एमसीडी चुनाव परिणाम

वहम कैसे चुपके से कायम होता है और एक धमाके के साथ टूटता है, यह कोई आम आदमी पार्टी (आप) से पूछे. दो साल पहले दिल्ली विधानसभा के चुनाव में देश की दो दिग्गज पार्टियों को धूल चटा कर अविश्वसनीय बहुमत से सरकार बनानेवाली पार्टी नगर निगम चुनावों में बीजेपी की जीत के सामने वैसी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 27, 2017 2:52 AM

वहम कैसे चुपके से कायम होता है और एक धमाके के साथ टूटता है, यह कोई आम आदमी पार्टी (आप) से पूछे. दो साल पहले दिल्ली विधानसभा के चुनाव में देश की दो दिग्गज पार्टियों को धूल चटा कर अविश्वसनीय बहुमत से सरकार बनानेवाली पार्टी नगर निगम चुनावों में बीजेपी की जीत के सामने वैसी ही नजर आ रही है, जैसे पहाड़ के सामने कोई ऊंट नजर आता है.

डेंगू और चिकनगुनिया की बारहमासी राजधानी बनती दिल्ली में बीजेपी अगर नगर निगम पर फिर से काबिज हुई है, तो इसमें योगदान बीजेपी की चुनावी रणनीति का कम और ‘आप’ से दिल्ली की जनता के मोहभंग का ज्यादा है. विधानसभा चुनावों में 70 में से 67 सीटों पर कब्जा जमा कर पार्टी ने खुद को अजेय मानने का वहम पाला. पार्टी के पास इस वहम को पालने के पर्याप्त कारण थे. चंद दिनों की आंदोलनी चमक दिखाने के भीतर ही चुनिंदा चेहरों की छोटी सी टोली ने एक राजनीतिक पार्टी का रूप लिया और चंद माह के भीतर अल्पमत की सरकार बन गयी. कहा गया कि यह सब अरविंद केजरीवाल का करिश्मा है, वे राजनीति के भीतर आम आदमी की पैठ और ताकत के प्रतीक हैं. जिस पार्टी को देश में वैकल्पिक लोकतांत्रिक राजनीति की धुरी बनना था, वह किसी पालतू पशु की तरह एक प्रतीक के खूंटे से बंध कर रह गयी.

आगे की कहानी बस इतनी है कि पार्टी दो साल पहले की अपनी जीत के अचंभे से एक क्षण भी ना उबर सकी. एक क्षण वह भी आया, जब दिल्ली की सूबाई सरकार, आप और उसके सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया. सरकार एकबारगी पार्टी में और पार्टी अपने सुप्रीमो के चेहरे में सिमट गयी. भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची, हर बुराई के लिए दूसरे पर दोषारोपण और खुद को गवर्नेंस की किसी भी जिम्मेवारी से हमेशा मुक्त दिखाने की पार्टी की प्रवृत्ति से खुद को छला हुआ महसूस करनेवाली दिल्ली की जनता ने सबक सिखाने की ठानी. दिल्ली के मतदाताओं का यही गुस्सा आज नगर निगम चुनावों में ‘आप’ की हार के रूप में नजर आ रहा है. आगे दिल्ली की सियासी फिजा में कुछ भी हो सकता है- ‘आप’ टूट सकती है, मध्यावधि चुनाव भी हो सकते हैं.

एमसीडी के चुनाव के नतीजों ने फिर से साबित किया है कि बीजेपी की चुनावी जीत के आगे विपक्ष का विचार निरंतर बौना होता जा रहा है. इस बौनेपन की काट ना तो कांग्रेस के पास है ना ही बीजेपी-विरोध के नाम पर महाजोट बनाने का मंसूबा पालनेवाली पार्टियों के पास. प्रतीक्षा करनी होगी कि देश के लोकतंत्र में विपक्षहीनता और विकल्पहीनता की स्थिति आगे कितनी देर तक कायम रहती है.

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