नस्लवादी मानसिकता बड़ी चुनौती

नस्लवादी सोच 21वीं सदी में किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है. केवल कड़े कानूनों से नस्लवाद को नहीं रोका जा सकता है. इसके लिए हर देश में सर्व समाज को एकजुट होना होगा.

By Ashutosh Chaturvedi | July 19, 2021 8:07 AM

भले हम 21वीं सदी में पहुंच गये हों, लेकिन नस्लवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये हैं. पश्चिम में अब भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो पुरानी सोच पर कायम हैं कि उनकी नस्ल अन्य से श्रेष्ठ है. दुनिया के प्रमुख फुटबॉल टूर्नामेंट यूरो कप का फाइनल हारनेवाली इंग्लैंड की टीम के तीन खिलाड़ियों पर जिस तरह से नस्लीय टिप्पणियां की गयीं, उसने स्पष्ट कर दिया है कि ब्रिटेन में लोकतंत्र की जड़े भले ही कितनी गहरी हों, नस्लवाद नहीं गया है.

इस चैंपियनशिप के फाइनल में इटली के खिलाफ पेनल्टी शूटआउट में चूकनेवाले इंग्लैंड के तीनों अश्वेत खिलाड़ियों- बुकायो साका, मार्कस रशफोर्ड और जडेन सांचो- को सोशल मीडिया पर भारी नस्लीय अभद्रता का सामना करना पड़ा. ये तीनों गोल नहीं कर पाये थे. रशफोर्ड की पेनल्टी किक गोल पोस्ट से टकरायी, जबकि साका और सांचो की पेनल्टी किक को इटली के गोलकीपर ने रोक लिया था. इटली ने यूरो कप 3-2 से जीत लिया था. यह बात इंग्लैंड के फुटबॉल प्रशंसकों को नहीं पची और उन्होंने अश्वेत खिलाड़ियों को निशाना बना कर अपनी भड़ास निकाली.

हार-जीत खेलों का एक हिस्सा है. इस मैच का भी सभी फुटबॉल प्रेमियों ने आनंद उठाया. मैच बराबरी का था, लेकिन पेनल्टी में इटली की टीम ने थोड़ा प्रदर्शन किया और जीत गयी. देर रात खेले गये यूरो फाइनल के नतीजे अगले दिन के अखबार में प्रकाशन की प्रभात खबर ने विशेष व्यवस्था की थी, ताकि जो लोग मैच न देख पाये हों, उन्हें सुबह नतीजा पता चल जाए, लेकिन इंग्लैंड में मैदान के बाहर जो कुछ हुआ, वह शर्मनाक है.

यह तब है, जब इंग्लैंड टीम यूरोपीय चैंपियनशिप के अपने मैचों से पहले घुटने के बल बैठ कर नस्लवाद के खिलाफ अपना समर्थन व्यक्त कर रही थी. नस्लीय टिप्पणी पर इंग्लैंड के फुटबॉल संघ ने अपने बयान में कहा कि वह लोगों के घटिया बर्ताव से स्तब्ध है. हम खिलाड़ियों के समर्थन में जो कर सकते हैं, वह सब करेंगे.

खेल से भेदभाव मिटाने के लिए हम हर संभव प्रयास जारी रखेंगे, लेकिन हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह जल्दी इस मामले में कार्रवाई करे, ताकि दोषियों को सजा मिल सके. फुटबॉल संघ ने नस्लीय दुर्व्यवहार के खिलाफ कानून बनाने का भी अनुरोध किया है. ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने नस्लीय टिप्पणियों की निंदा की. उन्होंने ट्वीट किया कि ऐसे घटिया व्यवहार के लिए जिम्मेदार लोगों को खुद पर शर्म आनी चाहिए.

ये खिलाड़ी सोशल मीडिया पर नस्लीय दुर्व्यवहार के नहीं, बल्कि प्रशंसा के हकदार हैं. लंदन के मेयर सादिक खान ने सोशल मीडिया कंपनियों से अपील की कि वे जिम्मेदार लोगों को सजा दिलाने में मदद करें. यह सराहनीय बात है कि ब्रिटेन में नस्लीय टिप्पणियों का काफी विरोध हो रहा है. इंग्लैंड क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान केविन पीटरसन ने भी इसकी आलोचना की है. पीटरसन ने सवाल उठाया कि ऐसी स्थिति में क्या उनके देश को 2030 फीफा विश्व कप की मेजबानी का अधिकार मिलना चाहिए. पीटरसन खुद वेम्बले स्टेडियम में खेले गये फाइनल के बाद के हुड़दंग में फंस गये थे.

ब्रिटेन में नस्लभेद नया नहीं है. मैंने बीबीसी, लंदन के साथ कार्य किया है और मुझे कई वर्ष ब्रिटेन में रहने का अवसर मिला है. मैंने पाया कि ब्रिटेन रंगभेद से मुक्त नहीं हो पाया है. आप इस बात से ही अंदाजा लगा सकते हैं कि शाही घराना तक इससे अछूता नहीं है. कुछ समय पहले ब्रिटेन के प्रिंस हैरी की पत्नी मेगन मर्केल ने अमेरिका की मशहूर होस्ट ओप्रा विन्फ्रे को दिये इंटरव्यू में कहा था कि शाही परिवार के एक सदस्य ने उनके पति प्रिंस हैरी से उनके होनेवाले बच्चे के रंग को लेकर चिंता जतायी थी.

अपने इंटरव्यू में मेगन भावुक होकर यह कहती नजर आयी थीं कि शाही परिवार को उनके बेटे के रंग चिंता थी. मेगन की मां अफ्रीकी मूल की अमेरिकी हैं और उनके पिता गोरे अमेरिकी हैं. इस इंटरव्यू में मेगन मर्केल ने कहा कि प्रिंस हैरी के साथ शादी के बाद की परिस्थितियों के कारण उनके मन में आत्महत्या तक के ख्याल आने लगे थे. कुछ समय पहले अमेरिका में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को नस्लभेद का शिकार होना पड़ा था और उसकी मौत हो गयी थी.

यह मुद्दा इतना तूल पकड़ा था कि केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि यूरोप में भी रंगभेद के खिलाफ ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ यानी अश्वतों की जिंदगी भी अहम है जैसा आंदोलन चला था. अमेरिकी शहरों और यूरोपीय देशों में व्यापक प्रदर्शन हुए थे, जो अश्वेतों की उस हताशा को दिखाते हैं, जो वे संस्थागत नस्लवाद की वजह से महसूस करते हैं.

नस्लवाद के कई आयाम हैं. सांस्कृतिक नस्लवाद की मिसाल यह है कि गोरे लोगों की मान्यताओं, मूल्यों और धारणाओं को ही जनधारणा मान लिया जाता है और अश्वेत लोगों की मान्यताओं को खारिज कर दिया जाता है. जब संस्थान इस तरह की सोच को बढ़ावा देने लगते हैं, तो नस्लवाद संस्थागत हो जाता है. ये घटनाएं बताती हैं कि दुनिया के पुराने लोकतंत्र माने जानेवाले ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देश अब तक नस्लवाद से मुक्त नहीं हो पाये हैं.

कुछ समय पहले भारतीय क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गयी थी. उस दौरान भारतीय खिलाड़ियों पर नस्लीय टिप्पणियां की गयी थीं, जिसके कारण मैच थोड़ी देर के लिए रोकना पड़ा था. भारतीय गेंदबाज मोहम्मद सिराज बाउंड्री पर खड़े थे और उन्होंने नस्लीय अपशब्द कहे जाने की शिकायत की थी. इसके पहले जसप्रीत बुमराह ने भी ऐसी ही शिकायत की थी.

ऐसा नहीं है कि भारत नस्लवाद से अछूता हो. कुछ अरसा पहले वेस्टइंडीज के डैरेन सैमी ने आरोप लगाया था कि इंडियन प्रीमियर लीग में सनराइजर्स हैदराबाद की तरफ से खेलते हुए उनके पर नस्लीय टिप्पणी की गयी थी. हमारे देश में भी अफ्रीकी देशों के लोगों को उनके रंग के कारण हिकारत की नजर से देखा जाता है. यह धारणा बना दी गयी है कि कि सभी अश्वेत ड्रग्स का धंधा करते हैं. राजधानी दिल्ली और कई अन्य शहरों में अफ्रीकी देशों के छात्र काफी बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं.

उनका काला रंग अपमानजनक बर्ताव का मूल कारण होता है. और तो और, अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नाक-नक्शा भिन्न होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है. नस्लवादी सोच 21वीं सदी में किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है. केवल कड़े कानूनों से नस्लवाद को नहीं रोका जा सकता है. जब तक हर देश में सर्व समाज नस्लवाद के खिलाफ एकजुट नहीं होगा, तब तक इसके खिलाफ नियम-कानून घाव पर महज मलहम लगाने जैसे ही होंगे.

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