खेती से दूर भागते लोग

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान हाल में ही गांव के किसानों के साथ खेती-किसानी के मुद्दे पर मैं बातचीत कर रहा था. पचास के करीब किसान इकट्ठा हुए थे, जिसमें ज्यादातर बुजुर्ग थे. युवा संख्या में केवल सात थे. एक किसान के तौर पर मेरे लिए यह परेशान करनेवाला आंकड़ा है, क्योंकि यदि युवा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 14, 2017 1:26 AM
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
हाल में ही गांव के किसानों के साथ खेती-किसानी के मुद्दे पर मैं बातचीत कर रहा था. पचास के करीब किसान इकट्ठा हुए थे, जिसमें ज्यादातर बुजुर्ग थे. युवा संख्या में केवल सात थे. एक किसान के तौर पर मेरे लिए यह परेशान करनेवाला आंकड़ा है, क्योंकि यदि युवा लोग खेती-किसानी से दूर जा रहे हैं, तो यह हमारे लिए खतरे की घंटी है. दरअसल, अब कोई भी व्यक्ति खेती-किसानी का काम नहीं करना चाहता है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि भोजन सबको चाहिए.
ग्रामीण युवाओं का बड़े पैमाने पर कृषि से मोहभंग हो रहा है. इससे भी खराब बात यह है कि शिक्षित ग्रामीण युवा, जिनमें कृषि स्नातक भी शामिल हैं, खुद को लगभग पूरी तरह से खेती-बाड़ी से अलग कर रहे हैं.
यहां तक कि अधिकतर किसान नहीं चाहते कि उनकी अगली पीढ़ी भी उनके परंपरागत पेशे को अपनाये. वे चाहते हैं कि उनके बच्चे गांव-खेत छोड़ शहरी इलाकों में बस जायें. खेती में युवाओं की कम होती दिलचस्पी की तमाम वजहें हैं. मसलन खेती में कम होता मुनाफा, ज्यादा मेहनत लगना, ग्रामीण इलाकों में सुख-सुविधाओं का अभाव और खेतों की जोतों का लगातार सिमटता आकार.
किसानी के मुद्दे पर लिखने-पढ़नेवाले मेरे एक मित्र ने बताया कि घाटे का सौदा होने के कारण हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं. अपनी कोई पहचान न रखनेवाले किसान कर्जों के कारण खेती छोड़ देते हैं, लेकिन सरकार उनके लिए कुछ नहीं कर रही है. ऐसे में देश एक खतरनाक संकट की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि खाना सभी को चाहिए, परंतु अनाज उगानेवाले खेती छोड़ रहे है.
मुझे एक सवाल हर वक्त परेशान करता है कि आखिर किसान कौन है और इसकी परिभाषा क्या है? वहीं उतार-चढ़ाव के बीच हमारी कृषि विकास दर रफ्तार नहीं पकड़ रही है. पिछले चार साल से खेती-किसानी करते हुए मुझे यह अनुभव हो चुका है िह हकीकत में गांव और किसानों की स्थिति आज बेहद खराब हुई है. पंचायती राज व्यवस्था के इतने साल बीत जाने के बाद भी लोग गांव से पलायन करने को मजबूर हैं, जबकि खेती-किसानी के प्रति रुझान लगातार कम हो रहा है.
गांव के एक युवा राजीव से बात हो रही थी. राजीव दिल्ली में दिहाड़ी करता है, लेकिन एक साल पहले तक वह दो एकड़ में खेती करता था. उसने बताया कि गांव से पलायन करने के बाद किसानों और खेतीहरमजदूरों की स्थिति यह है कि कोई हुनर न होने के कारण उनमें से ज्यादातर को निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या दिहाड़ी करनी पड़ती है.
बात यह है कि खेती किसानी का खर्च बढ़ा है, लेकिन किसानों की आमदनी कम हुई है, जिससे किसान आर्थिक तंगहाली में फंस गया है. किसानों की आय राष्ट्रीय औसत से काफी कम है. ऐसे में भी किसान सरकार से किसी वेतनमान की मांग नहीं कर रहा है, बल्कि वह तो अपनी फसलों के लिए उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य मांग रहा है, ताकि देश के लोगों के साथ अपने पेट भी ठीक से भर सके.
अगर किसानों और कृषि के प्रति यही बेरुखी रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम खाद्य असुरक्षा की तरफ जी से बढ़ जायेंगे. खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घंटी है. आयातित अनाज के भरोसे खाद्य सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती. विभिन्न आर्थिक सुधारों में कृषि सुधारों की चिंताजनक स्थिति को गति देना जरूरी है. साथ ही खेती के क्षेत्र में निवेश के रास्ते खोलने चाहिए.

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