करती थी. कांग्रेसी अम्ब्रेला के नीचे इन जातिगत समूहों के इतर पिछड़े वर्ग के जनाधार वाले नेताओं का भी सामंजस्य होता था. लेकिन, 1990 के दशक में मंडलवाद की राजनीति हावी होती गयी, तो कांग्रेस का जनाधार खिसकता चला गया. कांग्रेस के दलित वोटर दूसरी पार्टियों की ओर शिफ्ट होने लगे. सवर्ण खासकर ब्राह्मण मतदाताओं को भाजपा ने अपनी ओर आकर्षित किया. वहीं, अल्पसंख्यक मतदाता भी पूरी तरह साथ नहीं रह पाये.

कांग्रेस के नेता आज भी करते है दावा, लेकिन हकीकत अब कुछ और

हालांकि, कांग्रेस के नेता अभी भी अपने पूर्व के जनाधार के साथ होने का दावा करते हैं, पर 1990 के बाद से विधानसभा में उनकी कम होती संख्या पार्टी नेताओं के दावे के सामने नहीं टिकती. अरसे बाद 2015 के चुनाव में जब प्रदेश की दो बड़ी पार्टियां जदयू व राजद के साथ कांग्रेस आयी, तो उसकी संख्या 27 तक पहुंच पायी. इस बार जदयू महागठबंधन से बाहर है तो एक बार फिर कांग्रेस के समक्ष अपनी मौजूदा सीट बचाने की भी चुनौती साफ नजर आ रही है.

पहले सामाजिक आधार पर मतदान का ट्रेंड

जानकार बताते हैं राज्य में विस चुनाव में सांप्रदायिकता के आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक आधार पर मतदान का ट्रेंड विकसित हो चुका है. सामाजिक आधार वाले मुख्यत: पांच कोटि में मतदाता तैयार हो गये हैं. इसमें पहले कोटि में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति, दूसरे में पिछड़ा वर्ग, तीसरा अतिपिछड़ा वर्ग, चौथा अल्पसंख्यक व पांचवां सवर्ण मतदाता शामिल हैं. इन्हीं खांचों में बंटकर चुनाव के समय जातीय रैलियां होती हैं. अंत में मतदान का पैटर्न इन्हीं सामाजिक आधार पर होता. बिहार की राजनीति में 1990 तक कांग्रेस के पास सामाजिक आधार वाले मतदाताओं का अम्ब्रेला होता था, वह अब बिखर कर दो धड़ों में बंट गया है.

कांग्रेस बिहार में लंबे अरसे तक सत्ता में बनी रही

कांग्रेस के सवर्ण, अल्पसंख्यक व अनुसूचित जाति व जनजातियों के कद्दावर नेता अपने सामाजिक आधार के वोटरों को सहेजने में कामयाब रहते थे. फिलहाल प्रदेश की राजनीति में न तो एससी, न अल्पसंख्यक, न ही पिछड़ा-अतिपिछड़ा वर्ग, न ही सवर्ण वर्ग में ऐसे नेता हैं, तो अपने ही समाज को बांधकर कांग्रेस के पक्ष में खड़ा रख सकें. पहले इन्हीं सामाजिक आधार के नेताओं व मतों पर कांग्रेस बिहार में लंबे अरसे तक सत्ता में बनी रही. अब तो कांग्रेस का प्रदेश स्तर का नेतृत्व भी यह नहीं बता सकता है कि उनके पास कौन-सा सामाजिक समूह पार्टी का राजनीतिक बेड़ा पार लगायेगा. लालू प्रसाद के राज में यादवों की गोलबंदी के साथ अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग व अनुसूचित जाति-जन जाति का समूह साथ हो गया.

2015 में कांग्रेस के खाते में 27 सीटें आयी थी

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के बाद पिछड़े वर्ग का बड़ा समूह, अति पिछड़ी जातियां, अल्पसंख्यक व सवर्ण का एक बड़ा तबका उनके साथ हो लिया. इधर, भाजपा ने भी अपने सामाजिक आधार वाले मतदाताओं को अपने साथ जोड़ लिया. बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में कांग्रेस के खाते में 27 सीटें आयी थी, उसमें सामाजिक आधार वाले वोट जदयू व राजद के थे. अब कांग्रेस राजद के सामाजिक मतों के सहारे ही नैया पार लगाने में जुटी है. कांग्रेस के पास सामाजिक आधार के वोट नहीं खिसके होते, तो 2010 में संपन्न विस चुनाव में उसे दो अंकों में नहीं सिमटना पड़ता.

Posted by : Thakur Shaktilochan Shandilya

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