यादों का फ्लैशबैक बटन

नाजमा खान पत्रकार ऑफिस से घर आते वक्त रास्ता लंबा होता है. साथ में बात करनेवाला कोई अपने मिजाज का मिल जाये, तो रास्ता कब कट जाये, पता ही नहीं चलता. मैं और निशा हंसी-ठिठोली करते हुए बस में बैठे. इस दौरान बातों का रिदम एक पल के लिए भी नहीं टूटा. गप्पें करते हुए […]

By Prabhat Khabar Print Desk | May 24, 2017 6:15 AM

नाजमा खान

पत्रकार

ऑफिस से घर आते वक्त रास्ता लंबा होता है. साथ में बात करनेवाला कोई अपने मिजाज का मिल जाये, तो रास्ता कब कट जाये, पता ही नहीं चलता. मैं और निशा हंसी-ठिठोली करते हुए बस में बैठे. इस दौरान बातों का रिदम एक पल के लिए भी नहीं टूटा. गप्पें करते हुए जिक्र जब गांव का हुआ, तो लंबा खिंच गया.

निशा की बातों ने मुझे गांव की उस पगडंडी पर ले जाकर छोड़ दिया, जहां आज पक्की सड़क बन गयी है. आज भी मेरी यादों में गांव वैसा ही क्यों बसा है, जहां टाइलों वाले शानदार दोमंंजिला घर नहीं, मिट्टी से लीपा ठंडा खपरैल वाला दादी का घर था. वो डहरी, वो ढेके, वो ओखल, वो चक्की और वो नीम का पेड़, बूढ़ा बरगद, वो बगिया, वो पुल, वो खेत-खलिहान.

अब गांवों में घर पक्के हो गये हैं. कच्ची पगडंडी सड़क के नीचे दफ्न हो गयी है. ना वो बूढ़ा बरगद बचा है और ना ही वो बूढ़े बाबा, जो आम के पेड़ों पर चढ़ने पर लाठी लेकर दौड़ाते थे. घरों में नल लग गये हैं और कूएं कूड़े से पट गये हैं. जिंदगी में रिवाइंड का बटन नहीं होता, लेकिन यादें फ्लैशबैक का बटन रखती हैं.

घर की तरफ बढ़ते हुए मेरी चाल धीमी हो गयी और याद तेज. नीम के नीचे बिछे तख्त पर बैठे पापा, दादा, काका की टोली की चुहल कानों में गूंज रही है. वो नटूला अम्मा का ठुमक-ठुमक कर चलना, किसी बात पर ठहाका लगाना और उनकी बगैर दांतों वाली वो प्यारी हंसी, मेरी दादी का उनको प्यार से गरियाना और जवाब में उनका मुंह चिढ़ा कर आगे बढ़ जाना, ये सब याद करने के लिए मुझे आंखे बंद करने की जरूरत नहीं.

गांव की याद आये और शादी के किस्से याद ना आयें!

शादी में रिश्तेदारों का मजमा प्रेमचंद की कहानी के किरदारों से भर जाता था, इमरती, सुबराती, बहाऊ नाम के अजीब-अजीब से ये सब रिश्तेदार थे. गांव के दोस्तों से जब बातें होतीं, तो हम हिंदी में बोलते और वो भोजपुरी में. लड़ाई-झगड़े में एक बात दिलचस्प हो जाती. वो कहते- हिंदी में बात करो ये क्या अंगरेजी झाड़ रहे हो. वह अंगरेजी हमारी हिंदी थी.

गांव छूटा तो दोस्त भी बिछड़ गये. कभी-कभार जाने पर मिलते हैं, दुआ-सलाम करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन, जाते-जाते जब पलटते हैं, तो दबे होठों की मुस्कुराहट में बयां कर देते हैं कि अब वे दिन नहीं हैं कि दौड़ कर पोखरे में घुस जायें. लड़के-लड़की का भेद भूला कर दोस्त को गले लगा लें. वह दोस्त जो सिर्फ और सिर्फ बदमाशी करना जानता था, जिसके लिए शराफत गाली थी और तकल्लुफ सजा.दरअसल, मुझे गांव नहीं, बल्कि गांव की यादों में बसा मेरा बचपन याद आता है, जो आज भी वहां वैसा ही होगा जैसा मैं छोड़ आयी थी!

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