वैशाली के भगवान महावीर

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने संसार को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के सिद्धांत के साथ मानव जाति की भलाई के लिए 'जियो और जीने दो' का सिद्धांत दिया.

By बीके जैन | April 14, 2022 9:40 AM

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने संसार को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के सिद्धांत के साथ मानव जाति की भलाई के लिए ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत दिया. इसे अपना कर मानव जाति अपना कल्याण कर सकती है. वैशाली गणराज्य के शासक राजा चेटक के दस पुत्र तथा सात पुत्रियां थीं.

बड़ी बेटी ‘त्रिशला’ का विवाह विदेह के कुंडग्राम नगर के नाथवंश के राजा सिद्धार्थ से हुआ. सिद्धार्थ व उनकी रानी त्रिशला नंद्यावर्त महल में रहते थे. बालक वर्धमान के गर्भ में आने के छह माह पूर्व ही सौधर्म इंद्र ने जान लिया था, इसलिए उन्होंने कुबेर को आदेश दिया कि जन्म-नगरी को सुंदर बनाया जाए. महावीर का जीव अच्युत स्वर्ग से चल कर 17 जून, शुक्रवार ई पूर्व 599 में माता ‘त्रिशला’ के गर्भ में आया.

तब से सौधर्म इंद्र की आज्ञा से 56 कुमारियां माता की सेवा करने लगीं. बालक वर्धमान का जन्म सोमवार 27 मार्च, ई पूर्व 598 में हुआ. जन्म होते ही तीनों लोक में आनंद छा गया. नर्क के जीवों को भी अपूर्व सुख मिला. सौधर्म इंद्र ने इंद्राणी के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर जन्म- नगरी आकर अन्य देवों के साथ तीन प्रदक्षिणा दी.

शचि इंद्राणी प्रसूति गृह से बालक ‘वर्धमान’ को लेकर आयीं तथा सौधर्म इंद्र ने ऐरावत हाथी पर अपनी गोद में बैठाकर सुमेरु पर्वत के पांडव वन में ईशान दिशा में स्वर्ण वाली पांडुक शिला पर क्षीर सागर के जल से बालक वर्धमान का 1008 कलशों से अभिषेक किया. उस समय उन्होंने उनके दाहिने पैर के अंगूठे पर सिंह का निशान देखकर उनका प्रतीक चिह्न ‘सिंह’ निर्धारित किया.

शैशवावस्था में संजय व विजय नाम के दो चारणरिद्धिधारी मुनियों की शंका का समाधान मात्र उनके दर्शन से हो गया, तब उन्होंने इन्हें ‘सन्मति’ कहा. जब एक दिन मदोन्मत हाथी पर बालक वर्धमान ने काबू किया तभी से उन्हें ‘अतिवीर’ कहा जाने लगा. संगम नामक देव ने परीक्षा लेने हेतु उनके बालसखा को डराते हुए विशाल सर्प का रूप धारण किया, तब बालक निडर हो सर्प के सिर पर पैर रख वृक्ष से नीचे उतरे, यह देख उस देव ने उन्हें ‘महावीर’ की संज्ञा दी. तीस वर्ष की आयु में जाति स्मरण हो जाने के फलस्वरूप उन्हें वैराग्य की भावना हुई.

तब 29 दिसंबर सोमवार ई पूर्व 569 में शरीर के समस्त वस्त्र, आभूषण आदि उतार कर केशलोच करते हुए निर्ग्रंथ दिगंबर मुनि बने. दीक्षा उपरांत वे उज्जैन नगरी पहुंचे. वहां श्मशान में प्रतिमा योग धारण किया, तब महादेव नामक रुद्र ने उन पर उपसर्ग किये, किंतु महावीर को आत्मध्यान से चलायमान नहीं कर सके. इस तरह 12 वर्ष तपस्या के बाद रिजुकला नदी के किनारे उन्हें रविवार 23 अप्रैल, ई पूर्व 557 को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई.

भगवान महावीर ने 30 वर्षों तक अनेक स्थानों पर समवशरण के माध्यम से धर्म की प्रभावना की. अंत में पावापुरी में दो दिन का नियोग करके कार्तिक कृष्ण अमावस्या, 15 अक्तूबर, ई पूर्व 527 को स्वाति नक्षत्र में बहत्तर वर्ष की आयु में निर्वाण को प्राप्त हुए. इसी निर्वाण की संध्या को श्री गौतम गणधर को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हुई.

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