सौहार्दपूर्ण समाधान का मौका
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक इस साल 21 मार्च को अयोध्या विवाद के संबंध में सुब्रमण्यन स्वामी की अर्जी पर अत्यावश्यक सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राम मंदिर एक ‘संवेदनशील’ तथा ‘भावनात्मक’ मुद्दा है और सभी हितधारकों द्वारा न्यायालय के बाहर आपसी बातचीत के माध्यम से इसका सौहार्दपूर्ण समाधान किया […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
इस साल 21 मार्च को अयोध्या विवाद के संबंध में सुब्रमण्यन स्वामी की अर्जी पर अत्यावश्यक सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राम मंदिर एक ‘संवेदनशील’ तथा ‘भावनात्मक’ मुद्दा है और सभी हितधारकों द्वारा न्यायालय के बाहर आपसी बातचीत के माध्यम से इसका सौहार्दपूर्ण समाधान किया जाना चाहिए. उसने आगे यह कहा कि यदि ऐसी इच्छा प्रकट की जाये, तो इस कार्य हेतु न्यायालय किसी प्रमुख मध्यस्थ की व्यवस्था कर सकता है. मुख्य न्यायाधीश ने कहा, ‘यदि आप यह मुद्दा स्वयं नहीं सुलझा पायेंगे, तभी न्यायालय के विकल्प की बारी आयेगी.’
इस विवाद का एक लंबा और कटु इतिहास रहा है, जिसे याद करने से कोई लाभ नहीं. यह तो साफ है कि इस मुद्दे से केवल कानून या तथ्यों का ही संबंध नहीं, बल्कि इन दोनों के साथ आस्था भी उलझी है. इसलिए, विद्वान न्यायाधीश ने सभी पक्षों से यह अनुरोध कर अच्छा किया है कि वे न्यायिक हस्तक्षेप के औपचारिक दायरे से बाहर आपस में इस मुद्दे को सुलझा लें.
विवेकशील भारतीय मुख्य विचारधारा अपने धार्मिक मतों से ऊपर उठ कर लंबे वक्त से यह मानती रही है कि इस विवाद का निपटारा न्यायालय अथवा हितधारकों के बीच मध्यस्थता आधारित सहमति द्वारा किया जाना चाहिए. अब चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं सहमति को एक मौका देने का अनुरोध किया है, तो क्या सभी पक्षों को उस पर गौर नहीं करना चाहिए?
बाबरी मसजिद एक्शन कमिटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने अदालत के सरोकार का स्वागत किया और कहा कि, ‘अदालत के बाहर पहले भी समझौते की सर्वोच्चस्तरीय कोशिशें की गयीं, जो विफल रहीं. मुसलिम अदालत से बाहर समाधान के इच्छुक नहीं हैं. दूसरे पक्ष द्वारा की गयी कोई भी मांग हमें मंजूर नहीं है.’ दूसरी ओर, केंद्रीय सरकार के साथ ही उत्तर प्रदेश के नवनियुक्त मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ ने कहा कि, ‘सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा, मैं उसका स्वागत करता हूं. सरकार वार्ता सुगम बनाने के लिए कोई भी सहयोग को तैयार है.’
इन परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं के बीच नजरिये की एक चौड़ी खाई है, जिसकी वजहों की पहचान की जा सकती है. जिलानी की समझ यह है कि दशकों से इस विवाद द्वारा पैदा की जाती रही कटुता और मंदिर बनाने के समर्थन में हिंदू दक्षिणपंथ की जोरदार आवाजों के बीच निष्पक्ष एवं गंभीर वार्ता मुमकिन नहीं हो सकती.
यह आधारहीन भी नहीं है. केंद्र तथा उत्तर प्रदेश में सत्तासीन भाजपा नेतृत्व संभवतः यह महसूस करता है कि प्रदेश में पार्टी की जीत की पृष्ठभूमि में, यही वक्त है कि राममंदिर के विरोधियों को अलग-थलग किया जाये, जिसके लिए अदालत से बाहर की बातचीत उचित मंच प्रदान कर सकती है.
सच्चाई यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की वजह से, वर्तमान माहौल को बदल देनेवाला एक मौका सभी संबद्ध पक्षों के हाथ आया है, ताकि एक सद्भावपूर्ण समाधान की सच्ची कोशिशें की जा सकें. कानून और आस्था, तथ्य तथा विश्वास, जुनून एवं भावनाएं, राजनीति तथा राजनेताओं के साथ ही न्यस्त स्वार्थों की एक पूरी शृंखला में आपसी टकराव हुए हैं. दंगे हुए, बाबरी मसजिद ढायी गयी, भीड़तंत्र बना, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने हस्तक्षेप किया, इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अपना फैसला दिया, और अब, सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी बात रखी है.
भारत के लिए यह एक चुनौती है कि क्या इस विवाद के सभी पक्ष इस मामले के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए अतीत की आपसी कटुता और अविश्वास से परे जा सकते हैं? यदि वे ऐसा कर सकें, तो यह हमारी सभ्यता तथा लोकतंत्र की परिपक्वता और विवेक की विजय होगी. नहीं तो यह हमारी राज्यव्यवस्था की मिश्रित एवं बहुलवादी बुनावट को अशक्त करेगा.
न्यायालय के सुझाव पर अमल के लिए, भाजपा को अपने धुर दक्षिणपंथी सहयोगी संगठनों के प्रमुखों को नियंत्रित करना होगा. उन्हें धमकी देने, भयभीत करने एवं मनमाने ढंग से अंतिम समय सीमा घोषित करने से बचना होगा. खुले दिमाग से वार्ता करनी होगी, ताकि एक समाधान तक पहुंचा जा सके, न कि उसे अपने पक्ष के लिए सियासी समर्थन जुटाने की एक प्रतीकात्मक कवायद के रूप में सीमित कर दिया जाये.
जिलानी के लिए भी यही सुझाव होगा. मुसलिम प्रतिनिधियों को यह समझना चाहिए कि वे जिनके प्रतिनिधित्व के दावे करते है, उनमें से अधिकतर इस विवाद को पीछे छोड़ना पसंद करेंगे.
उन्हें यह भी समझने की जरूरत है कि उनके हिंदू भाई-बहनों की एक बड़ी तादाद के लिए यह आस्था का एक प्रश्न है, जिसे केवल तथ्यों की एक दलील पर आधारित न्यायिक निर्णय तक ही सीमित नहीं किया जा सकता. मुसलिम वार्ताकार जो रवैया लेंगे, उसे व्यापक देशहित से निर्देशित होना चाहिए, न कि कानून की एक रक्षात्मक व्याख्या से. दूसरी ओर, उन्हें स्पष्ट रूप से आश्वस्त किये जाने की भी आवश्यकता होगी कि उनके द्वारा प्रदत्त ‘रियायत’ या ‘समायोजन’ को हिंदू वार्ताकारों द्वारा उनके समर्पण अथवा देश में अन्यत्र मंदिर-मसजिद विवाद को हवा देने के लिए एक पूर्वउदाहरण के रूप में नहीं लिया जायेगा.
सामान्य तौर पर सभी भारतीय अपने मुल्लाओं-महंतों के शिकंजे से बाहर आधुनिक, लोकतांत्रिक एवं विकासशील राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष प्रतिफलों का आस्वादन करना चाहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने आगे बढ़ने का एक अवसर दिया है, जिसका लाभ उठाया जाना चाहिए. क्या भाजपा ‘सबका साथ, सबका विकास’ के मोदी के नारे को चरितार्थ करेगी? क्या योगी आदित्यनाथ एक राजनेता जैसे नजरिये से अपने आलोचकों को गलत सिद्ध करेंगे? और, सबसे पहले, क्या मुसलिम अपनी बंद मानसिकता से ऊपर उठ कर अंतरधार्मिक समरसता में एक नया अध्याय जोड़ने की संभावना को एक नया मौका देंगे?
(अनुवाद: विजय नंदन)