कब थमेगी उग्रवादी हिंसा?

छत्तीसगढ़ के सुकमा में अर्द्धसैनिक बलों पर नक्सली अतिवादियों का चालीस दिन के भीतर यह दूसरा बड़ा हमला है. बीते मार्च में सुकमा में ही अतिवादियों के हमले में सीआरपीएफ के 12 जवान शहीद हुए थे. इस बार के हमले में देश ने 26 जवानों को खोया है. सुरक्षाबलों पर हमले में आयी इस तेजी […]

By Prabhat Khabar Print Desk | April 26, 2017 5:43 AM

छत्तीसगढ़ के सुकमा में अर्द्धसैनिक बलों पर नक्सली अतिवादियों का चालीस दिन के भीतर यह दूसरा बड़ा हमला है. बीते मार्च में सुकमा में ही अतिवादियों के हमले में सीआरपीएफ के 12 जवान शहीद हुए थे. इस बार के हमले में देश ने 26 जवानों को खोया है. सुरक्षाबलों पर हमले में आयी इस तेजी और ताकत के संकेत बहुत चिंताजनक हैं. गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ठीक कहा है कि यह सीधे-सीधे नृशंस हत्या का मामला है, लेकिन जरूरत इससे आगे सोचने की है.

सुकमा की घटना को एक सबक की तरह लिया जाना चाहिए. पूछा जाना चाहिए कि आखिर सुरक्षा तैयारियों में इतनी बड़ी चूक कैसे हो जाती है कि जवान नक्सली हमलों के आगे अपने को निष्कवच महसूस करते हैं? पिछले दो माह से सीआरपीएफ के महानिदेशक का पद खाली है. इसे यह कह कर नहीं टाला जा सकता है कि नक्सलपंथी हिंसा से निबटने की नीति और रणनीति रोजाना के आधार पर नहीं बनाये जाते, इसलिए नियमित अभियान पर डटे जवानों के लिए महानिदेशक की नियुक्ति का मसला बहुत मायने नहीं रखता. किसी महकमे के प्रधान का होना प्रशासन और प्रबंधन के स्तर पर चाक-चौबंद होने का सबूत तो है ही, वह जवाबदेही तय करने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है. तब यह प्रश्न पूछा जा सकता था कि सुकमा में नक्सली हिंसा पर लगाम कसने की तैयारियों में चूक कहां हो रही है? बीते एक दशक से जाहिर है कि छत्तीसगढ़ का दंतेवाड़ा और बस्तर इन अतिवादियों के सबसे मजबूत गढ़ हैं. इस हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए क्या दंतेवाड़ा-बस्तर केंद्रित कोई विशेष योजना नहीं बनायी जा सकती है?

पिछले साल जुलाई में सरकार ने नक्सली हिंसा से ग्रस्त इलाकों में हासिल सफलता का आकलन किया था और ‘रेड-कॉरिडोर’ के अंतर्गत आनेवाले 106 जिलों की सूची से 20 जिलों के नाम हटाने की बात कही गयी थी. तर्क था कि जिन जिलों में अब तक के प्रयासों से नक्सलपंथी हिंसा में कमी आयी है, अतिवादियों को मिल रहा स्थानीय समर्थन कमजोर हुआ है और इलाके की विकास योजनाओं पर संतोषप्रद अमल हुआ है, उन्हें आगे से ‘रेड-कॉरिडोर’ में शामिल नहीं माना जायेगा.

पिछले साल की इन बातों को याद करें, तो सवाल उठेगा कि क्या छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा, सुकमा, बस्तर, कांकेड़ और कोंडागांव इलाकों में नक्सली हिंसा पर काबू करने के प्रयास पर्याप्त रूप से सफल नहीं रहे? अगर ऐसा है, तो इसकी जवाबदेही तय की जानी चाहिए. यह समय ‘रेड-कॉरिडोर’ के अंतर्गत आनेवाले सर्वाधिक संवेदनशील इलाकों को हिंसा-प्रतिहिंसा के दुष्चक्र से निकालने के लिए प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार और कारगर रणनीति के निर्माण का है.

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